आज जो हो रहा है, वही कल भी हो रहा था, हर युग
में हो रहा था। हम पढ़ते आए हैं कि राक्षस बच्चों को खा जाते थे, आज भी बच्चों को
खाया ही जा रहा है। मनुष्य और दानवों का युद्ध सदैव से ही चला आ रहा है। समस्याएं
गिनाने से समस्याओं का अन्त नहीं होता अपितु समाधान निकालने से अन्त होता है। जंगल
में राक्षसों का आतंक मचा था, ऋषि वशिष्ठ राजा दशरथ से राम को राक्षसों के वध के
लिये मांगकर ले जाते हैं और राम राक्षसों का वध करते हैं। ऐसे ही पुराणों में सभी
समस्याओं का समाधान है लेकिन हम केवल समस्याओं से भयाक्रान्त होते हैं, समस्या
समाधान की ओर नहीं बढ़ते है। वशिष्ठ चाहते तो राजा दशरथ से कहते कि सेना लेकर
राक्षसों का वध कर दें लेकिन उन्होंने अपने शिष्य
राम से ही राक्षसों का अन्त कराने का निर्णय लिया। बहुत सारी समस्याओं का
अन्त सामाजिक होता है, हम समाज को जागृत करें, समाधान होने लगता है। जब समाज सो जाता
है तब समस्याएं विकराल रूप धारण करती हैं। हम मनोरंजन के नाम पर जगे हुए हैं लेकिन
अपनी सुरक्षा को नाम पर सोये हुएं हैं।
अमृत लाल नागर का प्रसिद्ध उपन्यास है – मानस का
हंस। तुलसीदास जी की कथा पर आधारित है। तुलसीदास जी सरयू किनारे राम-कथा करते हैं
लेकिन एक दिन पता लगता है कि आज रामकथा नहीं होगी! क्यों नहीं होगी? राम जन्मोत्सव
के दिन औरंगजेब का फरमान निकल गया है कि आज रामकथा नहीं हो सकती। राम जन्मभूमि का
विवाद तब भी अस्तित्व में था। तुलसीदास जी दुखी होते हैं लेकिन रामकथा करने का
निर्णय करते हैं। गिरफ्तार होते हैं और छूटते भी हैं लेकिन वे समझ जाते हैं कि इस
सोये समाज को जागृत करने के लिये कुछ करना होगा। वे रामचरित मानस की रचना करते हैं
और गली-मौहल्लों में रामकथा का मंचन करने की प्रेरणा देते हैं। वे जानते हैं कि
बिना समाज की जागृति के परिवर्तन नहीं हो सकता।
सोशल मीडिया समाज को जागृत करने का काम कर रहा है
लेकिन इसके पास कोई सबल नेतृत्व नहीं है, यहाँ हमारी मुर्गी को कोई भी दाना डाल
देता है और मुर्गी दाना चुगने लगती है। उसे पता ही नहीं कि क्या करना है और क्या
नहीं करना है। लेकिन समाधान क्या? सन्त-महात्मा और हिन्दू संगठनों को दायित्व लेना
ही होगा। डॉक्टर हेडगेवार जी ने सामाजिक संगठन बनाया था, यदि वे चाहते तो राजनैतिक
संगठन बना सकते थे, वे कहते थे कि जब तक हिन्दू समाज संगठित और शिक्षित नहीं होगा,
देश की समस्याएं दूर नहीं हो सकती हैं। उन्होंने सबसे पहले सामाजिक समरसता पर ध्यान
दिया, वे जानते थे कि भारतीय समाज टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त है और यहाँ ऊँच-नीच
की भावना प्रबल है। इसलिये पहले इस भावना को दूर करना होगा। लेकिन आजादी के बाद
देखते-देखते 70 साल बीत गये, ऊँच-नीच की
भावना कम होने के स्थान पर बढ़ती चले गयी। वर्तमान में तो यह भावना पराकाष्ठा
पर है। किसी भी समाज के महापुरुष ने सामाजिक समरसता के लिये गम्भीर प्रयास नहीं
किये। हमारे यहाँ चार वर्ण माने गये हैं – ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीय, शूद्र। यदि
ये चारों एक स्थान पर बैठे हों तो चारों ही खुद को श्रेष्ठ और दूसरे को निकृष्ठ
सिद्ध करने में लग जाएंगे। यहाँ तक भी साधु-सन्त भी यही करते हैं। ऐसे में हिन्दू
समाज की रक्षा कैसे होगी? हिन्दू तो कोई दिखायी पड़ता ही नहीं! हम अभी तक दलितों
को ब्राह्मण क्यों नहीं बना पाए? हमने अभी तक इस वर्ण व्यवस्था का एकीकरण क्यों नहीं
किया? साधु-सन्त लखपति बन गये और जनता अनाथ हो गयी। सरकारें तो सेकुलर ही होती हैं
लेकिन समाज तो हिन्दू-मुसलमान होते ही हैं ना! तब
हमने अपने समाज को दृढ़ क्योंकर नहीं किया। मुस्लिम समाज अपनी रक्षा के
लिये संकल्पित है लेकिन हम बेपरवाह। आज राक्षसों का ताण्डव चारों ओर दिखायी दे रहा
है लेकिन हमारा समाज निष्क्रिय सा बैठा है, वह जागता ही नहीं। कभी वह शतरंज में
व्यस्त रहता है तो कभी तीतर-बटेर लड़ाने में, कभी कोठों में और आज क्रिकेट और
फिल्मों में। इस समाज को जगाना ही होगा नहीं तो यहूदियों जैसा इतिहास हमारा भी
होगा। हम भी मुठ्ठीभर बचकर इजरायल की तरह एक छोटे से भारत की स्थापना किसी कोने
में कर लेंगे। हम अभी तो बस यह कर सकते है कि हमें दाना कौन डाल रहा है, हम किसका
दाना चुग रहे हैं, इसका ध्यान रखें। हमें कोई भी दाना डाल देता है और बस मुर्गी की
तरह दाना चुगने लगते हैं। हम कूंकड़ू कूं करने वाली मुर्गी ना बने।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-07-2019) को "....दूषित परिवेश" (चर्चा अंक- 3401) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'