जब लोगों को देखती हूँ कि गुलाब की पत्तियों से भी घाव कर लेते है तो मुझे लगे काटों के घाव सोचने पर मजबूर कर देते हैं। मेरे घाव कहते हैं कि अरे तू तो रोती नहीं? कांटे भी चुभा दिए, तलवारें भी चला लीं, तोप-तमंचे सभी का तो उपयोग कर लिया फिर भी तू स्थिर है? ऐसा क्या है तेरे अन्दर? कभी मैं कहती कि मैं नारी हूँ, इसलिए सारे ही गरल पीना जानती हूँ, कभी कहती नहीं मेरे अन्दर शायद पुरुषत्व के गुण हैं जिन कारण मैंने तुम सभी के दंशों को सहा है। लेकिन आज मुझे झूठ सा लग रहा है, पुरुष तो बात-बात में रो पड़ता है, उसे तो बचपन से ही पपोला जाता है और कभी फूल की पंखुड़ी भी लग जाए तो हाय-तौबा कर बैठता है। नहीं-नहीं मेरे अन्दर कोई पुरुषोचित गुण नहीं है। तो क्या नारी के ही गुण है, जो बचपन से ताने सुन-सुनकर पक जाती है और दृढ़ बन जाती है। लेकिन मन ने इसे भी नहीं स्वीकारा। उच्च पदस्थ महिलाओं को, लाड़-प्यार में पली महिलाओं को रोज ही रोते देखती हूँ तो नहीं मुझमें यह विशेषता भी नहीं है।
आप सोच रहे होंगे कि यह क्या रामायण है? लोगों को ब्लाग जगत में आहत होते देखती हूँ तो बड़ा अजीब सा लगता है, बस इसी बात की यह रामायण है। मेरी टिप्पणी पर विरोध कर दिया, टिप्पणी नहीं की आदि आदि बातों से हम विचलित हो जाते हैं। आप कल्पना करेंगे कि एक अठारह वर्ष की लड़की ऐसे कॉलेज में अध्ययन करे जहाँ 300 छात्र हों। 50 से अधिक गुरुजन हों। अधिकांश छात्र और गुरुजन एक ही समुदाय के हों। वे सब मिलकर प्रण कर लें कि किसी छोकरी को यहाँ नहीं पढ़ने देंगे और वो भी बणिए की तो? लेकिन वो छोकरी याने मैं हार नहीं मानती। परिस्थितियों के सामने ना झुकती ना टूटती। घर-परिवार से भी कोई सम्बल नहीं। कुछ दिनों तक केवल आँसुओं का साथ रहा। फिर समझ में आया कि इस दुनिया में जीना है तो स्वयं को अकेला समझो और उतर जाओ अखाड़े में। मैं उतर गयी और आज यहाँ तक आ पहुंची हूँ।
जिन्दगी सतत संघर्ष का दूसरा नाम है। शान्ति कहीं नहीं है। एक संघर्ष समाप्त होगा तो दूसरा तैयार है। इसलिए संघर्षों को टालों मत। भिड़ जाओ। नहीं तो एक और दो कर-कर के ये एकत्र होते जाएंगे और आपको दबोच लेंगे? भारत की स्थिति नहीं देखी क्या? स्वतंत्रता के साथ ही पाकिस्तान के साथ कश्मीर में युद्ध, हमने निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ी, टाल गए। दुश्मन एक से दो हो गए और 1962 में चीन चढ़ आया। हम फिर डर गए। दुश्मन ने उत्तर से लेकर पूर्व तक जंग छेड़ दी, 1965 और 1971 में। 1971 में हमने जवाब दिया और दुश्मन ने फिर युद्ध नहीं किया, रणनीति बदल ली। आतंक ने जगह ले ली। मेरे कहने का तात्पर्य इतना सा ही है मेरे दोस्तों, संघर्षों से डरों मत, उनका मुकाबला करो। जीवन है तो विरोधाभास भी हैं। आपके विचार और मेरे विचार एक नहीं हो सकते। हमारा कार्य है समाज में प्रेम का संदेश देना, एकता पैदा करना। साहित्यकार अपनी विभिन्न शैलियों से समाज को संदेश देता है, विवाद नहीं करता। यदि आपका संदेश और आपका कार्य समाजहित में है तो निश्चित मानिए कि आपके विचार के विरोधी भी उत्पन्न होंगे और वे आपके लिए रोड़ा बनेंगे। आप डर गए, भाग गए तो उनका श्रम फलीभूत हो गया। तो क्या आप ऐसे लोगों के सपनों को सच होने देना चाहते हैं, जो यह चाहते हैं कि आपका संदेश दुनिया तक नहीं पहुंचे? लोग तो कहते हैं कि मर्द बनो लेकिन मैं कहती हूँ कि महिला बनो। जिससे गरल पीने की शक्ति आ जाए। यह पोस्ट मैं किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं लिख रही हूँ बस रोज-रोज के आहत मनों के लिए लिख रही हूँ। आप मेरी प्रत्येक पोस्ट पर खुलकर अपने विचार रख सकते हैं, मैंने कोई मोडरेशन भी नहीं लगाया है। मैं दुनिया के सारे ही विचारों का स्वागत करती हूँ। क्योंकि मैं मानती हूँ कि जब भारत में अंधेरा होता है तब अमेरिका में उजाला होता है और जब वहाँ अंधेरा होता है तब हमारे यहाँ उजाला। सारे ही विचार रहने चाहिए। हर युग में राम और रावण, कृष्ण और जरासंध साथ ही रहे हैं। बस हमें मार्ग चुनना है कि हम किस का मार्ग चुने। और कितनी भी बाधाएं आए अपने कर्तव्य पथ पर डटे रहें। उत्तिष्ठ जागृत .. . .
