Saturday, February 13, 2010

अरे आप घर पर ही हैं क्‍या?

हैलो, फोन उठाते ही सामने से आवाज आयी, अरे आप घर पर ही हैं क्‍या? आश्‍चर्य से भरा स्‍वर सुनाई देता है। हाँ, घर पर नहीं होऊँगी तो कहाँ जाऊँगी? मैंने प्रश्‍न कर लिया। अरे आप रोज ही तो बाहर जाती हैं, कभी दिल्‍ली तो कभी मुम्‍बई। बेचारे डॉक्‍टर साहब को अकेला छोड़कर। बड़े ही उलाहने भरे स्‍वर में सामने से आवाज आई। कोई महिला यदि सामाजिक कार्य कर रही है तो ऐसी बातें उसको रोज ही सुनने को मिल जाती हैं। कम से कम मैं तो सुन-सुनकर आदी हो चुकी हूँ। जब मैं नौकरी में थी और प्रायोगिक परीक्षा लेने बाहर जाती थी तब ये स्‍वर सुनाई नहीं देते थे। तब तो मैं कमा रही होती थी। लेकिन सामाजिक कार्य करते समय यह बात किसी को भी नहीं पचती कि आप फोकट में बाहर घूमे। यह भी पूछ लिया जाता है कि आपकी संस्‍था आपको किराया वगैरह देती है या नहीं?

हमारे मित्र शर्माजी एक दिन घर आ गए। मैंने पूछा कि भाभीजी नहीं आयी? वे बोले कि अरे वो तो एक महिने से पीहर गयी है, हमेशा ही ग‍र्मी की छुट्टिया पीहर में बिताती है।

तो आप क्‍या करते हैं? अकेले। खाने की समस्‍या उत्‍पन्‍न हो जाती होगी। अरे कुछ नहीं, खुद बना लेता हूँ या फिर होटल में खा लेता हूँ।

लेकिन शर्माजी की पत्‍नी से कोई नहीं पूछता कि आप इतने दिन शर्माजी को छोड़कर कैसे चले जाती हो?

मेरे एक-दो दिन के बाहर जाने पर भी आपत्ति की जाती है। कई लोग तो मुझे घर की महिलाओं से दूर ही रखना चाहते हैं, वे कहते हैं कि आप हमारी पत्नियों को भी बिगाड़ देंगी।

अब आप ही बताइए कि सामाजिक या साहित्यिक कार्य के लिए बाहर जाना क्‍या इतना बड़ा अपराध है कि आप पर तमगा ही चिपका दिया जाता है कि यह तो अपने पति को अकेला छोड़कर अक्‍सर बाहर चले जाती हैं। मुझे कभी तो इतना गुस्‍सा आता है कि आपको इतनी ही चिन्‍ता हो रही है तो इन्‍हें अपने घर ले जाकर खाना खिला दिया करो। लेकिन उन्‍हें तो बस मुझे ताने मारने हैं क्‍योंकि मैं फोकट का काम कर रही हूँ।

इस समाज में किसी का भी फोकट में काम करना सहन नहीं होता। यह स्थित केवल मेरी ही हो ऐसी बात नहीं है, पुरुषों की भी है। सेवानिवृत्ति के बाद यदि कोई पुरुष सामाजिक‍ कार्य करने की इच्‍छा जाहिर करे तो घर वालों के माथे पर शिकन आ जाती है। उन्‍हें लगता है इसे अभी हमारे लिए और पैसे कमाने चाहिए और यदि पैसे कमाने की शक्ति नहीं है तब घर का काम करना चाहिए। जैसे सुबह थैला पकड़कर सब्जि लाना, पोते-पोतियों को स्‍कूल छोड़ आना आदि-आदि।

अ‍ब आप ही बताइए कि कोई ऐसी उम्र होती है जब व्‍यक्ति अपने मन की करना चाहे और लोग उसे करने दें? वो तो अच्‍छा है कि मेरे पति और मुझमें अच्‍छी समझ है इस बात को लेकर, नहीं तो झगड़ा होते तो एक पल नहीं लगे। बस तब याद आता है कि इस देश में शिवाजी पैदा होने चाहिए लेकिन अपने पड़ोसी के।

20 comments:

  1. अच्छा लगा सुनकर कि आप और आपके पती के बीच अच्छी समझ है ।

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  2. अच्छा लगा पढकर , साथ ही खुशी हुयी ये सुनकर कि आप दोंनो में अच्छी समझ है ।

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  3. यदि सभी शिवाजी को पड़ोसी के घर में पैदा होने की दुआ करेंगे तो...?

