अपनी बात को यदि उदाहरण देकर प्रारम्भ करूं तो पूरी पोस्ट उदाहरण से ही भर जाएंगी लेकिन उदाहरण कम नहीं होंगे। कल तक बैठकखाने में सीमित पुरुष आज रसोईघर में दखल रखता है, कल तक बच्चों के साथ केवल खेलने वाला पुरुष आज उनके डायपर भी चेंज करता है। कल तक हम पीड़ित थे कि विवाह के पूर्व माँ के आगे-पीछे घूमने वाला पुत्र, अचानक विवाह होते ही शेर कैसे बन जाता है और पत्नी को आगे-पीछे घुमाने में ही अपना पुरुषत्व क्यों समझने लगता है? लेकिन आज स्थितियां बदल गयी हैं। कार्यविभाजन समाप्त प्राय: सा हो गया है। नयी पीढ़ी बदलाव की अंगड़ाई ले रही है। अभी यह बदलाव उच्च शिक्षित युवा में दिखायी देने लगा है लेकिन इस बदलाव की आँधी का वेग तीव्र है और यह मध्यमवर्गीय युवा तक जा पहुंचा हैं। आज की युवा पीढ़ी के लिए न जाने कितनी आलोचनाएं हमारे मन में हैं लेकिन उनकी प्रशंसा के लिए हमारे पास ना तो दृष्टि है और ना ही मन। हो सकता है कि आप भी मेरी इस बात से सहमत नहीं हों, लेकिन मुझे तो बदलाव की क्रान्ति दिखायी दे रही है इसीलिए मैं आज युवापीढ़ी को नमन करती हूँ।
पिता की भूमिका में आज का युवा पूर्णतया उत्तरदायी है, वह सारे ही उन कार्यों का सम्पादन करता है जो कल तक केवल माँ के हिस्से थे। बच्चे के डायपर बदलना, नहलाना, खाना खिलाना, सुलाना सभी कार्य तो आज के युवा कर रहे हैं। कल तक इसी सामाजिक बदलाव के लिए हम तरस रहे थे और आज यह बदलाव कब दबे पाँव हमारे घरों में आ गया हमें पता नहीं नहीं चला! निश्चित रूप से यह बदलाव पश्चिम से आया है, वहाँ कार्य विभाजन समाप्त प्राय: सा ही है। जब मैंने अपने परिवार में ही नजदीकी रिश्तों में यह बदलाव देखा था तो कुछ अजीब सा लगा, क्योंकि हमारा मन पूर्वाग्रहों से ग्रसित है और हमने कार्य के बारे में एक रेखा खेंच दी है। यदि किसी पुरुष को डायपर बदलते देखते हैं तो अजीब सा लगता है। लेकिन अब जब यह स्थिति सार्वजनिक हो गयी है तब अच्छा सा लग रहा है।
आज समय की यही मांग है कि हम इस कार्यविभाजन को समाप्त कर दें। अभी कुछ दिन पूर्व एक महिला साहित्यकार सम्मेलन में जाना हुआ। वहाँ एक महिला ने प्रश्न दाग दिया कि कौन इस बात पर गर्व कर सकता है कि हमने अपने बेटे को इस योग्य बनाया है कि वह अपनी पत्नी को बहुत अच्छी तरह से रखेगा? मैंने तुरन्त अपना हाथ खड़ा कर दिया। उसका कारण भी था कि मेरा बेटा, अपने चार वर्षीय बेटे को बखूबी रख रहा है। क्योंकि मेरी बहु पहले पढ़ाई में और अब नौकरी के कारण ज्यादा समय नहीं निकाल पाती और उसे सप्ताह में पाँच दिन अलग रहना पड़ता है। मुझे उस पर गर्व होता है कि वह अपने कर्तव्य को बखूबी निभा रहा है। लेकिन यहाँ बात केवल मेरे बेटे की नहीं है, मैं सारे ही बेटों को देख रही हूँ कि वे सारे ही कार्यों में अपना हाथ बंटा रहे हैं। हो सकता है अभी यह प्रतिशत कुछ कम हो, लेकिन धीरे-धीरे बदलाव की यह आँधी सुखद होगी, मैं यही विश्वास करती हूँ। अपनी पत्नी के प्रति जिस निष्ठा के साथ आज का युवा जुड़ा है वह प्रशंसा के योग्य है। दोनों की आपसी समझ में बढोत्तरी हुई है, उनमें दोस्ती का भाव आया है। वे एक दूसरे की कठिनाइयों को समझने लगे हैं। आपने भी इस बदलाव की आंधी का साक्षात्कार किया हो तो बताएं। मैं यह जानती हूँ कि अभी परिवर्तन छोटा है लेकिन है तो!
