यात्रा करना हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। यात्राओं के कितने संस्मरण हमारे मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं। न जाने कितने प्रश्न भी खड़े हो जाते हैं। अभी 30 जुलाई को दिल्ली से वाराणसी जाना था। उसी दिन खुशदीपजी की एक पोस्ट आयी थी और मैंने अधिकारपूर्वक उन्हें लिख दिया था कि मैं आज दिल्ली में हूँ। तत्काल ही उनका फोन आ गया और यह निश्चित रहा कि शाम को ट्रेन पर ही मिलते हैं। मुझे संकोच भी हो रहा था कि केवल ब्लाग की पहचान के कारण उन्हें नई दिल्ली स्टेशन तक बुलाना, कितना जायज है और उन्हें आने में कठिनाई तो नहीं होगी। लेकिन वे और शहनवाज दोनो ही आए। मेरी ट्रेन में लगभग एक घण्टे का समय था तो हमने पास ही एक रेस्ट्रा में बैठकर बातचीत की। बातचीत तो ज्यादा नहीं हो पायी क्योंकि खुशदीपजी तो खातिरदारी में ही लगे रहे। खैर हम आधा घण्टे पूर्व गाड़ी में आकर बैठ गए। अभी अपनी बर्थ पर बैठने की कोशिश ही कर रहे थे कि धमाक से एक आवाज हुई। हम तीनों ही चौंके, कि क्या हुआ? हमने आवाज की तरफ पलटकर देखा। साइड लोअर बर्थ के पास एक विदेशी महिला खड़ी थी, जिसने लगभग चार इंच की हील वाली चप्पल पहन रखी थी। मानो वह युधिष्ठिर की तरह धरती से ऊपर चलना चाह रही हो। उसने अपने पैर को जो हील वाली चप्पल से घिरा था, जोर से धम से पटका। हम समझ गए कि यह धमक देशी नहीं विदेशी ही है। अब उसके हाथ में मोबाइल था और वह पूरी मेघ गर्जना के साथ फोन पर किसी पर बिजली गिरा रही थी। उसके साथ एक वृद्ध व्यक्ति भी थे और बाद में आता जाता एक किशोर वय का बालक भी दिखायी दिया। उसे पूरे हिन्दुस्थानी तर्ज पर चिल्लाते देख शहनवाज ने कहा कि आपका सफर कैसा रहेंगा?
वह शायद अपने एजेण्ट पर चिल्ला रही थी, कि उसने ढंग की बर्थ नहीं दिलायी और इस कारण उसके बेटे को भी साथ-साथ बर्थ नहीं मिली। लेकिन उसका प्रकोप शान्त नहीं हुआ। एक बार तो मन किया कि उसकी फोटो ले जी जाए, लेकिन फिर डर भी लगा कि कहीं मेरे ही ना चिपट जाए? हमारे साथ ही दो चाइनीज लड़किया भी थी, वे भी अपनी भाषा में बोलकर आनन्द ले रही थी। मेरे आसपास और कोई नहीं था, एक महिला कुछ देर से आयी लेकिन वह भी बातों में रुचि प्रदर्शित नहीं कर रही थी। सुबह जाकर पता लगा कि वह अपनी छोटी सी नातिन को छोड़कर आयी है इसलिए अनमनी सी थी। इसलिए मैं प्रतिक्रिया के आनन्द से वंचित थी।
अक्सर बात होती रहती है अमेरिका की, दूसरे दिन ही वाराणसी में एक मित्र के यहाँ जाना था। वहाँ उनकी एक रिश्तेदार जो दुबई में रहती हैं, से मुलाकात हो गयी। बातों ही बातों में पता चला कि दुबई में भी अमेरिका की तरह ही ना बच्चे रोते हैं और ना ही कुत्ते भौंकते हैं। यदि बच्चे रोते हैं तो समझो हिन्दुस्थानी है। हिन्दुस्थान में भी देखा है कि हिन्दी भाषी बेल्ट ही ज्यादा मुखर और प्रखर दिखायी देती है। मैं उस समय ट्रेन में सोच रही थी कि अमूमन विदेशी