aap sahi kah rahi hai.
ReplyDeleteहिन्दीकुंज
मम्मा....आप एकदम सही कह रही हैं....बस हमें मार्ग ही चुनना है....
ReplyDeleteaapka jeevan bahuton k liye prernasrot hai....mere liye bhi....
ReplyDeletehttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
"जब लोगों को देखती हूँ कि गुलाब की पत्तियों से भी घाव कर लेते है तो मुझे लगे काटों के घाव सोचने पर मजबूर कर देते हैं।"
ReplyDeleteअजित जी गुलाब की पत्तियाँ एक तो घाव करती नहीं किन्तु जब करती हैं तो काँटों के घाव से कई गुना बढ़कर करती हैं और मनुष्य की संवेदनशीलता इसे सहन नहीं कर सकता। काँटों के घाव को सहना बहुत आसान है किन्तु फूल के घाव को सहना अत्यन्त मुश्किल।
आखिर पता तो लगे कि किसने क्या कहा है?
ReplyDeleteअवधिया भईया ने बहुत पते की बात कही है...
ReplyDeleteआभार..
ललित शर्मा प्रकरण। पर हम हताश नहीं हैं। वे जल्द ही लौटेंगे, उनकी लोटे वाली पोस्ट स्मरण आ रही है। रात को उनसे लिखचीत हुई थी और सुबह पोस्ट पढ़ी और मन लोटामय हो गया था।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया। मुझे भी अक्सर लगता है की हमें दर्द देने वाले मर्द बनाने की जगह दर्दों को अपने आंचल में समेट लेने वाली औरत बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत सटीक बात....नारी में अधिक सहनशीलता होती है...और वो हर संघर्ष का डट कर मुकाबला कर सकती है.....पर अवधिया जी की बात में भी बहुत दम है....काँटों के घाव का एहसास होता है पहले से....फूलों से उम्मीद नहीं होती कि उनसे भी ज़ख्म मिलेंगे...और जब उनसे ज़ख्म मिलते हैं तो ज्यादा पीड़ा देते हैं...
ReplyDeletenice
ReplyDeleteबहुत ठीक कह रहीं हैं आप , पलायनवादी प्रवृत्ति का सम्मान नहीं होता चाहे कितने ही अछे मन से क्यों न हुआ हो ! लोग इसे कायरता ही मानेंगे और अंततः उपहास ही होगा !
ReplyDeleteबहुत जरूरी लेख !
जिन्दगी एक युद्ध है जिसे लड़े विना पार नहीं पाया जा सकता ।यही बात जब हम लोगों को समझाते हैं तो वो अपने असली शत्रु से लड़ने के बजाए अपनों की ओर मुंह कर लेते हैं। क्या जिन्दगी इसी का नाम है।
ReplyDeleteज़िन्दगी के फ़लसफ़े को बहुत ही खूबसूरती से दर्शाया है…………………्ज़िन्दगी ज़िन्दादिली का नाम है…………यूँ ही थोडे ही कहा गया है………………………।बहुत ही सुन्दर विचार्।
ReplyDeleteकोई क्या कहता है इसे छोड़ना चाहिये। हमें जो ठीक लगे वह करना चाहिये।
ReplyDeleteडा. साहिबा,
ReplyDeleteबहुत प्रेरक पोस्ट है आपकी। अपने व अपने देश के अनुभव के माध्यम से आपने सिद्ध किया है कि खुद को मजबूत करना ही श्रेयस्कर है। हालांकि अवधिया साहब की बात भी काफ़ी हद तक ठीक है। वैसे ब्लाग जगत के ताजा मामले की पूरी जानकारी हमें नही है, लेकिन बेहतरीन विकल्प सामना करने में ही है।
आपके विचार काफ़ी स्पष्ट व प्रेरक हैं।
आभार।
अजित जी,
ReplyDeleteअभी तक मैं आपका सम्मान करता था...लेकिन आज से आप मेरे लिए पूजनीय हो गई हैं...वाकई पलायन किसी समस्या का हल नहीं हो सकता...लेकिन यहां तो कोई समस्या भी नहीं होती...बस गलतफहमी हो जाती है...और लोग कुछ का कुछ मतलब निकाल ले लेते हैं...
