Tuesday, June 14, 2011

दम्‍भ की दीवार - अजित गुप्‍ता


कई विद्वानों से मिलना होता है, उनका लिखा पढ़ने को मिलता है। कुछ विद्वान ऐसे हैं जिनके शब्‍द सीधे हृदय में उतर जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनके शब्‍द मस्तिष्‍क में उहापोह मचा देते हैं। ऐसे जटिल और नीरस शब्‍दों का ताना-बुना बुनते हैं कि कुछ देर दिमाग माथापच्‍ची करता है फिर झटककर दूर कर देता है। अहंकार और दम्‍भ उनके शब्‍द-शब्‍द में भरा रहता है। वे हर शब्‍द से यह सिद्ध करने पर तुले होते हैं कि मेरे जैसा विद्वान दूसरा कोई नहीं। विद्वानों का सान्निध्‍य कौन नहीं चाहता, मैं भी सदैव चाहती हूँ, इसलिए यहाँ ब्‍लाग पर भी उन्‍हें ढूंढती रहती हूँ। लेकिन कुछ विद्वान अपने सामने एक दम्‍भ की दीवार तान लेते हैं। आप कैसा भी प्रयास करें लेकिन उस दीवार को ना भेद पाते हैं और ना ही जान पाते हैं। एक आलेख कुछ दिन पूर्व लिखा था, उसे ही यहाँ आप सभी के अवलाकनार्थ प्रस्‍तुत कर रही हूँ। आपकी प्रतिक्रिया की अभिलाषा में।
दम्भ की दीवार

      तुम्हारे व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुझे लगा कि विचार शून्य सी इस दुनिया में कुछ क्षण तुम्हारे शब्दों से अपने मन को भिगो लूं। फिर तुम इतने अप्राप्य भी नहीं थे कि मैं तुम तक नहीं पहुँच सकूं। तुम मेरे सामने थे, मैंने तुम्हारे सान्निध्य के लिए जैसे ही तुम्हें पुकारा, तुमने मेरी तरफ उपेक्षा से देखा। मैं फिर भी तुम्हारे शब्दों के जादू से खिंची हुई तुम्हारी तरफ बढ़ती रही। जैसे ही मैं और तुम संवाद की मियाद में आए, अचानक मेरा सिर लहुलुहान हो गया। मैं एक ऐसी पारदर्शी दम्भ की दीवार से टकरा गयी थी जिसने मुझे क्षत विक्षत कर दिया था। मुझे अपना व्यक्तित्व तुम्हारे सामने एकदम बौना लगने लगा। बौना इस मायने में नहीं कि मुझमें और तुम में बहुत बड़ा अंतर था, बौना इस मायने में कि मेरी सहजता और तुम्हारे दम्भ में बहुत फासले थे। मैं यह भी जानती हूँ कि तुम्हारी दीवार से केवल तुम्हारा ऊपरी शरीर आवृत्त है, तुम्हारे पाँव तो सबको मूक निमंत्रण देते हैं। उन्हें मैं आसानी से छू सकती हूँ। शायद उनको छूने के बाद ही तुम्हारा सान्निध्य मुझे मिल सके। मैंने एकाध बार कोशिश भी की यदि तुम्हारे दम्भ की दीवार पाँवों के स्पर्श से ही सरकती है तो क्या हर्ज है। लेकिन तब यह दीवार और मोटी होकर मेरे सामने आ गयी। मैंने फिर भी हठ नहीं छोड़ी, मुझे लगा शायद एक दिन यह दीवार पिघल जाएगी। तुम्हारे दम्भ की दीवार से तुमको अनावृत्त करने के लिए मैंने मौन धारण कर लिया और तुम्हारे सम्भाषण को एकाग्र मन से सुना। लेकिन जैसे जैसे मैं तुम्हारे सामने मौन होती चली गयी वैसे वैसे तुम्हारा दम्भ घटने की जगह बढ़ता चला गया। तब मुझे लगा कि मेरे मौन होने से तुम्हारा दम्भ नहीं घटेगा। ना मेरा मौन और ना मेरे सहज शब्द इस दीवार को पिघला पाए थे। मुझे दीवार के पीछे खड़े तुम भी प्यासे ही दिखायी दे रहे थे। मैं देख रही थी कि तुम्हारी प्यास बढ़ती जा रही है, तुम्हारे शब्द तुम्हारे अंदर घुट कर तुम्हें मानसिक त्रास दे रहे हैं। उन्हें चाहिए एक ऐसा मित्र जिसे वे अपना शिल्प बता सकें। लेकिन तुम्हारे दम्भ की दीवार के कारण वे भी घुट रहे थे।
      तुम ऐसे अकेले नहीं हो, जो शब्दों का भण्डार लेकर अपने आपको एक दीवार से आवृत्त करके बैठे हो। कभी तुमने आधुनिक कार्यस्थल देखें हैं? एक बड़े से कक्ष में सभी कर्मचारियों के लिए कांच के केबिन बने होते हैं जो नीचे और ऊपर से खुले होते हैं। बस सभी दीवारों से पृथक होते हैं। ऐसे ही आज, तुम जैसे बुद्धिजीवी अपने अपने केबिन में बैठे हैं। जब तुम्हारा मन करता है किसी से बतियाने का, तब तुम किसी केबिन वाले से ही बात कर पाते हो। तुम भी दीवार से आवृत्त और वे भी आवृत्त। मेरे जैसे व्यक्तित्व अपने साथ दीवारें नहीं रखते, बस रखते हैं एक झोला जिसमें कुछ शब्द होते हैं जो आम आदमी अपने सुख और दुख में बोल लेता है। मैं उन्हीं शब्दों को लोगों में बांटती रहती हूँ। तुम्हारी आँखों से जब कोई बूंद कभी लुढ़क जाती होगी तब तुम्हारी बच्ची के नन्हें हाथ और उसके तोतले शब्दों से ही तुम्हें सहारा मिला होगा। क्यों अपने आपको तुमने भारी भरकम शब्दों के आवरण में कैद कर रखा है? क्यों तुम्हें लगता है कि ये ही शब्द लोगों को सहारा देंगे? क्यों नहीं तुम आम जन की भाषा से अपने आपको भिगो पाते हो? आओं हम सब के साथ मिलकर बैठो, शब्दों की निर्झरणी को स्वतः ही बहने दो। उन्हें हिमखण्डों में मत बदलो। अपने आपको दम्भ की दीवार से अनावृत्त करो। मेरे जैसे अनेक लोग तुम्हारे पास शब्दों की पूंजी लेने आएंगे उन्हें दो, उनके लिए सहज सुलभ बनो तुम। तुम्हारी सहजता से हमारे हाथ ही नहीं हमारा मन भी तुम्हारे पाँवों को चूमेगा।