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  4. अजित जी,
    मुझे भी एक बात समझ नहीं आती...कोई आदमी नौकरी कर रहा है...साठ साल की उम्र आते ही उसे रिटायर होने के बाद बेकार क्यों करार दे दिया जाता है...बाहर भी और घर पर भी...जबकि उस आदमी के पास बरसों के अनुभव का खजाना है...लेकिन नहीं उस खजाने का लाभ किसी न किसी रूप में उठाने की कोशिश नहीं की जाएगी...इसके बदले में वो शख्स आपसे सम्मान और प्यार के दो बोल चाहता है...लेकिन नहीं मजाल है कि कोई उसकी बात को
    अहमियत दे...उलटे तिरस्कार की घटनाएं बढ़ती जा रही है...न सरकार का इस ओर ध्यान है और न ही सामाजिक स्तर पर कोई बड़ी मुहिम देश में दिखती है...इसलिए संध्या में बुज़ुर्ग दिशाहीन, उदास, एकाकी जीवन जीने को मजबूर है...देखे कहां से शुरू होती है इसके लिए पहल...

    जय हिंद...

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  5. खुशदीप जी
    देश में ऐसी अनेक सामाजिक संस्‍थाएं हैं जहाँ पर सेवानिवृत्त लोग अपनी सेवाएं दे सकते हैं और देशहित के कुछ कर सकते हैं। लेकिन परिवार और समाज दोनों ही ऐसे कार्यों को हतोत्‍साहित करते हैं। मेरे आलेख का अर्थ भी यही है। मैंने 12 वर्ष पूर्व स्‍वैच्छिक सेवानिवृति लेकर साहित्‍य और समाज के लिए कार्य चुना। मिथिलेश जी आपको यह जानकर सुखद लगेगा कि मेरे प्रत्‍येक कार्य से मेरे पति बेहद खुश होते हैं। जबकि प्रारम्‍भ में ऐसा नहीं था। धीरे-धीरे उन्‍हें लगा कि इसका कार्य समाजहित में है और अब वे मेरे सबसे बड़े प्रशंसक हैं।

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  6. जो अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए लाखों कमाने में व्‍यस्‍त हैं .. आज उन्‍हीं की प्रशंसा होती है .. बाकी हर कार्य बेकार की श्रेणी में गिने जाते हैं .. यही कारण है कि आज कला और साहित्‍य तक का कोई मूल्‍य नहीं .. जबतक आप किसी खास ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाते .. सीढियों पर रहने तक का कोई मूल्‍य नहीं .. बेकार की सोंच है आज के लोगों की .. आप उन बातों की चिंता न करें .. अपना कार्य करती रहें .. इस पोस्‍ट को पढकर खुशी हुई .. समाज मे आपके जैसा हर कोई सोंचे तो इसकी ये हालत ही क्‍यूं रहे !!

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  7. अच्छा लिखा है आपने ... ज़रूरत है समाज को परिपक्व होने की ... ऐसे में आपसी समझ बहुत ज़रूरी है ....

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  8. isi ka naam duniya hai jo kisi bhi tarah jeene na de..........magar aap lagi rahiye.

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  9. "मुझे कभी तो इतना गुस्‍सा आता है कि आपको इतनी ही चिन्‍ता हो रही है तो इन्‍हें अपने घर ले जाकर खाना खिला दिया करो।"
    अरे अरे कदापि ऐसा मत करियेगा -आप पुरुषों को नही जानती तब .हा हा

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  10. ापकी जैसी स्थिति मेरी भी है मगर मेरे पति मुझे उत्साहित करते हैं इस लिये दिक्कत नही होती। बहुत अच्छा लगा आपका आलेख धन्यवाद ।

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  11. aapki baat sahi hai..man ka likhti hai achha likhti hai.

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  12. आओ किस्मत वाली हैं, पड़ोसी तक आपकी चिन्ता में डूबा रहता है ।
    मेरी पत्नी बेचारी को मोहल्ले में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने के लिये, मुझे दिन में दो बार चिल्ला चिल्ला कर डाँटना पड़ता है !

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  13. कई लोग तो मुझे घर की महिलाओं से दूर ही रखना चाहते हैं, वे कहते हैं कि आप हमारी पत्नियों को भी बिगाड़ देंगी।

    अजित जी, बड़ा अच्छा लगा आपका बिन्दास लेखन और कर्म। हमनाम हैं मगर आदरणीय भी।
    शब्दों का सफर की सहयात्री बनी रहें। आभार

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  14. aapke likhe ek ek shabd se sahmat hoon....
    mere dil ki baat kaf di aapne..bas isse jyada kuchh nahi kahungi

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  15. सेवा निवृत लोगों का समाज में बड़ा योगदान हो सकता है यदि सब आपकी तरह काम करें तो।
    आखिर पैसे की ज़रुरत तो एक लिमिट तक ही होती है।
    फिर यदि मियां बीबी राज़ी , तो भाड़ में जाये काजी।
    आपका प्रयास बहुत उपयोगी है , जारी रखें।

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  16. सही कहा आपने...आप जो करते हैं उसका आंकलन पडोसी ज्यादा करते हैं....

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  17. अच्छा लगा पढकर , साथ ही खुशी हुयी ये सुनकर कि आप दोंनो में अच्छी समझ है ।

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