32 comments:
आपने लिखा एक दम सही है, ये बदलाब मैं भी देख रहा हूँ पर साथ में ये भी सोचता हूँ कि ये सभी लोग पहले से ही ऐसे थे या अभी ऐसे हुए हैं क्यूंकि मैंने अगर सच कहूँ तो आज की तारीख में मैं अपना ध्यान भी नहीं रख सकता, किसी और का तो कहूँ ही क्या, देखते हैं शायद यह स्थिति बदल जाये
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बदलाव आया तो है. मैं भी इस बदलाव में स्वयं को घिरा पाता हूँ.
यदि ये कहूँ कि मानवीय स्वभाव यही होना भी चाहिए कि परस्पर सहयोग और योगदान करते रहें.
फिर भी कार्यों के विभाजन का अपना महत्व है. इससे अपनी विशेषज्ञता बनी रहती है.
जब मैंने पत्नी से कहा कि मैं आपसे बेहतर चाय बना लेता हूँ और बर्तन भी बेहतर माँजता हूँ और झाडू भी ...
उनका जवाब था कि आज़ से ये काम आप ही करेंगे. शायद मज़ाक हो. लेकिन फिर भी जवाब होना चाहिए — मैं भी कोशिश करूँगी मुझसे से भी दोनों कार्य अब से अच्छे हों.
कल ही तो मैंने पत्नी के कर्तव्यों का शास्त्रीय उल्लेख किया था —
पत्नी का कर्तव्य है कि घर का पीने का पानी भरे और घर की साफ़-सफाई ... इससे उसके स्वास्थ्य को लाभ पहुँचता है.
साज-सजावट करे और अनुपयोगी वस्तुओं से कलात्मक कृतियों की रचना करे. .... इससे उसकी मानसिक शांति बनी रहती है.
ग़ैर-जरूरी खर्चों में से बचत करके दिखाये ...... इससे उसको भविष्य खुशहाल नज़र आता है.
.................. पत्नी को लगता है कि मैं जन्मजात उपदेशक हूँ. आप ही बतायें ... मैं तो इन ही उपायों से स्वयं को लाभान्वित करता हूँ. माँ ने सिखाये हैं ये सभी गुण.
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पति और पत्नी एक गाडी के दो चक्कों की तरह होते हैं और जब दोनों ही चक्के समान गति से चलें, समान हों, तभी जीवन रूपी गाडी सही तरीके से चल सकती है। अजित जी, इसे मैं बदलाव नहीं कहता। यह तो धरातल पर पहले से है। हां इतना जरूर है कि कोई इसे समझ जाता है, कोई नहीं समझ पाता। पहले पति और पत्नी मिलकर घर का काम करते थे, बीच में जरा सा अंतर जरूर आया था लेकिन अब नई पीढी इस सामंजस्य को बखूबी समझ रही है और घर के भीतर का काम हो या बाहर का काम, दोनों साथ कर रहे हैं।
बहरहाल, अच्छे विषय पर आपने लिखा। बधाई हो।
बेशक शासन की मानसिकता निकल कर सहयोग की भावना का पनपना सुखद है।
वहां तो आवश्यक ही जहां स्त्री नौकरी व्यवसाय में सलग्न हो। लेकिन सामान्य मात्र गृहिणी जब कार्यरत पुरूष से यही अपेक्षा रखे तो, पुरूष का शोषण हो जायेगा। जीवन संतुलन बिगडते देर न लगेगी।
व्यवसायरत दम्पत्तियों में यह सहयोग भरा बदलाव स्वागत योग्य होगा।
जहाँ घुंघट था वहाँ बहुत सारे "काण-कायदे" भी थे। संयुक्त परिवार होने के कारण पति-पत्नी भी अपने से बड़ों के सामने बोल नहीं सकते थे। मैंने देखा है कि जब पति-पत्नी कहीं जाते थे तो पति पत्नी से एक फ़र्लांग आगे चलता था। साथ-साथ पैदल भी नहीं चल सकते थे।
वर्तमान में शिक्षा के कारण खुला पन आया है। नारी घुंघट से बाहर आई है। संयुक्त परिवार का विघटन हुआ । संग में सास,ससुर,जेठ इत्यादि न होने के कारण पति-पत्नी में आपसी सामजस्य और सहयोग की भावना बढी है। दोनो मिलकर साथ काम करते हैं और गृहस्थी चलाते हैं। एक अच्छी शुरुवात है।
मैने देखा है आज भी राजस्थान और हरियाणा के लोग शहरों में नौकरियाँ करते हैं और शहरी वातावरण के हिसाब से रहते हैं। लेकिन गाँव में जाते ही वहाँ के के कायदे से चलना पड़ता। बदलाव आ रहा धीरे-धीरे। आज की शिक्षित युवा पीढी अपनी जिम्मेदारी समझने लगी है।
इसके हानि लाभ दोनो हैं।
एक अच्छी पोस्ट के लिए आपका आभार
