सोमनाथ का इतिहास
पढ़ रही थी, सेनापति दौड़ रहा है, पड़ोसी राजा से सहायता लेने को तरस रहा है लेकिन सभी की शर्ते हैं।
आखिर गजनी आता है और सोमनाथ को लूटकर चले जाता है। कोई "अपना" सहायता के
लिये नहीं आता, सब बारी-बारी से लुटते हैं लेकिन किसी की कोई सहायता
नहीं करता! इतना द्वेष हम भारतीयों में कहाँ से समाया है! हम एक दूसरे को नष्ट कर
देना चाहते हैं, फिर इसके लिये हमें दूसरों की गुलामी ही क्यों
ना करनी पड़े! हमारा इतिहास रामायण काल में हमें ले जाता है, मंथरा और कैकेयी का द्वेष दिखायी पड़ता है, महाभारत काल में तो सारा राष्ट्र ही दो भागों में विभक्त हो जाता है, चाणक्य काल में छोटे-छोटे राजा एक-दूसरे की सहायता करने को तैयार
नहीं और सिक्न्दर आकर विजयी बनकर चले जाता है। चाणक्य कोशिश करते हैं और कुछ वर्षों
तक एकता रहती है फिर वही ढाक के तीन पात! कल पोरस सीरियल देख रही थी, फारसी राजा कहता है कि तुम भारतीयों में वतन परस्ती नहीं है केवल
अपनों से मोहब्बत करते हो, अपनों के कारण वतन को दाव पर लगा देते हो। मुझे
लगता है कि मोहब्बत नहीं द्वेष कहना चाहिये था, हमारे अन्दर द्वेष
भरा है और यह शायद हमारे खून में ही सम्म्लित है। द्वेष की आग हमारे अन्दर धूं-धूं
जल रही है, किसी को भी कुछ प्राप्त हो जाए, हम सहन नहीं कर पाते। किसी अपने की या परिचित को सत्ता मिल जाये, यह तो कदापि नहीं। हम गुलामी में खुश रहते हैं। हम बार-बार गुलाम
बनते हैं लेकिन हम सीखते कुछ नहीं हैं। हम टुकड़े-टुकड़े होते जा रहे हैं लेकिन
बिखरना बन्द नहीं करते। हम अपने छोटे से लाभ के लिये किसी को भी भगवान मान लेते
हैं, फिर अपनों को ही मारने निकल पड़ते हैं।
जंगल के जीवन पर
आधारित फिल्म देख लीजिये, सभी अपना शिकार ढूंढते मिल जाएंगे। कल देखी थी
ऐसी ही एक फिल्म, शेर शिकार के लिये निकला है, सामने बड़े सींग वाले जानवर थे, पार नहीं पड़ी। भूख
लगी थी तो छोटे शिकार के लिये प्रस्थान किया और सदा के शिकार हिरण को दबोच लिया।
हिरण में भी देखा गया कि कब कोई अपने झुण्ड से अलग हो और अकेले पाकर दबोच लिया
जाए। मानवों में भी यही प्रकृति का कानून लागू है, शिकारी
ताक में बैठे हैं कि कब कोई झुण्ड में अकेला हो और उसे दबोच लिया जाए। ऐसे ही नहीं
बन गये अपनी-अपनी सम्प्रदाय के सैकड़ों देश और हम अपने प्राचीन देश को भी बचा नहीं
पा रहे हैं। किस को समझाना? यहाँ तो सारे ही द्वेष की आग में जल रहे हैं, आज से नहीं हजारों साल से जल रहे हैं। द्वेष की आग समाप्त होती ही
नहीं, हमारा सबसे बड़ा हथियार ही यह द्वेष बन गया है।
हम एक-दूसरे को कुचल देना चाहते हैं, गरीब होने पर
सम्पन्न को कुचल देना चाहते हैं और सम्पन्न होने पर गरीब को कुचल देना चाहते हैं।
हम ना अमीर बनने पर द्वेष मुक्त होते हैं और ना ही गरीब रहने पर। हमारा पोर-पोर
द्वेष से भरा है। हमारे देश में न जाने कितने महात्मा आये, सभी ने राग-द्वेष को अपने मन से निकालने की बात कही लेकिन जितने
महात्मा हुए, उतना ही राग-द्वेष हम में बढ़ता चला गया। एक-एक
महात्मा के साथ सम्प्रदाय जुड़ता चला गया और फिर अपने-अपने राग-द्वेष जुड़ते गये।
दो महात्माओं ने एक ही बात कही लेकिन शिष्य अलग-अलग बन गये और फिर द्वेष ने जन्म
ले लिया। वे पूरक नहीं बने अपितु विद्वेष के कारण बन गये। जबकि दुनिया में ऐसा
नहीं हुआ, ना ज्यादा आए और ना ही ज्यादा ने अपना-अपना
सम्प्रदाय अलग किया। वे शिकारी की भूमिका में रहे ना कि शिकार की। हम हमेशा शिकार
ही बने रहे या अधिक से अधिक खुद के रक्षक बस। कैसे ठण्डे छींटे मारे जाएं, जो हमारे द्वेष की आग को समाप्त कर दे। हमें पता ही नहीं चलता कि
हमारे द्वेष का कारण क्या है, हम किस पर वार कर
रहे हैं? एक गरीब व्यक्ति प्रधानमंत्री बनता है, उसके ही खिलाफ हम गरीबों में द्वेष भरते हैं और फिर लोकतंत्र को बन्दी
बनाकर राजशाही को स्थापित कर देते हैं। सारे गरीब खुश हो जाते हैं। फिर कोई द्वेष
नहीं, चारों तरफ अमन-चैन स्थापित हो जाता है। मन हमेशा
पूछता है कि कब होंगे हम इस द्वेष से मुक्त लेकिन देश का चलन देखकर लगता है कि शायद
कभी नहीं।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन एक प्रत्याशी, एक सीट, एक बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteआभार सेंगर जी
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