Thursday, August 12, 2010

मन तो बंदी है आपके व्‍यक्तित्‍व का, उसे कैसे स्‍वतंत्र करोगे? – अजित गुप्‍ता

अभी उदयपुर में रिमझिम का दौर जारी है। मन करता है कि बचपन की तरह ही किसी बरसाती नदी के किनारे जाकर बालू रेत पर पैरों से कूदूं और जब पैर अन्‍दर धसने लगे तो चारों तरफ बिखरी खिलखिलाहट को जीवन भर के लिए समेट लूं। कभी मन करता है कि फतहसागर ( उदयपुर की झील ) की पाल पर जाकर भुट्टे खाये जाए। बस फक्‍कडों की तरह घूमा जाए और मन करा तो जोर-जोर से गाना भी गा लिया जाए। लेकिन क्‍या यह सब करना अब इतना सरल रह गया है? कल नदी में पानी का बहाव देखने गाँव की पुलिया तक चले गए, घर पर जैसे बैठे थे बस वैसे ही उठकर चले गए। फटाफट पानी देखा और वापस गाड़ी में बैठ गए। डर था कि कहीं कोई परिचित ना मिल जाए जो यह कह दे अरे आप?

हम अक्‍सर स्‍वतंत्रता की बात करते हैं, लेकिन हमारा मन ही हमारे व्‍यक्तित्‍व के सामने परतंत्र सा बना रहता है। आपकी हैसियत के अनुसार एक सलीका मन में ओढ़ लेना पड़ता है, बस ऐसे ही सलीके के साथ रहो। न जाने कितनी बार मन को मारते हैं? जब कॉलेज में पढ़ाते थे तब हमेशा छात्रों का डर बना रहता था कि कहीं मिल ना जाएं और फिर मेडम को हमने वहाँ देखा या ऐसे देखा था का शोर व्‍याप्‍त हो जाएगा। मेडम खास से अचानक ही आम हो जाएंगी। अभी तक उनका रौब कायम था छात्रों के बीच लेकिन अब तो वे साधारण है हम सबकी तरह। कई बार छुट्टियां लेकर निकल पड़ते थे दूसरे शहर में, घूमने के लिए। वहाँ कोई नहीं था परिचित लेकिन मन तो था। वो कमबख्‍त आजाद ही नहीं होने देता। वहाँ भी शालीनता को ओढ़े रखने की दुहाई देने लगता। परिधान भी इसी मन ने चुन लिये हैं कि ऐसा पहनो और ऐसा नहीं। रात 11 बजे भी आप लिपटे है साड़ी में, कहीं कोई घण्‍टी बजा दे तो? मन के इन बंधनों को कभी दिल तो कभी दिमाग तोड़ डालना चाहता है लेकिन तोड़ नहीं पाता। बहुत ही सुदृढ़ बंधन है।

एक बार मन को आजाद करने की हमने ठान ही ली और नौकरी से त्‍याग-पत्र दे डाला। लगा कि अब कोई बंधन नहीं, हम भी आजाद पंछी की तरह ही रहेंगे। लेकिन यह क्‍या आपका व्‍यक्तित्‍व तो पहले से भी अधिक हावी हो गया मन पर। अब तो आप समाज के लिए उपयोगी हैं तो समाज के बंधनों को तो मानना ही पडेगा। व्‍यक्तित्‍व में और नजाकत आ गयी और मन बेचारा उस नजाकत और नफासत की भेंट चढ़ गया। कभी मन करता है कि हमारा व्‍यक्तित्‍व हम से कहे कि जा जी ले अपनी जिन्‍दगी। पहले ही स्‍त्री होने के कारण क्‍या बंदिशे कम थी कि अपनी हैसियत की और ओढ़ ली। कभी मीटिंग में बाहर जाते हैं तो शाम पड़े पुरुषों को कुर्ता-पाजामा पहने गर्मी से राहत पाते देखते हैं लेकिन हमारी मुसीबत यह है कि हमें तो सलीके से साडी को ही लपेटे रखना है। लेकिन अब मन विद्रोह करने लगा है, वो कहता है कि मुझे स्‍वतंत्र करो अपने व्‍यक्तित्‍व से। बना लो ऐसा ही व्‍यक्तित्‍व की अरे ये तो ऐसे ही हैं। कह लेने दो लोगों को ही यह भी आम इंसान हैं हम जैसे ही। दफा हो जाने दो इस रौब को। बस एक आम इंसान की तरह जीने दो मेरे मन को भी। मैं भी बरसात में नाच सकूं, खुल कर गा सकूं और सड़क चलते भुट्टे खा सकूं। शायद इतना कठिन भी नहीं है, ऐसा करना? बस मन से इस झूठे दम्‍भ के आवरण को उतार फेंकना है। इस स्‍वतंत्रता दिवस पर शायद मन ऐसे आवरणों को उतारने पर आमादा हो जाए और मैं वास्‍तव में स्‍वतंत्र हो सकूं? अपने आप से, अपने व्‍यक्तित्‍व के बोझ से और खास बने रहने की चाहत से। क्‍या आपको भी ऐसा ही लगता है? आपका मन भी मेरी तरह ही परतंत्रता की बेडियों में जकड़ा है?