यात्री शान्त होते हैं। वे अक्सर अपनी नींद पूरी करने में ही यकीन रखते हैं। लेकिन वह महिला अपने गुस्से पर काबू ही नहीं पा रही थी। दो-एक घण्टे बाद रात्रि-भोज का आदेश लेने वेटर आया तो उसके सहयात्री बुजुर्ग व्यक्ति ने जो शायद उसका पति ही था ने वेटर से हिन्दी में बात की। तब उस महिला ने भी कुछ शब्द हिन्दी में बोले। मैंने अपनी चुप्पी पर राहत की साँस ली। यदि अन्य कोई सहयात्री होता तो मैं अवश्य ही हिन्दी में कुछ न कुछ टिप्पणी अवश्य करती। और फिर? रात्रि को जब सोने का अवसर आया तब भी उस महिला ने अपनी ऊपर वाली बर्थ का उपयोग नहीं किया और दुख-सुख के साथ बड़बड़ाती हुई एक छोटी सी साइड लोअर बर्थ पर ही दोनों ने अपना आसरा बनाया। मैने लाइट बन्द करनी चाही तो उसकी गुर्राहट फिर उभरी- नो नो। मैंने अपना पर्दा खींचा और सोने में ही भलाई समझी।
लेकिन मुझे इस तथ्य से ज्ञान प्राप्ति अवश्य हो गयी थी कि आम तौर पर शान्त रहने वाले ये विदेशी हिन्दी भाषी होने के कारण ही शायद चमक-धमक रहे हैं। इतना तेवर नहीं तो आया कहाँ से? वाराणसी पहुंचने तक उसके तेवर वैसे ही बने रहे। शाहनवाज भाई बस ऐसा ही कटा मेरा सफर। खुशदीपजी ने भी मेरी पिछली पोस्ट में पूछा था कि उस विदेशी महिला का क्या हाल रहा तो मैंने सोचा यह यात्रा वृतान्त भी लिख ही दो।
बडे मजेदार होते हैं कुछ वाकये। बस देखने की आंखें चाहिये।
ReplyDeleteहिन्दी में शायद रोष अभिव्यक्ति की आज़ादी होती है।:)
ReplyDeleteमानव स्वभाव अबुझ पहेली होते है। कुछ सुलझ जाते है और कुछ खुद में ही उलझ जाते है।
सहज रसप्रद,(शिक्षाप्रद भी) यात्रा वृतांत!!
रेल के सफ़र के मजे ही मजे हैं। खास कर कम दूरी की पैसेन्जर की यात्रा और लम्बी दुरी की स्लीपर की। ज्ञानरंजन के साथ-साथ कहानियों के चरित्र एवं प्लाट मिल जाते हैं।
ReplyDeleteबढिया यात्रा संस्मरण रहा।
सफर का अपना अलग ही आनन्द होता है!
ReplyDeleteअगर सहयात्री अच्चा मिल जाए तो सफर बहुत मजे में कटता है। अन्यथा वैसा ही होता है जैसा कि आपने झेला है!
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यात्रा संस्मरण को शेयर करने के लिए आभार!
रेल का सफ़र जीवन के सफ़र जैसा ही तो है , हर बार नए सहयात्री , नए -नए अनुभव !
ReplyDeleteअजित जी,
ReplyDeleteआप जैसी सरस्वती-पुत्री से मिलना मेरे लिए सौभाग्य की बात था...आपकी दी हुई पुस्तक के शीर्षक- बौर आए, बौराऊं नहीं- को मैंने जीवन का सूत्र-वाक्य बना लिया है...शाहनवाज़ को भी आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई...जहां तक उस महिला की बात है तो उसके लिए ये अजीब था कि एक ही परिवार के लोगों को ट्रेन में अलग-अलग और दूर कैसे सीट दी जा सकती हैं...और शायद उनके साथ किसी सदस्य को मेडिकल समस्या भी थी, तभी उस महिला का पारा कंट्रोल नहीं हो रहा था...अब हर कोई तो हम भारतीयों जैसा होता नहीं कि जिस हाल में राखे राम, उसी में खुश रहिए....
