कोलकाता या वेस्ट-बंगाल के ट्यूरिज्म को
खोजेंगे तो सर्वाधिक एजेंट सुन्दरबन के लिये ही मिलेंगे, हमारी खोज ने भी हमें
सुन्दरबन के लिये आकर्षित किया और एजेंट से बातचीत का सिलसिला चालू हुआ। अधिकतर पेकेज दो या तीन दिन के थे। हमारे
लिये एकदम नया अनुभव था तो एकाध फोरेस्ट ऑफिसरों से भी पूछताछ की गयी और नतीजा यह
रहा कि बिना ज्यादा अपेक्षा के एक बार अनुभव जरूर लेना चाहिये। 390 वर्ग मील के
डेल्टा क्षेत्र में बसा जंगल है, यह ऐसा
जंगल या बन है जो पानी पर है। यहाँ सर्वाधिक टाइगर हैं जो पानी और दलदल
में ही रहते हैं। चूंकि नदियों के मुहाने पर और सागर के मिलन स्थल पर डेल्टा बनते
हैं तो नदियों का पानी खारा हो जाता है, इसकारण सुन्दरबन के प्राणी खारा पानी ही
पीते हैं। फोरेस्ट विभाग ने इनके लिये
मीठे पानी की भी व्यवस्था की है, जंगल के बीच-बीच में मीठे पानी के पोखर बनाये
हैं, जहाँ ये प्राणी पानी पीने आते हैं और पर्यटकों को भी इन्हें देखने का अवसर
मिल जाता है। सुंदरबन खारे पानी पर खड़ा
है तो सारे ही वृक्ष फलविहीन है। यहाँ सुन्दरी नामक वृक्ष की बहुतायत है तो इसी के
नाम पर यह सुन्दरीबन है जो सुन्दरबन हो गया है। पानी के मध्य होने से यहाँ आवागमन
का साधन भी नाव ही है, पर्यटक सारा दिन नावों में भटकते रहते हैं और टाइगर को
ढूंढने का प्रयास करते हैं। मीठे पानी के पोखर के पास हिरण तो दिखायी दे गये लेकिन
टाइगर के दीदार होना इतना सरल नहीं है।
फोरेस्ट विभाग का गाइड बता रहा था कि अभी कुछ
दिन पहले अमेरिका से एक महिला यहाँ आयी थी और यही पर बने फोरेस्ट के गेस्ट-हाउस
में पूरे सात दिन रही थी। वह रात-दिन टाइगर के मूवमेंट के बारे में जानकारी रखने
का प्रयास करती थी, आखिर उसे केवल एक दिन सुबह 4 बजे टाइगर के दुर्लभ दर्शन हुए। इसलिये
आप चाहे तीन दिन का पेकेज लें या दो दिन का, टाइगर तो नहीं दिखेगा। ऐसा भी
नहीं है कि टाइगर गहरे जंगल में ही रहते
हैं और वे गाँव की तरफ नहीं आते, वे खूब
आते हैं और गाँव वालों का शिकार कर लेते हैं। साल में 10-12 घटनाएं होना आम बात रही है लेकिन अब वनविभाग सतर्क हुआ है और उसने जंगल में तारबंदी की है। इससे घटनाओं में कमी आयी है।
आते हैं और गाँव वालों का शिकार कर लेते हैं। साल में 10-12 घटनाएं होना आम बात रही है लेकिन अब वनविभाग सतर्क हुआ है और उसने जंगल में तारबंदी की है। इससे घटनाओं में कमी आयी है।
हमारा भ्रमण सुबह प्रारम्भ हुआ और यहाँ तक पहुंचने में तीन घण्टे का समय
लगा। कोलकाता से बाहर निकलते ही गाँवों का सिलसिला शुरू हो जाता है, इसकारण गाडी
की रफ्तार धीमी ही रहती है। यहाँ हाई-वे
क्यों नहीं बना यह तो पता नहीं, लेकिन यदि बनता तो शायद गाँव भी समृद्ध होते। हम भी खरामा-खरामा सुन्दरबन
क्षेत्र में पहुंच ही गये। अब हमें नाव की यात्रा करनी थी, नाव को हाउस-बोट का नाम
दिया गया था तो हमारी कल्पना कश्मीर की
हाउस-बोट सरीखी हो गयी और हमने उसी में रहने की स्वीकृति भी दे दी। लेकिन बोट पर
जाते ही बोट वाले ने बता दिया कि रात तो
होटल के कॉटेज में ही काटनी होगी। इस बात पर एजेण्ट को डांटा भी कि कैसे उसने यहाँ
रात गुजारने की कल्पना कर ली। लगभग 12 बजे हम बोट पर थे, कुछ नया अनुभव था उसका
रोमांच था तो कुछ एजेण्ट के दिखाये सपनों से नाखुश भी थे। भोजन की व्यवस्था बोट पर
ही रहती है, लेकिन दाल चावल और सब्जी मात्र ही होता है। आप इसे खुश होकर खा
लेते हैं तो ज्यादा ठीक रहता है नहीं तो
सारा दिन कुड़कुड़ाते रहिये। उस जंगल में तो और कुछ मिलेगा नहीं। हम 12 बजे से तीन
