Friday, September 28, 2018

बिना मालिक के भी कोई जीवन है?

हाय रे हाय, कल मुझसे मेरा मालिक छिन गया! कितना अच्छा तो मालिक था, अब मैं बिना मालिक के कैसे गुजरा करूंगी? मेरी आदत मालिक के पैरों में लौटने की हो गयी थी, उसकी जंजीर से बंधे रहने की आदत हो गयी थी। मैं किताब हाथ में लेती तो मालिक से पूछना होता, यदि कलम हाथ में लेती तो मालिक से पूछना होता, हाय अब किससे पूछूगी? मेरी तो आदत ही नहीं रही खुद के निर्णय लेने की, मैं तो पूछे बिना काम कर ही नहीं सकती। घर के मालिक के अलावा भी समाज के सारे ही मर्द मालिक बने हुए थे तो मैं निश्चिंत थी, मुझे कुछ नहीं सोचना होता था, सब बेचारे मालिक ही कर देते थे। मैं सामाजिक क्षेत्र में काम करने गयी, वहाँ चारों तरफ मालिक ही मालिक थे, मैंने एक दिन कह दिया कि यह काम मैं कर लूँ? बस फिर क्या था मालिक को बुरा लग गया, अरे तुम अबला नारी भला कैसे कर पाओगी, नहीं रहने दो, तुम आराम करो, कितने अच्छे थे ना वे सारे। मुझे तो कल बहुत ताज्जुब  हुआ कि मालिकाना हक एक जज साहब ने हटाया क्योंकि मुझे तो एक बार एक जज ने ही बताया था कि तुम महिलाएं हमारे अधीन रहोगी तो ही सुखी रहोगी और मैं सुखी हो गयी थी। लेकिन कल के निर्णय से घर क्या और बाहर क्या, सारे मर्दनुमा मालिक बहुत दुखी है। दुखी होना भी लाजिमी है, हजारों साल की गुलाम उनसे भला छीन ली गयी, भला यह भी कोई बात हुई! मोदी तेरे राज्य में मर्दों पर अत्याचार! नहीं सहेगा हिन्दुस्थान।
हाय हाय, मालिक क्या गया, मानो संस्कृति पर ही कुठाराघात हो गया। भारतीय संस्कृति का इतना अपमान! पति परमेश्वर की संस्कृति पर कुठाराघात! तीन तलाक तक तो ठीक था, यह तो दूसरे तरह के मर्दों पर आघात था लेकिन हमारे ऊपर आघात, सहन नहीं किया जा सकता। उसकी गुलाम मुक्त लेकिन मेरी गुलाम मेरे पास रहनी ही चाहिये। जज साहेब क्या कर रहे हो, ऐसा अनर्थ तो किसी युग में नहीं हुआ, मालिक और गुलाम का भाव तो रहना ही चाहिये। सुना है कि आज जज साहब एक और क्रांतिकारी फैसला सुनाने वाले हैं, जिससे इस गुलाम को पवित्र घोषित कर सकते हैं! तब क्या होगा? गुलाम ही पवित्र घोषित हो गये तो फिर गुलामी का आधार क्या होगा? हे भगवान बचा, हमारी संस्कृति को बचा। मेरे मालिक को मुझसे मत छीन, मेरी आदत ही नहीं कि मैं एक कदम भी उसके बिना धर सकूँ। हे भगवान मेरी रक्षा करना, मुझे मालिकविहीन मत कर। कितनी तो अच्छी होती है गुलामी। मैं कितनी खुश थी कि मेरे भी कोई मालिक है। मैं जूते खाकर भी खुश थी, गाली तो मुझे रसगुल्ला लगती थी, अब मत छीन रे मेरा रसगुल्ला।
हाय बेचारी एक छोटी सी बालिका थी, उसने अपने भाई के कच्छे का नाड़ा बांध दिया, बस जिन्दगी भर उसपर पहरा लगा दिया, अब यह पहरा टूट जाएगा, हाय बेचारी बच्चियां बिना पहरे के कैसे रहेंगी? न जाने कितने पिता उनका परीक्षण करने के बाद ही विवाह की स्वीकृति देते थे, अब वह परीक्षण भी बन्द हो सकता है, कितनी गलत बात हो गयी। चारदीवारी टूट गयी, नजरे दूर तक जा सकेंगी, यह तो बुरा हुआ। महिला की नजरे खराब हो  जाएंगी, पति की खराब हो रही थी और महिला की नजरे बची हुई थी, अब कितना अन्याय हो गया, हम पर। बहुत खराब हुआ, मेरा मालिक मेरा देवता था। अब मैं किसकी पूजा करूंगी! हाय-हाय धरती फट क्यूं नहीं गयी! हे  भगवान उठा ले मुझको, बिना मालिक के भी कोई जीवन है?
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7 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29-09-2018) को "पावन हो परिवेश" (चर्चा अंक-3109) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 28/09/2018 की बुलेटिन, शहीद ऐ आज़म की १११ वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. सही कहा अजित दी। हम औरतों को गुलामी की आदत हो गई हैं।

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  4. शास्त्रीजी, शिवम् मिश्रा जी आभार।

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  5. इस कटाक्ष में दर्द भी तो है जो छलक पड़ने को आतुर है.
    बेहतरीन कला में बेहतरीन लेख
    रंगसाज़

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