अजित जी
आप की बात से बिल्कुल सहमत हु | ये बदलाव आ चूका है कुछ नारी के प्रयास से कुछ खुद पुरुषो की सोच से |
सुज्ञ जी इतनी भयानक बात ना कहिये मै भी ऐसा ही करती हूं और ऐसा करने वाली मै अकेली नहीं हु मेरे आस पास सभी महिलाए यही करती है | उदाहरन देती हूं आज एकल परिवार है जब शाम को पति घर आता है तो उसके पास दो विकल्प होते है या तो वो बच्चे को संभाले ताकि पत्नी रसोई में जा कर खाना बनाये या वो बच्चे को संभाले और पति जा कर खाना बनाये | अब आप बताइये की ये दो काम एक साथ होना संभव नहीं है भले पत्नी घर पर रहती हो और पति काम पर जाता हो | पति बच्चे की अवस्था देख कर अपने लिए काम चुन लेता है जैसे बच्चा बीमार है या ज्यादा रो रहा है तो उसे माँ के पास ही छोड़ना पड़ता है और खाना उसे खुद बनना पड़ता है और बच्चा संत है तो बच्चे को देखना पड़ता है और उस दौरान यदि वो खुद को गिला कर ले तो डाइपर भी बदलना उसकी मज़बूरी है |
main aapse poori tarah sahmat hoon
इस बदलाव का स्वागत है।
यह अच्छी बात है कि पति-पत्नी के मध्य कार्य विभाजन की रेखा अब मिटने लगी है।
बिलकुल सही |आज यः बदलाव आया है युवाओ में चाहे परिस्थितियों के कारण हो या अलग समाज से जुड़ने में या वृहद वैश्विक परिवारों के संसर्ग में रहने से हुआ है पर इसमें एक बात बहुत अच्छी है की आज का युवा इस काम में हाथ बंटाने में सुख अनुभव करता है जैसे एक माँ अनुभव करती है |जिस तरह आपने उस सम्मेलन में हाथ उठाया
मै भी हाथ उठाती हूँ क्योकि मेरे बेटे बहू ने भी आपने बच्चे के लिए सभी कामो का बंटवारा कर लिया है और ये सुखद है आगे के शांतिमय जीवन के लिए |
bilkul sahi ..........isthithi bahut badli hai..di:) aur ye bhi sach hai, ab nari utpeeran ke jagah nar-utpeeran bhi hone laga hai!!!
अजित जी,
ये सार्थक बदलाव है और होना भी चाहिए . कल कि परिस्थितियां ये थी कि पत्नी अगर कामकाजी भी है तब भी सारे काम उसके ही होते थे. (मैं खुद उसका उदाहरण हूँ.) लेकिन आज की पीढ़ी अगर जॉब वाली लड़की को पसंद करते हैं तो उसके साथ सहयोग भी करते हैं. कल तक बच्चे को उठाकर रास्ते में चलने का काम भी पत्नी का ही था किन्तु आज बच्चा पिता की गोद में होता है और माँ पीछे अपने पर्स को संभालती हुई होती है. इस नई सोच का मैं स्वागत करती हूँ.
मुझे मेरे पिता जी नहलाते थे, वह परम्परा तो निभा रहा हूँ।
ये बदलाव समाज को सकारात्मक दिशा में लेजाने वाला बदलाव है | पुरुष अगर अपने बच्चे का डायपर बदलता है तो इसका मतलब है कि उन दोनों के बीच घनिष्ठता बढ़ रही है |यंहा पर पुत्र प्रेम के वशीभूत होकर ही ये कार्य किया जा रहा है | समाज में आ रहे बदलावों पर आपकी पैनी दृष्टी को सलाम |
जब समय बदलेगा तो मानसिकता भी बदलेगी...सहमत हूँ आपसे बदलाव आया है पर अभी और आना बाकी है.
ये बदलाव बहुत ही सुखद संदेश लेकर आ रहे हैं....और अच्छी बात ये है कि सिर्फ कामकाजी पत्नी की ही नहीं...युवावर्ग , नौकरी पर नहीं जाने वाली पत्नियों का भी घर के कामो में बहुत उत्साह से हाथ बटाते हैं क्यूंकि
उन्हें उसमे सुख मिलता है..और बच्चे के लालन-पालन में...उनके growing year का एक हिस्सा बनकर वे ख़ुशी महसूस करते हैं. पत्नी को भी सिर्फ पत्नी ना समझ एक व्यक्ति समझने की शुरुआत हो चुकी है...महानगरों..शहरो में ही सही...पर धीरे-धीर्र हर जगह के युवा इसे अपना लेंगे और महिलाएँ आज से पचास साल पहले की स्थिति से बाहर आ जायेंगी
बिलकुल सहमत हूँ आपसे बदलते परिवेश में हमें बदलना होगा ! बेटे बेटी में कोई फर्क नहीं ! एक अच्छी सामयिक पोस्ट लिखी है आपने शुभकामनायें !