37 comments:

  1. पहले ही स्‍त्री होने के कारण क्‍या बंदिशे कम थी कि अपनी हैसियत की और ओढ़ ली। कभी मीटिंग में बाहर जाते हैं तो शाम पड़े पुरुषों को कुर्ता-पाजामा पहने गर्मी से राहत पाते देखते हैं लेकिन हमारी मुसीबत यह है कि हमें तो सलीके से साडी को ही लपेटे रखना है।
    पूरा दर्द सिमट गया है इन पंक्तियों में .. बिल्‍कुल सही लिखा आपने !!

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  2. आपने मनो भावों का बहुत अच्छा वि्श्लेषण किया है। आजाद होना चाहने के बाद भी आदमी आजाद नहीं हो पाता।
    जीवन कृत्रिमता आ जाती है,मन नाचने गाने का है लेकिन नाच गा नहीं सकता, अगर मन की कर ले तो फ़िर पागल कहलाता है।

    लेकिन मन की कर ही लेनी चाहिए-कुछ देर के लिए पागल होना भी लाभ दायक है।

    अच्छी पोस्ट
    आभार

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  3. सही कहा आपने ! क्या करे अगर इंसान सब कुछ मन के ही हिसाब से कर पाता तो फिर बात ही क्या थी, मगर मन मारना भी शायद इंसान के जीवन का एक अहम् पहलू है !

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  4. Kuchh bandhan to aadat ban jaate hain.Wo itne akharte nahee.Lekin jahan hame any log ,aisa karo,aisa na karo kee bandishen lagaye rakhte hain,wah sach bada akharta hai...!

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  5. पहले ही स्‍त्री होने के कारण क्‍या बंदिशे कम थी कि अपनी हैसियत की और ओढ़ ली। ....

    बहुत सटीक लिखा है...चाहे कुछ बात कर भी लें अपने मन की फिर भी बहुत से अनजान बंधन हम खुद ही लगा लेते हैं ....अपनी बात बहुत सहजता से लिखी है ....और या सब पर लागू होती है ..क्यों की हर व्यक्ति ऐसी स्थिति से जूझता रहता है ...

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  6. 'दर्शन' अच्छा है
    काफी बदलाव और स्वतन्त्रता महसूस करता हूँ, जब से नीचे की ये पंक्तियां पढी/सुनी/गुनी हैं -
    "सबसे बडा रोग
    क्या कहेंगें लोग"

    प्रणाम स्वीकार करें

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  7. मनोभावों को खूबसूरती से समेटा है……………बिल्कुल सही कह रही हैं आप्…………सारे बंधनों की जड ये मन ही तो है जिस दिन हमने ये लबादा उतार फ़ेंका उसी दिन से हम स्वतंत्र हैं।

