आँखों के सामने होती है कई चीजें लेकिन कभी नजर
नहीं पड़ती तो कभी दिखायी नहीं देती! कल ऐसा ही हुआ, शाम को आदतन घूमने निकले। मौसम
खतरनाक हो रहा था, सारा
आकाश गहरे-काले बादलों से अटा पड़ा था। बादलों का आकर्षण ही हमें घूमने पर मजबूर
कर रहा था इसलिये निगाहें आकाश की ओर ही थीं। काले बादलों के समन्दर के नीचे
पहाड़ियां चमक रही थीं और एक पहाड़ी पर बना नीमज माता का मन्दिर भी। कभी ध्यान ही नहीं
गया और ना कभी दिखायी दिया कि यहाँ से नीमज माता का मन्दिर भी दिखायी देता है!
दूसरे पहाड़ को देखा, वहाँ
भी बन रहे निर्माण दिखायी दिये। जब आसमान घनघोर रूप से काला हो तब उसके नीचे की
सफेदी दिखायी दे जाती है। काले बादल कह रहे थे कि लौट जाओ, हम कहर बरपाने
वाले हैं लेकिन उनके अद्भुत सौंदर्य को देखने का मोह छूट नहीं रहा था और जब एकाध बूंद हमारे ऊपर आकर चेतावनी दे गयी तब हम वापस
लौट ही गए। लेकिन नाम मात्र की बारिश आकर रह गयी और वे काले-बदरा न जाने कहाँ जाकर
अपना बोझ हल्का कर पाएं होंगे! लेकिन हमें तो सीख दे ही गये कि जब काले बादल आकाश
में छाये हों और कुछ सूरज का प्रकाश पहाड़ों पर गिर रहा हो तब पहाड़ों पर बने
मन्दिर चमक उठते हैं और दूर से दिखायी देने लगते हैं।
एक बार मैं पाटन (गुजरात) के इतिहास पर लिखे
उपन्यास को पढ़ रही थी, वहाँ
के राजा के मंत्री एक सपना देखते हैं कि गिरनार की पहाड़ियों पर मन्दिर की श्रंखला
हो तो कितनी सुन्दर लगेंगी! यह कल्पना एक मंत्री की नहीं थी अपितु भारत के हर राजा
और मंत्री की यही कल्पना रही है कि पहाड़ों पर दूर से चमकते मन्दिर हों और उन पर
लहराता ध्वज भारतीयता का प्रतीक बनकर दूर से दिखायी देता रहे। न जाने कितने पहाड़ों
पर कितने मन्दिर बने हैं, यह भारत
की ही विशेषता है। शायद किसी भी अन्य देश में ऐसी परम्परा नहीं है। सौंदर्य को
प्रकृति के साथ कैसे एकाकार करें यह बात हमारे शिल्पकार बहुत अच्छी तरह से जानते थे।
समुद्र के किनारे आकाश-दीप बनाने की परम्परा भी शायद यहीं से आयी होगी! जैसे ही
आकाश-दीप दिखायी देता है, नाविक
चिल्ला उठते हैं कि किनारा आ रहा है, कोई नगर आ रहा है, ऐसे ही जब पहाड़ पर कोई ध्वजा
लहराती दिखायी दे जाती है तब हम जान लेते हैं कि यह भारत है। कैसा भी काला अंधेरा
हो लेकिन हमारे मन्दिर राहगीरों का पथ-प्रदर्शन करेंगे ही। हमारे सम्बल के लिये
कोई सहारा होगा ही। जिन पहाड़ों पर वीराना पसरा हो, वहाँ भी मन्दिर और ध्वजा मिल ही
जाती है, मतलब
हम दूसरों को रास्ता दिखाने का काम हर हाल में करते ही हैं। शायद यही हमारी थाती
है। कोई मार्ग ना भटके और भटक भी जाए तो
उसे ठिकाना मिल जाए, आसरा
मिल जाए, हमारे
भारत में यही परम्परा रही है। हजारों सालों से यही आकर्षण विदेशियों को भारत की ओर
खींच लाता है, कुछ
भारत को समझने चले आते हैं तो कुछ लूटने चले आते हैं। आज भी यह सिलसिला जारी है, समझने का और
लूटने का भी। शायद बिजली की कृत्रिम रोशनी के कारण हमें पहाड़ों पर बने हमारे आकाश-दीप
दिखायी नहीं देते, शायद
किसी दिन ऐसे ही काले बादल जब घिरेंगे तब हमें ये आकाश-दीप ही रास्ता दिखाएंगे। फिर
हमें समझ आने लगेगा कि कौन समझने चला आया है और कौन लूटने चला आया है। अभी तो सब
एकाकार हो रहे हैं, हम लुटेरों
को पहचान ही नहीं पा रहे हैं, हम उदारता का परिचय दे रहे हैं। लेकिन ये
आकाश-दीप हमें मार्ग जरूर दिखाएंगे इसलिये इन आकाश-दीपों को सम्भाल कर रखिये।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (20-07-2018) को "दिशाहीन राजनीति" (चर्चा अंक-3038) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आज़ादी के पहले क्रांतिवीर की जन्मतिथि और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteशास्त्री जी और सेंगर जी आभार।
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