पूर्ण चन्द्र की रात, किसी ने ताजमहल के अनुपम सौंदर्य को निहारते बितायी होगी तो किसी ने जैसलमेर के रेतीले धोरों पर स्वर्ण रेत कणों को खिलखिलाते सुना होगा। लेकिन इन सबसे परे शारदीय पूर्णिमा पर मैंने जंगल का राग सुना। चारों ओर पहाड़ों से घिरा जंगल, बीच में एक छोटा सा बाँध, ऊपर से चाँद की मद्धिम रोशनी, कहीं जुगनू चमक उठता तो ऐसा लगता कि तारा लहरा कर चल रहा है। कान शान्ति की तरफ लगे हुए और मधुर साज के साथ प्रकृति के सारे ही साजिंदे अपने साज बजा उठते। लय के साथ प्रकृति के प्राणियों का आर्केस्टा बज रहा था। शहर की भागमदौड़ से निकलकर हम उदयपुर से 15 किमी दूर बाघदड़ा के प्राकृतिक अभयारण्य को देखने आए थे। सोचा था कि पहाड़ों के पीछे से जब सूर्य अस्त होगा तब उसे मन में उतार लेंगे लेकिन रास्ता पूछने में ही देर हो गयी और सूर्य अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर गया। अब तो चाँद निकल आया था। शरद पूर्णिमा का चाँद।
वन विभाग के संरक्षण में यह अभयारण्य है। वन विभाग के अधिकारी के निमंत्रण पर हमने भी इस आनन्द को जीने का मन बना लिया। दरवाजे पर खड़े चौकीदार ने बताया कि तीन किलोमीटर दूर है हमारा गंतव्य। हमारी गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी, एक पतली से मार्ग पर। सड़क नहीं थी, बस कच्चा मार्ग था। हमारी गाड़ी अकेली ही रास्ता भटकने से कुछ डरी हुई भी थीं लेकिन हम उसे आश्वस्त करते जा रहे थे कि रास्ता तो एकमात्र यही है, इसलिए हम भटके नहीं हैं। लगभग तीन किलोमीटर चलने के बाद रेत कुछ दलदली से लगने लगी, तब तो मन की शंका साँप के फण की तरह बाहर निकल ही आयी, नहीं रास्ता भटक गए हैं, हम शायद! एक अन्य गाड़ी में हमारे साथी कुछ देर पहले वहाँ पहुँच चुके थे। हमने फोन लगाया, अच्छा था कि नेटवर्क आ रहा था। अब उन्हें कैसे बताएं कि हम कहाँ हैं, क्योंकि वहाँ कोई लेण्डमार्क तो था ही नहीं। लेकिन राहत की साँस मिली, उन्होंने कहा कि नहीं बस यही इकलौता मार्ग है, चले आओ। तभी वे सब हाथ हिलाते हुए दिखायी दे गए।
गाड़ी को पार्क कर दिया गया। रात घिर आयी थी। अभी चन्द्रमा ने अपना पूरा प्रकाश नहीं फैलाया था, बिना टार्च की रोशनी के आगे बढ़ने में असुविधा हो रही थी। लेकिन वनकर्मी हमारे साथ था। वह एक छोटी सी पगडण्डी के सहारे हमे जंगल की ओर बढ़ा रहा था। हमें एकदम सीधे चले जाना था, एक दूसरे के कदमों के पीछे ही रहना था। जरा से चूके तो नीचे 80 फीट गहरी खाई थी और दूसरी तरफ तालाब। जिसमें मगरमच्छ भी थे। कहीं-कहीं घास भी काफी थी, लग रहा था कि कहीं से सर्पदेवता ना निकल आएं। लेकिन उस उबड़-खाबड़ पगडण्डी से होकर हम जा पहुंचे अपने गंतव्य स्थान पर। वहाँ चार चबूतरे बनाए हुए थे, वहाँ से तालाब की सुन्दरता को निहारा जा सकता था। एक चबूतरे पर टेन्ट लगा था, उसमें करीने से बिस्तर लगे थे। वाह, यहाँ तो रात बिताने का भी साधन है, लेकिन हम तो रात 10 बजे की योजना ही बनाकर आए थे। लेकिन हमने दूसरे चबूतरे पर