बजे तक जंगल में चलते रहे बस चलते रहे। पानी ही पानी था और चारों तरफ जंगल था।
जंगल के पेड़ों पर पक्षी भी नहीं थे। तीन बजे नदी से पानी उतरना शुरू हुआ और
देखते ही देखते 20 फीट पानी उतर गया। जो
पेड़ पानी में डूबे थे अब वे दलदली टीलों पर खड़े दिखायी दे रहे थे। जालबंदी भी
दिखायी देने लगी थी। हमारी नाव भी नदी के बीच में चलने लगी थी और फिर 3 बजने पर एक जगह रोक दी गयी। हमें बताया गया कि अब इन
पेड़ों पर पक्षी आएंगे, उनके कलरव का आप
आनन्द ले सकते हैं। पक्षी आना शुरू भी हुए लेकिन बहुत कम तादाद में। इससे कहीं
अधिक तो हमारे फतेह-सागर में आते हैं। पक्षी पेड़ो पर आकर नहीं बैठ रहे थे, वे
पानी से बाहर निकल आयी जमीन पर ही चहल-कदमी कर रहे थे। कुछ देर बाद समझ आया कि
दलदल में मछली आदि जीव थे जिन्हें पाने के लिये उनकी खोज जारी थी।
वहाँ से सूर्यास्त का नजारा अद्भुत था, हम भी
उसी में खो गये और नाविक की आवाज आ गयी कि अब रवाना होने का समय है। अंधेरा छाने से पूर्व हमने वहाँ से
प्रस्थान कर लिया। नदी का पानी इतना उतर चुका था कि किस घाट पर नाव को बांधना है,
नाविक इसी चिन्ता में दिखायी दिया। हमने भी एक गाँव में कॉटेज में शरण ली, अन्य
नावों के यात्री भी आने लगे थे। गाँव में ही छोटा सा बाजार लगा था और गाँव में
शान्ति दिखायी पड़ रही थी। रात का खाना भी नाव में ही बना था लेकिन हमने खाया
कॉटेज में था। होटल वालों ने हमारे मनोरंजन के लिये बंगला नृत्य की व्यवस्था की
थी, उसका भी आनन्द लिया। सुबह फिर यात्रा शुरू हुई, इसबार फोरेस्ट विभाग से
आज्ञा-पत्र लेना था, विभाग में गये, औपचारिकताएं पूर्ण की। वहाँ पर ही छोटा सा
उद्यान बना रखा है, साथ ही मीठे पानी का तालाब भी। वहाँ एक हिरण पानी पीने आया था,
बस उसके दर्शन हो गये। दूसरे तालाब में मगरमच्छ थे, धूप सेंक रहे थे। एक ऊंची मचान
भी बना रखी थी जहाँ से दूर-दूर तक देखा जा सकता था। मगरमच्छ के आकार की एक छिपकली
भी देखी जो पानी में तैर रही थी। आज्ञा मिलने के बाद हमें एक गाइड दे दिया गया जो
हमें जंगल के बारे में बताता रहा। जंगल में वनदेवी की मूर्ति लगी है, गाँव वाले
पूजा करते हैं कि देवी टाइगर के दर्शन मत कराना। कैसी विडम्बना है कि वे कहते हैं
कि टाइगर दिखना नहीं चाहिये और पर्यटक कहते हैं कि टाइगर दिखा दो। अब हमारी नाव
गहरे जंगल में थी, गाँव पीछे छूट चुके थे। हमारी निगाहें हर पल कुछ खोज रही थी,
क्या पता टाइगर दिख ही जाये! लेकिन यह भी उतना ही सच था कि हम जंगल के इतने नजदीक
थे कि टाइगर दिखने का अर्थ था हम पर
आक्रमण। सभी जानते हैं कि टाइगर ऐसे में नहीं दिखता। लेकिन सुन्दरबन के नाम से
पर्यटक आ रहे हैं और भटक रहे हैं। बस हम डेल्टा और पानी में जंगल को समझ सके, इतना
फायदा हुआ। जिन लोगों ने तीन दिन का ट्यूर लिया था, वे कुछ और गहरे जंगल में
जाएंगे लेकिन परिणाम यही होने वाला है। हम भी तीन बजे सुन्दरबन को छोड़ चुके थे।
जिस बिन्दु से यात्रा शुरू की थी वापस वहीं थे। छोटा सा विश्रामालय था, जाते समय
यही बैठकर नाव का इंतजार किया था। वापसी में नौजवानों ने वहाँ केरम लगा दिया था,
मुझे याद आ गया कि कोलकाता कभी केरम के अड्डों के रूप में जाना जाता था। मैंने
ड्राइवर से पूछा कि आज भी केरम के अड्डे चलते हैं, वह बोला की हाँ चलते हैं।
कोलकाता का जन-मन नहीं बदला था, एक दुकान पर खड़े होकर ताश खेलते हुए लोग दिखायी दे गये थे और आज केरम खेलते लोग।
सुकून मिलता है जब लोग स्वस्थ मनोरंजन से जुड़े होते हैं।
बढ़िया
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