54 comments:

  1. .

    दंभ से बड़ा कोई दुश्मन नहीं होता। अक्सर इसी दंभ के वश में होकर हम बहुत सुन्दर रिश्तों को खो देते हैं । यही दंभ हमारी अच्छाइयों को भी धुंधला कर देता है ।

    यदि किसी रिश्ते में कोई व्यक्ति दंभ से आवृत है और दूसरा व्यक्ति उसके दंभ को स्पष्ट रूप से देख रहा है , फिर भी वो अपने साथी का मान रखने के लिए उससे कुछ नहीं कहता , चुप रहता है और उसे थोडा वक़्त देता है की शायद वो ज़रूर समझेगा एक दिन । लेकिन वो नहीं समझता । दोनों ही प्यासे रहते हैं क्यूंकि दोनों ही एक दुसरे से प्रेम अथवा एक दुसरे के प्रति सम्मान रखते हैं। लेकिन 'दंभ' उनके रिश्ते में विष घोल रहा होता है , जो मति-भ्रम पैदा कर देता है और सही-गलत विभेदक बुद्धि को भी आवृत कर देता है। इसलिए व्यक्ति अपने दंभ से छुटकारा नहीं पाता है। ऐसी स्थिति में समझायिशें भी व्यर्थ जाती है ।

    आत्मावलोकन द्वारा 'दंभ' से निजात पायी जा सकती है।

    .

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  2. आओं हम सब के साथ मिलकर बैठो, शब्दों की निर्झरणी को स्वतः ही बहने दो। उन्हें हिमखण्डों में मत बदलो
    अजित जी बहुत गहरी बातें लिखी हैं एक एक शब्द दिल को छूता है इस दम्भ से ही तो दुनिया मे इतना कुछ हो रहा है। घर मे भी बाहर भी ये दिवारें हमे एक दूसरे से दूर कर देती हैं
    छोटी छोती बातों पर
    जब दम्भ आढे आता है
    हो जाते हैं
    " हम" हम से
    मै और तू
    हो जाते हैं
    रिश्ते तार तार
    जब आप ब्लागिन्ग मे आयी थी तब मुझे सब से अधिक हैरानी हुयी थी जब आप सब के ब्लाग पर जातीम नही तो अक्सर देखा है कि वरिष्ट लेखक नये लेखकों को अक्सर कोसते ही नज़र आते हैं। लेकिन आपने लेखक धर्मिता को खूब निभाया अपने बडे लेखक होने का दम्भ छोड कर जिस के लिये आप बधाई की पात्र हैं। बहुत अच्छा लगा आलेख।

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  3. जिसने भी अपने चरों ओर दंभ की दीवार खड़ी की उसे अकेलापन ही मिलेगा ..भले ही वो चाहे कि उसके शब्दों की प्रशंसा हो .. ऐसे अहंकारी लोंग केवल प्रशंसा ही सुन पाते हैं , कोई सीख या सलाह उनके अहंकार की देववर से टकरा कर लौट आती है ...

