कल मैंने एक आलेख लिखा था - पाई-पाई बचाते हैं और रत्ती-रत्ती मन को मारते हैं । हम भारतीयों का पैसे के प्रति ऐसा ही अनुराग है। लेकिन इसके मूल में हमारी हीन भावना है। दुनिया जब विज्ञान के माध्यम से नयी दुनिया में प्रवेश कर रही थी, तब हम पुरातन में ही उलझे थे। किसी भी परिवार का बच्चा अपने माता-पिता पर विश्वास नहीं करता, वह उन्हें पुरातन पंथी ही मानता है और हमेशा असंतुष्ट रहता है। परिवार में जो भी आधुनिक दिखता है, सभी बच्चों का झुकाव उसकी तरफ रहता है। अंग्रेज हमारे यहाँ आये, उनकी आधुनिकता और खुले विचारों के कारण युवा पीढ़ी उनकी कायल हो गयी। उन्होंने हमें गुलाम बनाया लेकिन हम आजतक भी उन्हें अपना आदर्श मानते हैं। हम कभी भी अंग्रेजों से घृणा नहीं कर पाए। उनकी भाषा, उनकी वेशभूषा, उनका खान-पान, उनका नाचना-गाना सभी कुछ हमारे लिये आकर्षण के केन्द्र रहे। वे जन्मदिन पर केक काटते हैं, हमारे हर बच्चे ने कहा कि मुझे केक ही काटना है। हवन करना, मन्दिर जाना, दान देना सभी कुछ पुरातनपंथी सोच हो गये और हमारे अन्दर हीनभावना को जन्म देने लगे। क्लब जाना फैशन हो गया, जो नहीं जा पाया वे हीन भावना का शिकार होने लगे। अंग्रेजी का ज्ञान विद्वता की निशानी बन गया और संस्कृत व हिन्दी या कोई भी स्थानीय भाषा पुरातन पंथी हो गयी। पति और पत्नी में आपस में हीन भावना हो गयी, बाप और बेटे में हीन भावना हो गयी, सास और बहु में हीन भावना हो गयी, मित्र मित्र में हीन भावना हो गयी, गुरु शिष्य में हीन भावना हो गयी। इन सारी हीन भावना को समाप्त करने के लिये पैसा ढाल बन गया। लोगों को लगा कि जिसके पास पैसा है, वह समाज में सम्मान पा लेता है, नहीं तो उसे उच्च शिक्षा, उच्च ज्ञान से गुजरना होता है।
पैसे से सम्मान खरीदने की होड़ लग गयी और कैसे भी पैसा आए, लोग इस बात में जुट गये। अपने गुणों को बढ़ाने का प्रयास नहीं हुआ बस प्रयास हुआ तो पैसा एकत्र करने का। लोग सरल मार्ग ढूंढने लगे पैसा एकत्र करने का, सट्टा, शेयर, ब्याज आदि ऐसे ही मार्ग थे। लोग काल्पनिक दुनिया में जीने लगे। पैसे से स्वाभिमान खरीदने की सोचने लगे, लेकिन पैसे से स्वाभिमान नहीं आता, स्वाभिमान तो आता है, अपने पर विश्वास कायम रखने में। हम जैसे भी हैं, हमारे पास मुठ्ठी भर ही ज्ञान है लेकिन इस मुठ्ठी भर ज्ञान से ही हम दुनिया में सुख पूर्वक रह लेंगे, यह सोच बिसरा दी। सूर्य के पास अपार प्रकाश है, लेकिन मैं एक अंजुली भर ही प्रकाश अपने पास संचित कर पाती हूँ, बस सभी को इतना ही मिलता है। मैं मुठ्ठी भर से खुश हूँ लेकिन दूसरा मुठ्ठी भर से खुश ना होकर दुखी है, बस यहीं हीन भावना घर करने लगती है और हम कृत्रिम तरीकों को अपनाने लगते हैं। हम भारतीय संतुष्ट हो ही नहीं पाते क्योंकि हमने खुशी के प्रतिमान खुद को देखकर नहीं बनाए अपितु दूसरों को देखकर बनाए हैं। जैसे ही सामने वाला हँसता हुआ दिखायी देता है, हमें लगता है कि