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  8. मैं आपकी तकलीफ को समझ पा रहा हूँ , कल झमाझम वारिश में मैं अपने जर्मन शेफर्ड के साथ पार्क में खूब दौड़ा, भागा, और भीगा ! शायद बहुत लोगों ने नाक भौं सिकोड़ी होगी ! मगर महिलायें शायद ऐसा करने में सहज न हो पायें ! उम्र ५५ साल होने पर भी क्या मन की इच्छाओं पर रोक लग पाती है ...? मगर यह किस्से बाँटें किसे कहें ...?
    बढ़िया विषय दिया आपने लिखने के लिए ! शुभकामनायें

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  9. @ मन के इन बंधनों को कभी दिल तो कभी दिमाग तोड़ डालना चाहता है लेकिन तोड़ नहीं पाता। बहुत ही सुदृढ़ बंधन है...
    यही हमारे सुखद जीवन का आधार भी तो है ...!

    यहाँ बसे प्रवासियों को देखकर तो उनकी स्वतंत्रता पर रश्क होता है ...magar
    बारिश में भीगना , भुट्टे खाना , साड़ी से आजादी ...घर से बाहर ना सही ..घर में तो हमारी मनमानी चलती है ...!

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  10. अजीतजी
    बहुत अच्छी पोस्ट \
    मुझे तो आपकी पोस्ट पढ़कर बहुत सारे गीत याद आ गये |
    दिल तो आखिर दिल है ?

    तोरा मन दर्पण कहलाये ,
    बुरे भले सारे कर्मो को देखे और दिखाए
    तोरा मन .....

    मन रे तू काहे न धीर धरे
    ओ निर्मोही ओ अनजाने किनका मोह करे .......

    और मन की चाहतो को देखकर तो बस -
    काँटों से खींच के ये आंचल
    तोड़ के बंधन बांधे पायल
    आज फिर जीने की तमन्ना है ......

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  11. मन को वश में रखना सामाजिक होने की पहली शर्त है, परन्तु कभी कभी सीमाएं तोड़ने में अपना सुख है.. आशा है आप एक दिन स्वयं के लिए अवश्य निर्धारित करेंगी. वाकई अच्छा लगा पढ़कर. ऐसा दर्द लगभग हर किसी के मन में कहीं न कहीं बसता है. "स्वर्णिमा"

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  12. सामाजिक प्राणी हैं तो सामाजिक बंधन है मन पर, कब कौन पूर्ण स्वतंत्र हो पायेगा..कोई ज्यादा, कोई कम-कहीं न कहीं तो मर्यादाओं, परिवेष, संस्कारों के बंधन हैं ही.


    अच्छा विचारणीय आलेख...


    मगर

    इस स्‍वतंत्रता दिवस पर शायद मन ऐसे आवरणों को उतारने पर आमादा हो जाए और मैं वास्‍तव में स्‍वतंत्र हो सकूं?

    ये वाला स्वतंत्रता दिवस ही क्यूँ??? ये तो जिस कारण मनाया जाने वाला है वो खुद अपनी तथा पर रो रहा है...उलट दिशा जाने को आमादा!!

    आप कोई और दिन चुन लिजिये, प्लीज!! :)

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  13. मनो भावों को बेहतरीन ढंग से उकेरा है आपने .परन्तु मुझे लगता है कुछ बंधन तो हम खुद ही बाँध लेते हैं स्वतंत्रता और परतंत्रता कई बार हमारे अपने मन का भाव ही होता है ..
    हाँ कुछ बंधन तो जरुरी हैं और उसी में जीवन का रस भी है .वह हर जगह होते हैं देश हो या विदेश .
    बहुत अच्छी पोस्ट.

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  14. बहुत सटीक विषय पर आलेख लिखा आपने. मन पर बंधन...सटीक. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  15. बहुत सटीक लिखा है आपने, बढिया लगा आपको पढना ।

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  16. कोई लौटा दे मेरे बिते हुए दिन... वो बचपन, वो सावन, वो कागज़ की कश्ती....

