इस प्रकृति की अनुपम देन को जितना देखो उतना ही अपनी ओर
आकर्षित करती है लेकिन दिन तेजी से ढल रहा था और अब जंगल कह रहे थे कि हमें एकांत
चाहिये। किसी शहंशाह की तरह जंगल ने भी कहा एकान्त! और हम वापस चले आये, उस
खूबसूरती को आँखों में संजोये, फिर आने की उम्मीद के साथ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-08-2016) को "धरा ने अपना रूप सँवारा" (चर्चा अंक-2427) पर भी होगी।
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हरियाली तीज और नाग पञ्चमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अभार।
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