अपना आधिपत्य जमा लिया। धीरे-धीरे और लोग भी आने लगे। इस भ्रमण में हमारे साथियों के अतिरिक्त सारी ही युवा-पीढ़ी थी। मन एकदम से युवा हो गया। जाते ही निर्देश मिल गए कि जितना शान्त रहेंगे उतना ही हम यहाँ के प्राणियों को राहत देंगे। यह उनका स्थान है, पशु-पक्षियों का घर है। आपको कोई अधिकार नहीं कि आप बिना पूछे उनके घर में चले आएं और शोर-शराबा करके उन्हें परेशान करें। हम सब की आवाजें एकदम धीरी हो गयी। बताया गया कि यहाँ पेन्थर है, आज ही उसने एक बकरी का शिकार किया है। मतलब उसका पेट भरा हुआ है, हम निश्चिंत हो गए। कभी यह स्थान बाघों का बाड़ा था इसलिए इसका नाम बाघदड़ा हो गया। लेकिन अब बाघ नहीं हैं बस पेंथर हैं और अन्य जीव।
मुख्य वन-संरक्षक श्री निहाल चन्द जैन हमारे साथ थे। उन्होंने बताया कि आप यहाँ आर्केस्टा सुन सकते हैं। मुझे लगा कि शायद कोई अन्य दल तालाब किनारे से आर्कस्टा बजाएंगा। लेकिन कुछ ही देर में समझ आ गया कि अरे इस आर्केस्टा का इंतजाम तो स्वयं प्रकृति ने किया है। कितने सुरताल में जीव अपना गान प्रस्तुत कर रहे थे, लग रहा था सारे ही शब्द मौन हो जाएं और यह तान हमारे कानों में अमृत घोलती रहे बस। तभी प्रकृति प्रेमी मिहिर ने पूछ लिया कि यहाँ आकर यदि एक शब्द में पूछा जाए कि कैसा लगा तो आप क्या कहेंगे? मैं तो अमृत पीने का प्रयास कर रही थी, मुँह से अचानक ही निकला की अमृत। लेकिन किसी ने कहा कि शान्ति है तो किसी ने कहा कि आनन्द है। तभी एक जुगनू अपनी चमक बिखेरता हुआ दिखायी दे गया। जैन साहब ने बताया कि कभी ये जुगनू उदयपुर शहर में भी खूब दिखायी देते थे लेकिन आज इस जंगल में ही सिमटकर रह गए हैं। कारण है प्रदूषण। कुछ प्रकृति के जीव प्रदूषण से असंवेदनशील होते हैं इस कारण प्रकृति प्रेमी इनकी अनुपस्थिति से जान लेते हैं कि यहाँ प्रदूषण बढ़ गया है। अर्थात प्रकृति ने कितने पैमाने छोड़े हैं हम सबके लिए, लेकिन हम कहाँ देखते हैं इन पैमानों को? बस हमारे पैमाने तो बड़ी-बड़ी गगनचुम्बी ईमारते हैं और धुँआ उगलते उद्योग-धंधे हैं।
फ्रकृति को बचाने के लिए आप क्या संकल्प लेंगे, यह प्रश्न था। उसका उत्तर तो सभी ने अपने तरीके से दिया लेकिन मन ने कहा कि हम वास्तव में कितने कसूरवार हैं। क्या दे जाएंगे हम विरासत में? एक आश्चर्यजनक सत्य मिहिर ने बताया कि चींटियां कितनी अनुशासनप्रिय हैं यह तो सभी जानते हैं लेकिन इनकी संख्या और इनका कुल भार मनुष्यों के कहीं ज्यादा है। इतनी शक्तिशाली होने पर भी चीटियों ने कभी इस सृष्टि को हानि नहीं पहुँचाई लेकिन हमने हानि के अतिरिक्त कुछ किया ही नहीं। व़ास्तव में मनुष्य कितना छोटा है? तभी घड़ी देखी, रात के साढे नौ बज चुके थे और अभी भोजन करना भी शेष था। हमने सोचा था कि यह स्थान हम दस बजे छोड़ देंगे। चाँद हमारे सिरों पर आ चुका था, हाथ की रेखाएं भी साफ दिखायी देने लगी थी। बस चाँद के कारण तारे ही कहीं दुबक गए थे। कुछ दो-चार ही दबंग थे जो टिमटिमा रहे थे। अब हमने भोजन की सुध ली। युवापीढ़ी में से किसी ने बांसुरी पर तान छेड़ दी। एक तरफ हम भोजन का आनन्द ले रहे थे तो दूसरी तरफ बांसुरी का रसास्वादन भी कर रहे थे।