यह खुश क्यों हैं? हम हँसना छोड़ देते हैं, खुश रहना छोड़ देते हैं, मानसिक अवसाद में घिर जाते हैं और असंतुष्टि का भाव इस कदर हावी हो जाता है कि किसी परिस्थिति में भी संतुष्ट नहीं हो पाते। बस सबकुछ बदलना चाहते हैं। हमारे देश के पास क्या नहीं है? हमारे युवा में ज्ञान भरा हुआ है, बुद्धिमत्ता की कमी नहीं है लेकिन हम हमेशा विदेश को बड़ा मानता है, उनके हर त्योहार को अपनाना चाहता है, उनकी भाषा, उनकी वेशभूषा, उनका खानपान, उनका आचरण, सबकुछ की नकल करना चाहते हैं, लेकिन जो अपना नहीं है, वह खुशी नहीं दे पाता। भारत में राजनैतिक अस्थिरता का भी यही कारण है, हीनभावना से ग्रसित समाज अच्छा होने पर सबसे ज्यादा विचलित होता है। भारतीयता उसे फूटी आँख नहीं सुहाती, उसे तो लगता है कि विदेशी ही अच्छे हैं, वे ही हमें नयेपन की ओर ले जाएंगे। ये भारतीय तो हमें शुद्ध सात्विक बना देंगे। भारत का गौरव लौट आएगा का अर्थ है कि हम पुराने युग जैसे हो जाएंगे। हमें मांसाहार, खुला यौनाचार, घर-परिवार को छोड़कर दुनिया नापने का शौक, भारतीय होने पर सम्भव नहीं होगा। बस हमें भ्रष्टाचार की भाषा समझ आने लगती है, दबंगई की भाषा समझ आने लगती है, पैसे की भाषा समझ आने लगती है। हम जनता को समझाने में सफल हो जाते हैं कि कौवा चला हंस की चाल, याने की हैं तो भारतीय और होड़ कर रहे हैं विदेश की। लोग कहने लगते हैं कि विकास-विकास सब फिजूल की बात हैं, हम भला उनका मुकाबला कर सकते हैं? हमें तो केवल पैसा चाहिये जिससे हम भी हमारे बच्चों को विदेश भेज सकें। हमारा बच्चा भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ सके, हमारा बच्चा भी जन्मदिन पर केक काट सके, हमारा बच्चा भी क्लब में जा सके। हम खुद अंग्रेजों से बड़े बन सकते हैं, यह सोच हमारे अन्दर घुसती ही नहीं, बस उन जैसा बनने की ही होड़ में हम लगे रहते हैं। इसलिये कभी अटलजी फैल हो जाते हैं और अब मोदी को फैल करने पर हम सब उतारू हैं। क्योंकि हमारे सामने विदेशी विकल्प खड़ा है, ज्ञान शून्य होने पर भी विदेशी विकल्प हमारे मन में बसा है। जिसके भी ऊपर विदेश का ठप्पा लग जाता है वह हमारे लिये आराध्य हो जाता है। गाँधी, नेहरू विदेश का ठप्पा लगाकर हमारे बीच आए, बस फिर क्या था, वे हमारे आराध्य बन गये। इसलिये आज हम हीन भावना से ग्रसित होकर केवल संचय की ओर झुक रहे हैं। आगामी चुनाव की राह आसान नहीं है, क्योंकि हम हीन भावना से भरे हैं।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-01-2019) को "अजब गजब मान्यताएंँ" (चर्चा अंक-3222) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
उत्तरायणी-लोहड़ी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्रीजी
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 23 जनवरी 2019 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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