Tuesday, March 14, 2017

ठाकुर जी को भोग

कोलकाता यात्रा में कुछ यादगार पल भी आए, लेकिन सोचा था कि इन्हें अंत में लिखूंगी लेकिन ऐसा कुछ घटित हो गया कि उन पलों को आज ही जीने का मन कर गया। गंगासागर से वापस लौटते समय शाम का भोजन मेरी एक मित्र के यहाँ निश्चित हुआ था, लेकिन हम दो बजे ही वापसी कर रहे थे तो भोजन सम्भव नहीं लग रहा था। मैंने #reeta bhattacharya को फोन लगाया तो उसने कहा कि आपको अभी कोलकाता पहुंचने में 3 घण्टे लगेंगे, मैं खाना बनाकर रखूंगी, अब मेरे पास मना करने का मार्ग नहीं था। हमने भी सुबह से खाना नहीं खाया था, खाने का मन भी कर रहा था और वह भी घर का खाना, भला कोई छोड़ता है क्या? खैर हम 6 बजे तक उसके यहाँ पहुंच गये थे।
एक दृश्य आपको दिखाने का प्रयास करती  हूँ, शायद मेरी भावना आप तक पहुँचे! अतिथि कक्ष में दीवान लगा था और उस पर एक वृद्ध महिला बैठी थी, उन्हें कुछ दिन पूर्व पक्षाघात हुआ था तो चलने में और बोलने में कठिनाई थी लेकिन उनकी आँखें हमारा स्वागत कर रही थीं और वे बराबर बोलने का प्रयास कर रही थीं। रीता एक प्याली में कुछ व्यंजन लेकर उन्हें बच्चों की तरह खिला रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह लाड़ लड़ाकर ठाकुर जी के भोग लगा रही हो। पीठ थप-थपाकर, मनुहार करके उनके मुँह में दो-चार कौर ठूंसने की प्रक्रिया थी। वे रीता की सास थी, लेकिन लग रहा था कि रीता उनकी माँ  है। वेसे भी मैं हमेशा यही कहती  हूँ कि हमारी पुत्रवधु हमारी माँ ही  होती  है, क्योंकि उसे ही हमारी देखभाल करनी होती  है। यह दृश्य मेरे मन में कभी ना मिटने वाला चित्र बन गया था। रीता ने ढेर सारे बंगाली व्यंजन खिलाये, जब हमने हाथ खड़े कर दिये तब जाकर उसके व्यंजनों का आना बन्द हुआ। भोजन करने के बाद हम फिर से माँ के साथ थे, हम यात्रा में 4 जन थे तो मुझे संकोच भी था कि कैसे हम रीता का भार बढ़ाएं लेकिन शायद इस प्रेम को देखने के लिये ही हमें अवसर प्रदान हुआ था।
हम कोलकाता जाते समय निश्चित नहीं कर पाये थे कि किस से मिल पाएंगे और किस से नहीं तो किसी के लिये उपहार भी लेकर नहीं गये थे। फिर सच तो यह है कि उपहारों की बाढ़ में, मैं उपहारों से ऊब गयी हूँ तो मेरा ध्यान इस ओर जाता भी नहीं है। हम रीता के लिये कुछ लेकर नहीं गये थे, एक तो खाली हाथ, उस पर से चार मेहमान! लेकिन माँ ने हमारा पूरा लाड़ किया, उन्होंने हम सभी को उपहार दिये। हमने एक यादगार फोटो भी माँ के साथ ली जो अब हमारे लिये वास्तव में यादगार ही बन गयी  है।
दूसरे दिन ही हमें सुन्दरबन के लिये निकलना था और वहाँ नेटवर्क ही नहीं था तो रीता से बात नहीं हो पायी। कोलकाता से लौटने  वाले दिन मैंने रीता को फोन किया तो उसने बताया कि माँ आपको याद कर  रही है और वे आपको कुछ और बंगाली व्यंजन खिलाना चाह रही हैं। लेकिन अब तो हमें जाना ही था तो हम जा नहीं पाये, पहले की ही शर्म बाकी थी कि खाली  हाथ खाना खाकर आ गये, अब फिर ऐसी गलती दोहराने का मन नहीं था और समय तो था ही नहीं। खैर हम कोलकाता से वापस लौट आए और उस प्रगाढ़ ममत्व को अपने साथ लेकर आ गये।

अभी होली के एक दिन पहले रीता का मेसेज मिला, हर पल का मेसेज पढ़ने वाली मैं, उस मेसेज को कई घण्टे बाद देख पायी और देखते ही मन धक्क से रह गया। माँ अब हमारे बीच नहीं थीं। ऐसा लगा कि भगवान ने ही हमें वहाँ ऐसे प्रेम के दर्शन करने भेजा था, नहीं तो हम तो ऐसे प्रेम के सपने भी नहीं देखते। मैं उन्हें नहीं जानती थी, बस एक घण्टे का  ही साथ था लेकिन जैसे मैंने जीवन के अमूल्य पल जी लिये हों, ऐसी अनुभूति हुई। उन्हें मेरा प्रणाम,वे जहाँ भी जन्म लें, उनकी आत्मीयता का दायरा और भी बड़ा हो, उन्हें फिर किसी रीता का समर्पण भाव मिले। मेरा अन्तिम प्रणाम।

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