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  17. हम अक्‍सर स्‍वतंत्रता की बात करते हैं, लेकिन हमारा मन ही हमारे व्‍यक्तित्‍व के सामने परतंत्र सा बना रहता है। आपकी हैसियत के अनुसार एक सलीका मन में ओढ़ लेना पड़ता है, बस ऐसे ही सलीके के साथ रहो। न जाने कितनी बार मन को मारते हैं?
    --

    आजादी-डे
    यानि 15 अगस्त का दिन बहुत अच्छा रहैगा!

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  18. बंधन स्वयं के बनाए हुए हैं. और लम्बे समय तक ओढ़े हुए बंधन आदत बन जाते हैं.

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  19. मै अपने आप को हमेशा आजाद समझता हुं, लेकिन कहा तक.....बहुत से बंधन है जो हमे अच्छॆ भी लगते है, ओर फ़िर हम हमेशा मन कि नही कर सकते, दुसरो का ख्याल भी रखना पडता है... लेकिन फ़िर भी काफ़ी हद तक हम अपने मन की बात कर सकते है सभ्य बन कर भी.
    धन्यवाद

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  20. बहुत से अर्थ हैं स्वतंत्रता के ...सबके अपने अपने.

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  21. आपने अच्छी पोस्ट लिखी है
    सच तो यह है कि चाहकर भी हम लोग कुछ वैसा नहीं कर पाते जो हमें सुख दे सकें
    आपकी पोस्ट से मैं सोच में पड़ गया हूं

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  22. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  23. एक बच्चा, एक पंछी और उससे सम्बद्ध उन्मुक्तता सदैव ही मन में रहती है। यदि उसे अभिव्यक्ति का आधार न मिले तो बड़ा कचोटती है। किसी को बाँध कर या समेटकर रखना समाज के लिये हानिकारक है।

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  24. आप सभी के विचारों से मेरा ज्ञान और बढा है। मैं मानती हूँ कि जो समाज के बंधन है वे तो हमें मान्‍य होने ही चाहिए लेकिन जो हमने अपने सम्‍मान और रौब के लिए बना लिए हैं, उन्‍हें ह‍म कम कर सकें तो स्‍वयं का जीवन आसान हो पाएगा। आप सभी का हार्दिक धन्‍यवाद।

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  25. ये व्यक्तित्व की मजबूरी को बखूबी उकेरा है आपने, हाँ हम कभी स्वतन्त्र नहीं है. सब कुछ लादा हुआ ही तो है - पर एक पहचान ने ही आपके व्यक्तित्व को कुछ खास बनाया है. समाज में एक स्थान दिया है. ये स्वतंत्रता वर्ष में कभी शहर से दूर जाकर जीने का मजा उठाया कीजिये. जहाँ अपने शहर की बंदिशें न हों. कुछ दिन अपनी मर्जी से उन्मुक्त वातावरण में जीकर मन की तल्खी को दूर किया जा सकता है.

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  26. आपका आलेख बहुत अच्छा लगा ! सचमुच मन कभी-कभी अपनी ही निर्धारित की हुई सीमाओं में घुटन का अनुभव करने लगता है ! जहाँ तक अन्य लोगों के कहने सुनने का खतरा है उसका निदान तो है कि कहीं बिलकुल अनजान स्थान पर नितांत अपरिचित अजनबी लोगों के शहर में कुछ समय बिता आइये और मनमाने ढंग से घूम फिर आइये कोई आपकी ओर देखेगा तक नहीं ! लेकिन जो नियम और कायदे क़ानून आपके मन ने आपके लिये निर्धारित किये हैं उनसे बच कर कहाँ जायेंगी ? अच्छी और विचारणीय पोस्ट !

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  27. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  28. खानाबदोश पर आने के लिए तहे-दिल से शुक्रिया...मन को धोने का डि
    टरजेंट कविता का भी मेरा एक ब्लाग है आपका वहाँ भी स्वागत है.. नाम राशि एक है तो संवेदना भी समान ही होगी क्या फर्क पडता है पुरुष या महिला होने से..?

