Tuesday, February 25, 2020

कोने की धूप

कल तक जिन आँखों में उदासी थी, आक्रोश भी उन्हीं आँखों से फूट पड़ता था, झुंझलाकर पति-पत्नी दोनों ही कह उठते थे कि नहीं अब बेटे से आस नहीं रखनी, वह पराया हो गया है! लेकिन कल उन आँखों में मुझे चमक दिखायी दे गयी। पति-पत्नी दोनों झील किनारे टहल रहे थे, पत्नी अलग टहल रही थी और पति अलग। पति ने पत्नी के पास आकर कहा कि चलो घर चलते हैं। बेटे का फोन आया है, कहीं बाहर गया था, रात आठ बजे तक बहु और पोते को लेकर लौटेगा। मैंने उससे कह दिया कि घर पर ही भोजन करना, रास्ते का खाना ठीक नहीं होता। बच्चे के लिये दलिया-खिचड़ी बन जाएगी। फिर पत्नी की ओर देखकर बोले की तुम ऐसा करना कि दलिया ही बना लेना उसमें गाजर मटर भी डाल देना, पोते को अच्छा लगेगा। आज उन्हे जाने की जल्दी थी, शीघ्रता से ही ड्राइवर को आदेश दे दिया कि गाड़ी निकालो। मैं उनकी आँखों की चमक को देख रही थी, कल तक ये ही आँखे उदास थी लेकिन आज ममता टपक रही थी। एक ही बेटा है, कल भी वही था और आज भी वही है!
सर्दियों की जाती धूप में हम एक कोने में सिमटी धूप को तलाशते हैं और गर्मी में किसी पेड़ के नीचे मुठ्ठी भर छाँव को। बस एक कोने में धूप मिल जाए और किसी छज्जे के नीचे छाँव मिल जाए तो जीवन में आस बँधी रहती है। सारे दिन की सर्दी की गलन या धूप की तपन से मुक्ति मिल जाती है और यह क्षणिक मुक्ति का सुख सारे दिन की और कभी-कभी ढेर सारे दिनों की पूंजी बन जाती है। माता-पिता शिकायत कर रहे हैं कि बेटा-बहु साथ नहीं रहते, हमें धमकाते भी हैं, बुढ़ापे में जीवन दूभर लग रहा है, क्या करें? निराश दम्पत्ती अपने बीते दिनों की परछाई ढूंढ रहे हैं, सुख के क्षणों को ओने-कोने में तलाश रहे हैं। बेटा-बहु ने साथ रहने से साफ इंकार कर दिया है, सारे ही सम्बन्धों को धता बता दी है। लेकिन एक सम्बन्ध शायद अभी टिमटिमा रहा है! माँ-बाप की रसोई में आज ऐसा कुछ बना है, जिसे बेटा कभी बड़े चाव से खाता था, तो फोन पर अंगुलियाँ मचल ही जाती हैं। बेटा कहता है कि ठीक है, मैं आ रहा हूँ। पत्नी को समझाता है कि माँ ने भोजन बनाया है, बुला रही है। देखो तुम्हें आज भोजन की किट-किट नहीं करनी होगी। पत्नी तैयार हो जाती है और चल देते हैं दोनों। माँ-बाप की ममता निहाल हो जाती है और संतान को भोजन मिल जाता है, बस यही सम्बन्ध टिमटिमाता रहता है। माँ उस बाती में तैल डालती रहती है और दीपक टिमटिमाने लगता है।
यह ममता भी एक तरफा होती है, केवल माता-पिता के दिल को ही घर बनाती है। संतान तो केवल उस झरने में नहाती ही है। झरना तो बहता ही रहता है, नहाने वाली संतान को उस झरने की कब परवाह होती है। यह ममता हमें हर माँ-बाप की आँखों में दिखायी दे जाती है और बेपरवाही की झलक संतानों में। जब संतान बिल्कुल ही मुँह फेर ले तब मुठ्ठी भर छाँव को तलाशने में ही माँ-बाप लगे रहते हैं। जब वह मुठ्ठी भर छाँव माता-पिता की आँखों में दिखायी देती है, तब एक नयी आशा जन्म लेती है और इसी आशा के सहारे रोज ही माता-पिता कभी किसी कोने धूप तलाश लेते हैं और कभी छाँव पा जाते हैं।

6 comments:

  1. क्या किया जा सकता है? इसे जनेरेशन गैप भी कहें तो नहीं चलेगा क्योंकि हममे और हमारे पेरेण्ट्स में भी तो था यह गैप. बस जमाने की हवा समझकर ही संतोष कर सकते हैं आज के मां बाप.
    रामराम

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  2. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'बुधवार' २६ फ़रवरी २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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  3. एकलव्य को उनके परिश्रम के लिये आभार।

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