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (10/2/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
हकीकत है, लेकिन यह देख पाने के लिए भी दृष्टि आवश्यक है.
ये बदलाव दोनों ओर जारी है पहले जहाँ महिलाएँ सामान की सूचि बनवा दिया करती थी अब वे खुद बाजार से ले आती हैं ।
बहुत सुखद बदलाव है. अभी और भी स्थितियां बदलेंगी. शुभकामनाएं.
रामराम.
बदलाव आया तो है ...और यदि दोनों सुविधा और परिस्थिति के कारण हो तो बहुत ही सुखद है !
अजित जी
नमस्कार !
आप की बात से बिल्कुल सहमत हु | ये बदलाव आ चूका है
एक अच्छी पोस्ट के लिए आपका आभार
सही बात की आपने ....यह सकारात्मक बदलाव देखने में आ रहा है जो काफी सुखद है .......सहोगात्मक सोच से रिश्ते और बेहतर ही बनते हैं......
बहुत ही सार्थक बदलाव है वह भी पुरुष प्रधान मानसिकता से ग्रस्त भारतीय समाज में.............. सच, जिंदगी की गाड़ी अगर दोनों मिलकर उठाये तो बेहतर होगा ही... सहमत.. .बहुत ही अच्छी पोस्ट.
इस हिसाब से तो मै एक हजार साल पीछे हुं जी, मेरे हाथ की बनी चाय मै खुद नही पीता तो दुसरा केसे पी सकता हे, खाना ज कुवारे थे तो बनाते थे, हमारी बीबी ने एक दिन भी हमारे हाथ के खाने की तारीफ़ तो दुर की बात उसे देखा भी नही, अब किचन किधर हे उस मे रखा समान कहां हे हमे नही मालुम, ओर हमारे बेटे हमारे से भी १०० साल पीछे हे:)
@प्रतुल वशिष्ठ जी
आपकी टिप्पणी हमेशा ही नवीन होती है। पढ़ने में आनन्द भी आता है। पहले माँ अपनी बेटियों को यही सिखाती थी और बेटों को भी बीबी के आगे ना झुकने की सलाह देती थी लेकिन अब परिस्थितियां बदल रही हैं। आप झाडू लगाने में शर्म अनुभव करते हैं तो एक पत्नी जो बहुत पढ़ी-लिखी भी है और पति से बड़े ओहदे पर कार्यरत है, के लिए भी झाडू लगाना शर्म की बात ही होगा ना? बस इसी अन्तर को आज नवीन पीढ़ी मिटा रही है।
@अतुल
सही कह रहे हो, पूर्व में कार्यविभाजन भी बराबरी का ही द्योतक था। लेकिन जब से कार्य विभाजन को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा तभी से यह विवाद उत्पन्न हुआ है।
अजित जी इस बारे मे मेरा अनुभव भी आपसे मिलता जुलता है। कोई भी बदलाव धीरे धीरे ही आता है। मै तो इसे सकारात्मक बदलाव मानती हूँ। बहुत अच्छा आलेख है। बधाई। वैसे आपका बेटा सच मे बेमिसाल है । उस से मिल कर नही लगता कि पहली बार मिले हैं।अच्छे संस्कार देने के लिये तो निश्चित ही माँ बाप बधाई के पात्र हैं।
सही कहा आपने, सकारात्मक परिवर्तन होने में समय तो लगता ही है।
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पुत्र प्राप्ति के उपय।
क्या आप मॉं बनने वाली हैं ?
बिल्कुल सही कहा है आपने ..यह बदलाव आज की युवा पीढ़ी में समान रूप से दिखाई दे रहा है ..हमेशा की तरह सुन्दर लेखन ।
अजित जी , आपकी बात का भरपूर समर्थन, बदलाव एक दो घरो में होने से नहीं हुआ , व्यापक सोच भी बदलने के कगार पर है, आज माये, बेटो को ये नहीं सिखाती, बहू को दबा के रखना, उन्हें ये डर भी नहीं रहा की पत्नी का हो जाने के बाद बेटा उन्हें भूल जायेगा, बल्कि वो दोनों के बीच सामंजस्य की कड़ी बनती है, और आज, बेटे भी पहले से ज्यादा संवेदन शील हो गए है, वो माँ तो माँ दादी के प्रति भी अपने कर्त्तव्य भली भाति समझते है, सयुक्त परिवार की पुनः स्थापना तो नहीं है ये ... अच्छी बात के लिए बधाई
युवा पीढ़ी को इस दृष्टिकोण से देखने का आभार.
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