    सादर
    डा.अजीत
    www.monkvibes.blogspot.com
    www.shesh-fir.blogspotcom(kavita)

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  29. डा.साहब वैसे हमारा किसी डा.को सलाह देना तो अजीब लगेगा ना ? लेकिन फिर भी हम इंडियन हैं न सलाह तो मुफ्त ही दिया करते हैं ..:)

    तो मेरी मानिए...इस हैसियत की पेहरन को उतार ही फेंकिये....वर्ना वो क्या कहते हैं चित्रगुप्त (यमराज) ने अगर पूछा की अपनी मर्ज़ी से जिंदगी जी है या नहीं और अगर आप ने ना में जवाब दिया तो वो आपको इस मृत्यु लोक में फिर से भटकने के लिए फैंक देगा. फिर आप अमरीका जैसे स्वर्ग को ढूँढती रहेंगी...(हा.हा.हा.)
    मेरी बाते बुरी लग रही हों तो क्षमा चाहूंगी.
    आपकी पोस्ट आँखे खोल देती है उन सब की जो अपनी केंचुल में छीपे रहते हैं..उन्हें हटा कर एक बार वास्तविक मजा ले जिंदगी का तो पाएंगे सच में की जिंदी हसीन भी है.
    शुक्रिया इस पोस्ट के लिए.बहुत सुंदर.

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  30. स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

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  31. Mero man anant kahan sukh payo
    jaise udi jahaj ko panchi puni jahan par aayo...
    Bahut achhi vicharniya post.
    स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

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  32. ... behatreen ....svatantrataa divas kee badhaai va shubhakaamanaayen !!!

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  33. पहले तो आजादी की ढेर सारी बधाई...देर से इसलिए की कल नेट काम नहीं कर रहा था।..दूसरी इसलिए की तमाम दुश्वारियों के बाबजूद देश आगे बढ़ने के लिए संघर्षशील है। चारो तरफ माहौल पर नजर डालिए। संघर्ष करते लोग मिलेंगे मस्त भी।

    दिल्ली जैसं महानगर में कम से कम ये तो है कि आप अपनी मनमर्जी कहीं कर लेते हैं पता है कि कोई नहीं मिलेगा.....सौ में से 5 बामुश्किल.....एक काम कीजिए....अपने दायरे से बाहर निकल कर दिल्ली आ जाइए....(पैसे नहीं भेजूंगा हीहीहीहीही) जमकर भींगिए.....पार्क में टहलिए..बस अपने मन से खुल कर आनंद लेने का विचार बनाईए...अपने कुछ दोस्त हैं। वो सभी बेचारे बड़े अधिकारी बन गए हैं इंटरनेशल कंपनियों में या सरकार में.....पिछले दिनों बारिश में इनमें से कुछ खड़े थे बाजार हमारे साथ..तभी बारिश शुरु हो गई..सभी तेजी से पास के एक छोटे से रेस्त्रां की तरफ दौड़ पड़े हमें घसीट कर...पर नजरें बारिश पर टिकी थीं..सब एकदुसरे को देख रहे थे पर समझ में नहीं आ रहा था कि पहल कौन करे...बस हमने आव देखा न ताव..एक का हाथ पकड़ा और लिया घसीट...फिर क्या था....समझ ही सकती हैं आप....क्या बच्चे उधम मचाएंगे..तो आप भी शुरु तो कीजिए..फिर देखिए क्या मस्त अंदाज में जीना होता है .चाहे कुछ पल के लिए ही...

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  34. सतीश सक्सेना जी के ब्लॉग पर अभी कमेन्ट छोड़ा है आपके इस विषय के सन्दर्भ में .. मन एक घोडा है और इन्द्रियां इसकी गुलाम और हमारे भाव इस घोड़े की आँखें हैं , अब इस घोड़े को ज्यादा ढील देंगे तो अंजाम आपके सामने होगा ....

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  35. अरे Ma'am.. देखिये जरा कि प्रज्ञा, कनुप्रिया और श्रुतिप्रिया तीनों के नाम में ही प्र वर्ण समान है.. :) कनुप्रिया को जन्म दिन की शुभकामनाएं...

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