मेरे अंदर एक पूरा संसार है।
बचपन है, जवानी है और मेरा भविष्य है।
मेरे अंदर मेरे माता-पिता है, भाई-बहन
हैं, मेरे बच्चे हैं, पति है और मेरे मित्र हैं।
बचपन का सितौलिया है, गिल्ली-डंडा है,
पहल-दूज है, छिपा-छिपायी हा
कंचे हैं, गिट्टे हैं, रस्सीकूद है।
ताश है, चौपड़ है, केरम है, शतरंज है,
चंगा-पौ है।
क्रिकेट भी है, रिंग भी है, बेडमिंटन
भी है, टेबल-टेनिस भी है।
लड़ना-झगड़ना भी है, रूठना-मनाना भी
है, पिटना और रोना भी है।
गाना है, बजाना है, नाचना है, कूदना
है, फांदना है।
सभी कुछ तो है मेरे अंदर।
मेरे अंदर मेरा पूरा परिवार है, मेरा
आनन्द है, मेरी हँसी है, मेरा रुदन है।
किसको ढूंढ रही हूँ मैं? किसके साथ की
तलाश है?
जीने के लिये इतना क्या कम होती है?
अपने अंदर जिन्हें छिपा लिया था,
उन्हें बाहर तो निकालो
सारे ही साथी तुम्हें पाकर झूम उठेंगे,
नाचने लगेंगे।
तुम्हें दुनिया में किसी की तलाश नहीं
रहेगी
बस तुम और तुम्हारा मन पूर्ण है जीवन
के लिये
बस इसे एक बार पुकार तो लो।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-04-2016) को "दिन गरमी के आ गए" (चर्चा अंक-2317) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " चटगांव विद्रोह की ८६ वीं वर्षगांठ - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआभार।
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