हर रोज ऐसी सुबह हो - अठखेलियां करता झील का किनारा
हो, पगडण्डी पर गुजरते हुए हम हो, पक्षियों का कलरव हो, सूरज मंद-मंद मुस्कराता
हुआ पहाड़ों के मध्य से हमें देख रहा हो, हवा के झोंकों के साथ पक रही सरसों की
गंध हो, कहीं दूर से रम्भाती हुयी गाय की आवाज आ रही हो, झुण्ड बनाकर तोते अमरूद
के बगीचे में मानो हारमोनियम का स्वर तेज कर रहे हों, कोई युगल हाथ में हाथ डाले
प्रकृति के नजदीक जाने का प्रयास कर रहा हो - कल्पना के बिम्ब थमने का नाम ना ले
ऐसी कौन सी जगह हो सकती है? आलेख को पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें -
http://sahityakar.com/wordpress/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%87-%E0%A4%B6%E0%A4%B9%E0%A4%B0-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82/
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (14-03-2015) को "माँ पूर्णागिरि का दरबार सजने लगा है" (चर्चा अंक - 1917) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्रीजी।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteसुंदर रचना।
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