आखिर हम अनमने मन से साढे दस बजे वहाँ से जाने को तैयार हुए। दूसरे चबुतरे पर युवाओं ने टेण्ट तान दिया था। अरे ये सब तो रात यहीं व्यतीत करेंगे! और हम? बस मन मसोस कर रह गए। हम केवल दस प्रतिशत ही आनन्द ले पाए थे शेष तो अगली यात्रा का ख्वाब बुनकर ही पूरा कर आए थे। वापस हमे उसी पगडण्डी पर जाना था। टार्च लिए वनकर्मी साथ था लेकिन इस बार चन्द्रमा चाँदनी बिखेर रहा था। सब कुछ साफ दिखायी दे रहा था। एक तरफ खाई और एक तरफ तालाब सभी कुछ। इसबार जल्दी ही मार्ग तय हो गया और हम अपनी गाड़ी उठाकर उस प्रकृति प्रदत्त सुन्दरता को पीछे छोड़ आए। बस अपनी साँसों में ढेर सारी महक लेकर आ गए। इस उम्मीद के साथ कि कभी हम भी रात वहीं बिताएंगे।
Ek hee saans me poora aalekh padh gayee. Bada aanand mila!
ReplyDeletebahut badiya post
ReplyDeleteबहुत रोमांचक रहा यह अनुभव । प्रकृति की गोद में जाकर सच बहुत सुकून मिलता है ।
ReplyDeleteआहा...शरद पूर्णिमा का चाँद और प्रकृति
ReplyDeleteसुकून देने वाली पोस्ट.
इस आलौकिक अनुभव के लिये आपको हार्दिक बधाई। सहारनपुर जाना होता है कभी कभी और वापिस दिल्ली आते समय यदि मैं अकेला रहता हूँ तो शाम को एक पैसेंजर चलती है जो आमतौर पर लेट चलती है, उसीसे सफ़र करता हूँ उर हर बार घर भर के लोगों से डाँट खाता हूँ कि उसी समय जब एक्सप्रेस गाड़ी है तो उससे न आकर हमेशा इस लेटलतीफ़ गाड़ी से आता हूँ। कौन मानेगा कि सिर्फ़ जगमग करते जुगनुओं को देखने के लिये उस सुनसान ट्रैक पर सफ़र करता हूँ, इसलिये डाँट डपट सुनकर मुस्कुरा देता हूँ। शायद आप भी इसी बहाने मुस्कुरा दें:)
ReplyDeleteसन्नाटे का सान्नेट ..या संगीत :)
ReplyDeleteखिली चांदनी में कौन निमंत्रण देता मुझको मौन .. :) ?
आपकी लेखनी और मेरी भी यात्रा हो गई...
ReplyDeleteइस पोस्ट ने विभोर कर दिया .
ReplyDeleteइतने मन-भावन अनुभवों को हम तक पहुँचाने के लिये आपका अतिशय आभार !
चाँदनी रात में विहार, आनन्द अलग है।
ReplyDeleteचांदनी रात का यह अनुभव बड़ा अच्छा लगा ..... बड़ी रोचक पोस्ट ..
ReplyDeleteआह और अफसोस हमें भी राजेस्थान में एक रात प्रकृति के बिच टेंट में बिताने का मौका मिल रहा था किन्तु बेटी के कारण उसे स्वीकार नहीं किया | अब आप की पोस्ट पढ़ कर अफ़सोस और बढ़ गया :(
ReplyDeleteसच आपकी यह पोस्ट पढ़कर लगा जैसे आपके साथ हमने भी उसी रास्ते की सैर करली हो सब कुछ ऐसा लगा मानो जैसे सब कुछ आँखों के सामने ही एक चलचित्र के भांति चल रहा हो.... बहुत बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteसमय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/10/blog-post_13.html
प्रकृति की छांव में बिताया गया पल और उसका रोचक विवरण पढ़कर मन प्रफुल्लित हो उठा।
ReplyDeleteआंखों के सामने गुजरता गया एक एक वाक्या.....