ललित भाई के प्रकरण में प्रयास जारी हैं...अभी कुछ नहीं कह सकता...लेकिन हो सकता है आपको जल्दी ही अच्छी खबर मिले...
जय हिंद...
बिकुल सहमत डॉ गुप्ता जी ,ऐसा भी क्या छुई मुई होना !
ReplyDeleteपलायन वाद पर यह अच्छा विश्लेषण् है ।
ReplyDeleteजाने क्यूँ जरा सी बात पर विचलित होना..नजर अंदाज करना भी तो एक अंदाज है...जमता भी है.
ReplyDeleteकभी ठेस लगती है..तो वक्त के साथ उससे उबरने के उपाय भी होते हैं. पलायन कर जाना तो हल नहीं.
साहस की प्रेरणा देती पोस्ट।
ReplyDeleteसच है , इतना सेंटीमेंटल भी नहीं होना चाहिए की हवा के एक झोंके से सारा अस्तित्व ही हिल जाये ।
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ReplyDelete.
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आदरणीय अजित गुप्ता जी,
मैंने कोई मोडरेशन भी नहीं लगाया है। मैं दुनिया के सारे ही विचारों का स्वागत करती हूँ। क्योंकि मैं मानती हूँ कि जब भारत में अंधेरा होता है तब अमेरिका में उजाला होता है और जब वहाँ अंधेरा होता है तब हमारे यहाँ उजाला। सारे ही विचार रहने चाहिए। हर युग में राम और रावण, कृष्ण और जरासंध साथ ही रहे हैं। बस हमें मार्ग चुनना है कि हम किस का मार्ग चुने।
आपसे असहमत हुआ ही नहीं जा सकता... भिन्न विचार भी बने रहने चाहिये... आखिर कल को राम कौन कहलायेगा और रावण कौन, यह भी तो आज डिसाइड नहीं किया जा सकता... जब यही भविष्य के गर्भ में है तो हम होते कौन हैं किसी के भी विचारों पर अपना फैसला सुनाने वाले ?
आभार!
मेरी पोस्ट आपके सामने बच्चे की पोस्ट है.....सही है जो डर गया सो मर गया...डर के आगे ही जीत है..
ReplyDeleteदिक्कतों का सामना कर डटे रहना ही इंसान का प्रथम कर्तव्य है ...कई बार पलायन को मजबूर करने जैसी परिस्थियाँ बना दी जाती है आस पास .....मगर इंसान वही जो अपने सत्य मार्ग पर चलते हुए परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए प्रयासरत हो ....!!
ReplyDeleteहाँ ..फूलों की मार काँटों से ज्यादा चुभती है ...अपनों के कटाक्ष गैरों की गालियों से ज्यादा दुःख देते हैं ...बिक्लुल सही कहा है अवधिया जी ने ... गैरों से तो वैसे भी कोई अपेक्षा रखी ही नहीं जाती ..
नत मस्तक. सही समय पर प्रेरणादायी पोस्ट
ReplyDeleteचुनौतियाँ ही नायक को जन्म देती हैं। खलनायक के बिना नायक का जन्म मुश्किल है। चुनौतियों से बड़ा कोई खलनायक नहीं।
ReplyDeletesahi he
ReplyDeletebahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
सुनील दत्त जी ने एक प्रश्न उठाया है देखें - 'जिन्दगी एक युद्ध है जिसे लड़े विना पार नहीं पाया जा सकता ।यही बात जब हम लोगों को समझाते हैं तो वो अपने असली शत्रु से लड़ने के बजाए अपनों की ओर मुंह कर लेते हैं। क्या जिन्दगी इसी का नाम है।'
ReplyDeleteमुझे लगता है कि युद्ध करना या झगड़ा करना भी हमारे अन्दर एक स्वाभाविक जन्मजात गुण है। झगड़े में भी हम जीत ही देखते हैं, इसलिए जिस शत्रु से हम जीत सके उससे ही झगड़ा या युद्ध करते हैं। जब कोई हमें समझाता है तब कभी गुस्से में की तुम हमें क्यों रोक रहे हो और कभी कमजोर पक्ष समझकर हम उसी से भिड़ जाते हैं।
मैं कल शहर से बाहर गयी हुई थी, इस कारण आपने प्रश्न का उत्तर आज दे पा रही हूँ।