बचपन की कुछ बाते
हमारे अन्दर नींव के पत्थर की तरह जम जाती हैं, वे ही हमारे सारे व्यक्तित्व का
ताना-बाना बुनती रहती हैं। जब हम बेहद छोटे थे तब हमारे मन्दिर में जब भी भगवान के
कलश होते तो माला पहनने के लिये बोली लगती, मन्दिर की छोटी-बड़ी जरूरतों को पूरा
करने के लिये धन की आवश्यकता होती थी और इस माध्यम से धन एकत्र हो जाता था। उस समय
11 और 21 रूपए भी बड़ी रकम हो जाती थी लेकिन हमारे लिये तो यह भी दूर की कौड़ी हुआ
करती थी। बोली लगती और कभी 11 में तो कभी 21 में किसी बच्चे को अवसर मिलता की वह
माला पहने। माला पहनने के बाद उस बच्चे को सारी महिलाएं मन्दिर की स्कूल जैसी
घण्टी बजाकर और गीत गाकर घर तक छोड़ती थी। हमें ऐसा सौभाग्य कभी नहीं मिला, हम
कल्पना भी नहीं करते थे, क्योंकि हमारे पिताजी के तो आदर्श ही अलग थे। जैसे ही
हमारे गाँव से, परिवार की किसी कन्या के विवाह का समाचार आता, पिताजी 5000 रू. का
चेक भेज देते थे। उस समय उनका वेतन 500 रू. से अधिक नहीं रहा होगा लेकिन वे हमेशा
5000 रू. भेजते रहे। इस बात से परिवार में उनका सम्मान नहीं होता था अपितु विरोध
होता था। इन दोनों ही घटनाओं का हमारे जीवन में प्रभाव पड़ना लाजिमी था। जैसे ही
हम समर्थ हुए और किसी ने हमें भी चन्दा देने के योग्य समझा तो हम भी बचपन में जा
पहुंचे और तत्काल चेक काट दिया। जितना हमारा सामर्थ्य होता हम चन्दा जरूर देते और
परिवार के लिये भी जितना करना होता जरूर करते। लेकिन जैसे-जैसे समय व्यतीत होता
गया हमें लगने लगा कि समाज और धार्मिक
संस्थाओं को चन्दा उगाहने की बीमारी लग गयी है। जरूरत से कहीं अधिक और असीमित पैसा
एकत्र किया जाने लगा है। जो जितना चन्दा दे, उसका उतना ही सम्मान हो, बाकि किसी भी
श्रेष्ठ कार्य करने वाले का सम्मान तो असम्भव हो गया।
हमारे समाज जीवन में
पैसे का मोह बढ़ने लगा, आवश्यकता से अधिक पैसा एकत्र करने की होड़ लग गयी, क्योंकि
हमें समाज के मंचों पर बैठने की लत लग गयी थी। पैसा एकत्र करो, कैसा भी पैसा हो,
बस एकत्र करो और धार्मिक से लेकर सामाजिक मंचों पर कब्जा कर लो। किसी भी संस्था ने
श्रेष्ठ व्यक्ति को कभी सम्मानित नहीं किया, बस पैसा ही प्रमुख हो गया। मैंने बचपन
में देखा था कि मन्दिर में 21 रू. देने पर
गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकलता था और परिवार में 5000 रू. देने पर भी आलोचना सुनने
को मिलती थी। समाज का दृष्टिकोण बदलने लगा और सारा ध्यान येन-केन-प्रकारेण धन
संग्रह पर जाकर अटक गया। हर व्यक्ति समाज के सम्मुख दानवीर बनना चाहता है, समाज भी
नहीं पूछता कि यह धन कैसे एकत्र किया? तो भ्रष्टाचार का प्रथम गुरु यह चन्दा है।
चन्दे से प्राप्त यह सम्मान है। मैं हमेशा सामाजिक संस्थाओं में अनावश्यक पैसा
एकत्र करने का विरोध करती रही, जब लगा कि यह एकत्रीकरण मिथ्या है तो हाथ रोक लिये।
हमने हाथ रोके तो हमारे हाथ भी रोक दिये गये। आज समाज में व्यक्तित्व की चर्चा
नहीं है ना ही कृतित्व की चर्चा है, बस पैसे की चर्चा है। मेरे परिवार का खर्चा
हजारों में चल जाता है लेकिन मुझे जब गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकलने की याद आती है
तब मैं लाखों कमाने की सोचने लगती हूँ और लाखों तो ऐसे ही नहीं आते! लोग करोड़ों
रूपये चन्दे में देकर सम्मान खऱीद रहे हैं, समाज भी उन्हें ही सम्मानित कर रहा है,
तो फिर भ्रष्टाचार से पैसा कमाने की होड़ तो लगेगी ही ना! आज संस्थाओं में होड़
लगी है – भव्यता की। मन्दिरों में होड़ लगी है – विशालता की और व्यक्तियों में
होड़ लगी है – महानता की। ऐसे लगने लगा है कि ये संस्थाएं समाज को उन्नत नहीं कर
रही हैं अपितु पैसा कमाने के मोह में उलझा रही हैं, पुण्य कमाने का मोह हम पर हावी
कर दिया गया है, जैसे बासी रोटी को कुत्तों के सामने डालने को हम पुण्य समझने लगे
हैं वैसे ही संस्थाओं में अनावश्यक चन्दा देकर हम समाज को लालची बना रहे हैं। यही
कारण है कि समाज को सत्य दिखायी नहीं दे रहा है कि कैसे हम तलवार की नोक पर आखिरी
सांसे गिन रहे हैं लेकिन टन-टन बजती घण्टी वाला जुलूस हमें ललचा रहा है। हम खुद को
पैसे के भ्रष्टाचार में डुबो रहे हैं और देश को कमजोर कर रहे हैं। जिस भी देश का
समाज लालची होगा, वह देश कभी भी गुलाम होने में समर्थ होगा। सामर्थ्यवान व्यक्ति
आज घर में बैठे हैं और पैसे वाले समाज का आईना बन बैठे हैं, तब भला देश कैसे और कब
तक स्वतंत्र रह पाएगा?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-04-2017) को "उड़ता गर्द-गुबार" (चर्चा अंक-2929) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्रीजी
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