ReplyDeleteशरद पूर्णिमा की रात हमारे शहर के एक देवी मंदिर में विभिन्न बीमारियों के लिए दवा युक्त खीर बंटा जाता है... शाम से ही हजारों लोगों का वहां रेला लग जाता है और तडके चार बजे के आसपास खीर का वितरण होता है। इस मंदिर के सदस्य होने के नाते यह रात वहीं कटती है जागते जागते.... लोगों को व्यवस्थित करते... फिर खीर वितरण का काम... सुबह के छह सात बज जाते हैं इस काम में। पर आपकी पोस्ट पढकर ऐसा लगा कि मैं भी वहीं था... उस नजारे का मजा ले रहा था...
आभार आपका.....
शरद पूर्णिमा का पूरा आनंद उठाया आपने ... रोमांचक अनुभव रहा ..
ReplyDeleteआपके साथ हम भी सुन आये प्रकृति का यह आह्लादकारी संगीत ...
ReplyDeleteतस्वीरें होती तो आनंद दुगुना हो जाता , शायद वहां तस्वीर लेने की इज़ाज़त नहीं होगी ?
खूबसूरत पोस्ट !
मज़ा आ गया। जुगनू तो यहाँ पिट्सबर्ग में भी खूब हैं और बचपन में जम्मू में तो लड़कियाँ बाहर खेलते समय उन्हें अपने दुपट्टे में लपेट लेती थीं और घर जाने से पहले वापस उड़ा देती थीं।
ReplyDeleteवाणीगीत जी, फोटो की इजाजत तो थी लेकिन अंधेरे के कारण फोटोज आ ही नहीं पायी। केवल चांद की फोटो ही आ पायी।
ReplyDeleteबढ़िया याद रखने लायक यात्रा अनुभव अच्छा लगा ! शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteajit ji aapakaa phone aayaa to ek nai urja pravahit ho gayee subah anurag sharma ji ka bhi phone aayaa thaa. abhi adhik der tak baithane ki manaahi hai is liye kuchh der ke liye roz jaroor aayaa karoongi. aaj soch hi rahi thi aapake blog par aane ki tabhi aapase baat ho gayee| dhany7avaad. shaayad aap logon ka sneh aur prweranaa hi mujhe tthheek katr rahi hai\. romanchak varnan dhanyavaad.
ReplyDeleteप्रकृति अपनी छटा बिखेर रही हो और उस पर चांदनी रात हो तो बात ही अलग होगी। इस सुंदर वातावरण का ब्योरा देने के लिए आभार॥
ReplyDeleteशरद पूर्णिमा पर बहुत प्रासंगिक रही यह पोस्ट!
ReplyDeletebehad khoobsurti se likha hua......manmohak andaz.....
ReplyDeleteरात का समा, झूमे चंद्रमा...
ReplyDeleteऔर प्रकृति के ऐसे मनोरम में काश एक ब्लॉगर मीट हो जाए...
जय हिंद...
सुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteपोस्ट की शुरूआती पंक्तियाँ...पढ़ते ही इर्ष्या की तेज लहर उठी...
ReplyDeleteहम क्यूँ ना हुए वहाँ आपके साथ :(
The night after your return was even more romantic. We did a full moon trek in the middle of night to experience the tranquility of serene lake surroundings, flowing water streams and sounds of singing insects and birds. Sleeping in the tents with openings to receive the showering love from haven. Got up before sunrise to feel the glowing lake with returning moon and rays coming from sun below the Khsitiz. A truely amazing experience welcomes each one of us.
ReplyDeleteखुशदीप जी
ReplyDeleteआ जाइए, उदयपुर में ऐसे न जाने कितने क्षेत्र हैं? बहुत अच्छा समां रहेगा।
lutf aapne bhi uthaya aaur hamne bhi..aapne paidal chalkar ya ho sawar pahiyon per..hamne shabdon ki kasti per ..jise banaya bhi aapne aaur kheya bhi aapne...behtarin chandini rat ke man ko sheetal karne wali yatra ..itni aachhi yatra karne aaur karane ke liye kotisah badhayee..sadar pranam ke sath
ReplyDeleteप्रकृति की आर्केस्ट्रा से बढ़कर कोई दूसरा संगीत नहीं है।
ReplyDeleteरम्य आलेख।
वाह वाह. सुंदर संस्मरण. ऐसा लगा कि हम खुद अभयारण्य में खुद विचरण कर रहे हों.
ReplyDeleteबधाई.
सुंदर पोस्ट!
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत संस्मरण |
ReplyDeleteबहुत रोचक प्रस्तुतीकरण..
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