जय हिंद...
खुशदीपजी, उसके पुत्र की कोई मेडीकल समस्या थी और शायद डॉक्टर से भी वो असंतुष्ट थी। लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि जब एक बर्थ खाली ही छोड़नी थी तब अपने पुत्र को वहीं बुला लेती। आप लोगों का प्रेम मैंने अपने आँचल में बांध लिया है।
ReplyDeleteसरल एवं सहज शब्दों में बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteखूबसूरती प्रस्तुति
ReplyDeleteबड़ी रोचक यात्रा रही आपकी तो....
ReplyDeleteमैडम इतना गुस्सा ना होतीं तो शायद कुछ और पता चलता उनके बारे में....
दो-दो ब्लोगर से मिल लीं आप तो...अच्छा लगा..आपके भी अनुभव हमारी तरह खुशनुमा ही रहे.
majedar anubhav raha lekin kashtaprad yatra bhi kah leejiye. jab man maar kar rah jana pade. vaise saphar men har baar kuchh na kuchh mil hi jata hai sochane ke liye.
ReplyDeleteखूबसूरती प्रस्तुति
ReplyDeleteविदेशियों को यहाँ की आपा धापी का तजुर्बा नहीं होता । बेचारे बौखला जाते हैं ।
ReplyDeleteबड़ी इवेंटफुल रही यात्रा ।
ब्लाग जगत आभासी दुनिया नहीं है- यह तो तय हो ही गया :)
ReplyDeleteरेल यात्रा में संस्मरण सहेजने को तैयार रहना चाहिये।
ReplyDeleteहर सफ़र मजेदार रहता है,
ReplyDeleteप्रत्येक सफ़र में एक मजेदार घटना अवश्य हो ही जाती है।
बढिया संस्मरण !!
ReplyDeleteएक से एक किस्से होते हैं रेल यात्राओं में, और हमारे लोग ही बाहर जाकर हिन्दी बोलना अपमान समझने लगते हैं।
ReplyDeleteलेकिन मुझे इस तथ्य से ज्ञान प्राप्ति अवश्य हो गयी थी कि आम तौर पर शान्त रहने वाले ये विदेशी हिन्दी भाषी होने के कारण ही शायद चमक-धमक रहे हैं। इतना तेवर नहीं तो आया कहाँ से?
ReplyDeleteबिल्कुल सही श्रोत पता लगाया आपने. रेल यात्राओं के सहयात्रियों के अनुभव के भी अपने रोमांच हैं.
रामराम
रोचक संस्मरण। इसे पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteरोचक ....बड़ा जीवंत वर्णन किया ........ वैसे अपनी चुप्पी तो आमतौर पर राहत ही देती है रेल का सफ़र हो या जीवन का. सफ़र..
ReplyDeleteरेल के सफ़र का रोचक वर्णन..ब्लॉगर मित्रों से मिलना सफ़र को और खुशनुमा बना देता है...
ReplyDeleteखूबसूरती प्रस्तुति
ReplyDeleteगुप्ता जी भारतीय जैसे सार्वजनिक स्थानों पर अंग्रेजी झाड कर अपने को दिखाते है , वैसी ही सोंच से प्रभावित होकर वह बिदेशी महिला भी हिंदी बोल कर यह दिखाना चाहती होगी की मुझे हिंदी भी आती है ! वैसे मजा आया ! जिंदगी एक सफ़र ही तो है ! जिंदगी के बीते लम्हों को बहुत कम लोग ही दूसरो के बीच सच्चाई से रखते है !
ReplyDeleteऐसा भी हो सकता है कि उन तीनों को ही ऊपर की बर्थ से समस्या हो और इस प्रकार एक तो अलग-अलग जगह होना और फिर बर्थ होते हुए भी उसका उपयोग न हो पाने का गुस्सा होगा। हम भारतीय तो शायद पडोसी/टीटीई से अनुनय-विनय करके बर्थ बदलवाने की सोचते मगर पराये देश में उन लोगों के दिमाग़ में शायद यह बात आयी ही न हो। [बस एक अनुमान]
ReplyDeleteसुक्र है की वो महिला अपने में ही उलझी थी कई बार तो लोग साथ वाले यात्री से ही छोटी मोटी बात पर उलझ जाते है |
ReplyDeleteमैं तो उसे देखते ही परेशान हो गया था और बाद में काफी देर तक सोचता रहा कि आपका सफ़र कैसा कटा होगा? जैसा सोच रहा था वही निकला, मतलब.... उसका मिजाज़ बाद में वैसा ही बना रहा.
ReplyDeleteआपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा, बहुत दिनों से तबियत नासाज़ होने के कारण घर से निकलना ही नहीं हो पाया था, ऑफिस से छुट्टियाँ लेकर घर पर ही आराम कर रहा था, इसलिए जब घर से निकल कर आप से मिलना हुआ तो और भी अधिक आनंद का अनुभव हुआ...
ReplyDeleteअनुराग जी, यह सच है कि हम भारतीय तो बर्थ बदलने में माहिर हैं और उनकी शायद आदत नहीं है। मैंने भी ऐसा ही सोचा था लेकिन उनके पास एक लोअर बर्थ थी और अपर बर्थ उन्होंने काम में नहीं ली। तो बेटे के अपने पास अपर बर्थ में सुला ही सकते थे। वैसे आजकल अपर बर्थ पर कोई नहीं जाना चाहता, युवा भी नहीं। इसलिए बुजुर्गों को कठिनाई का सामना करना ही पड़ता है।
ReplyDeleteभाई शहनवाज, मुझे भी तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। मैं कोकाकोला पीती नहीं हूँ लेकिन तुम उस कम्पनी में हो और खुशदीपजी इतने प्यार से लाए थे तो मैंने प्रेम को ही महत्व दिया। तुम्हारी खुशमिजाजी मेरे मन को छू गयी है। इसलिए अधिकार पूर्वक तुम का ही सम्बोधन कर रही हूँ।
ReplyDeleteहाँ हर रेलयात्रा एक अलग ही अनुभव देती है....
ReplyDeleteआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा मंच
ये हिंदी का कमाल ही है कि नया-नया बोलने वाला 'दबंगई' दिखाने लगता ही है..
ReplyDelete'टिपिकल बिहारी' या 'बांगरू' बोलने लगेगा तो सर पर ही चढ़ जायेगा.
बहुत रोचक बढ़िया संस्मरण
ReplyDeleteथोड़े agressive होते हैं ये ! हिन्दुस्तानियों को अपने से inferior समझते हैं , शायद इसीलिए इतने कांफिडेंस से ये शोर मचाते हैं , की इन गरीबों को क्या फरक पड़ेगा भला ...
ReplyDeleteकभी-कभी कहाँ का रोष कहाँ निकल जाता है, हो सकता है कि उस विदेशी महिला के साथ भी ऐसा ही कुछ रहा हो ।
ReplyDeleteकभी-कभी कहाँ का रोष कहाँ निकल जाता है, हो सकता है कि उस विदेशी महिला के साथ भी ऐसा ही कुछ रहा हो ।
ReplyDeleteरेल से यात्रा करना बहुत अच्छा लगता है.वैसे यदि आपकी जगह मैं होता तो लाईट तो बंद करता ही और यदि वो नहीं करने देती तो शायद मुझे नींद ही नहीं आती चाहे कितनी ही लंबी यात्रा हो,बडी मुश्किल होती है.
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अजित जी,
ReplyDeleteरेल के सफ़र का रोचक वर्णन..ब्लॉगर मित्रों से मिलना सफ़र को और खुशनुमा बना देता है.ब्लॉगर मित्रों से मिलना सफ़र को और खुशनुमा बना देता है.