    आपकी इस बात में शत प्रतिशत सच्चाई है --तुम्हारी आँखों से जब कोई बूंद कभी लुढ़क जाती होगी तब तुम्हारी बच्ची के नन्हें हाथ और उसके तोतले शब्दों से ही तुम्हें सहारा मिला होगा।

    पर फिर भी लोंग सहज नहीं हो पाते .. मौन रह कर तो अहंकारी के अहंकार को पुष्टि मिलती है , उसको यही लगता है कि मेरी बात समझ ही नहीं आई .. इसी लिए चुप हैं ..
    विचारणीय पोस्ट

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  4. आदरणीय अजित गुप्ता जी, आपने दंभ का परिचय बहुत सुन्दर तरीके से दिया है...बंद केबिन का उदाहरण सटीक लगा...
    लिखने के लिए मेरे पास शब्दों की कमी रहती है, बोलना मेरे लिए सरल होता है...मैं अच्छा लेखक नहीं हूँ|
    अत: मन की बात को समझें व अनुमान लगाएं...
    आपसे मार्गदर्शन की अपेक्षा रखूँगा...
    धन्यवाद...
    सादर...

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  5. तुम ऐसे अकेले नहीं हो, जो शब्दों का भण्डार लेकर अपने आपको एक दीवार से आवृत्त करके बैठे हो। कभी तुमने आधुनिक कार्यस्थल देखें हैं? एक बड़े से कक्ष में सभी कर्मचारियों के लिए कांच के केबिन बने होते हैं जो नीचे और ऊपर से खुले होते हैं। बस सभी दीवारों से पृथक होते हैं। ऐसे ही आज, तुम जैसे बुद्धिजीवी अपने अपने केबिन में बैठे हैं। जब तुम्हारा मन करता है किसी से बतियाने का, तब तुम किसी केबिन वाले से ही बात कर पाते हो। तुम भी दीवार से आवृत्त और वे भी आवृत्त।


    बंद केबिन का उदाहरण बहुत सुन्दर तरीके से दिया है.हार्दिक बधाई.

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  6. ज्ञान की बात है, आभार।

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  7. दम्भ किसी को भी स्वार्थी और निकम्मा बना देता है....विचारणीय पोस्ट...

    "आओ दम्भकी इस दीवार को दें, देखो आँगन कितना बड़ा होजाएगा "

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  8. सामान्य बोलचाल की सहज शैली से परे शब्दों के इस दंभी लेखन के माध्यम से आपने स्वयं को विशिष्ट समझने वाले व्यक्तियों की जिस मानसिकता का परिचय दिया है वैसा व्यक्तित्व व वैसी शैली प्रायः अपने इर्द-गिर्द देखने में आती ही रहती है और वाकई ऐसे जटिल व्यक्तित्वों के सानिंध्य में कुछ ऐसी कोफ्त भी होती है कि लगता है भैया आप अपने शीशे के केबिन में ही भले । हम तो जमीन से जुडे प्राणी हैं और ऐसे ही लिखने, बोलने व समझने वालों को न सिर्फ पसन्द करते हैं बल्कि बेहतर भी समझते हैं, और वास्तविकता भी यही है कि सामान्य शैली के लोग भीड व सफर में भी जितना सहज रुप से एक-दूसरे से जुड जाते हैं वैसा जुडाव इस टाईप के स्वयं को अति विशिष्ट समझने वाले लोगों में आपस में भी कम ही देखने को मिल पाता है क्योंकि वहाँ भी तेरी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे वाली मानसिकता ही सर्वोपरि दिख रही होती है । एक और बात भी स्वये को ऐसे विशिष्ट वर्ग में गिनने वाले व्यक्तित्व कभी-कभी अपने निजी लाभ के लिये सामान्य व्यक्तित्वों के सम्पर्क में आते भी हैं तो कुछ इस प्रकार से कि इस समय मुझे कोई देख तो नहीं रहा । ऐसे जटिल व्यक्तित्वों का अपनी शैली में परिचय करवाने के लिये साधुवाद...

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  9. एक विशिष्ट चिंतन और वह सार्थक सरल प्रतिकात्मक!! वाकई मनोमंथन करने योग्य!!

    सर्वश्रेष्ठ कथन……

    "तुम्हारी दीवार से केवल तुम्हारा ऊपरी शरीर आवृत्त है, तुम्हारे पाँव तो सबको मूक निमंत्रण देते हैं। उन्हें मैं आसानी से छू सकती हूँ। शायद उनको छूने के बाद ही तुम्हारा सान्निध्य मुझे मिल सके। मैंने एकाध बार कोशिश भी की यदि तुम्हारे दम्भ की दीवार पाँवों के स्पर्श से ही सरकती है तो क्या हर्ज है। लेकिन तब यह दीवार और मोटी होकर मेरे सामने आ गयी। मैंने फिर भी हठ नहीं छोड़ी, मुझे लगा शायद एक दिन यह दीवार पिघल जाएगी। तुम्हारे दम्भ की दीवार से तुमको अनावृत्त करने के लिए मैंने मौन धारण कर लिया और तुम्हारे सम्भाषण को एकाग्र मन से सुना। लेकिन जैसे जैसे मैं तुम्हारे सामने मौन होती चली गयी वैसे वैसे तुम्हारा दम्भ घटने की जगह बढ़ता चला गया।"

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  10. अगर ये दम्भ की दीवार गिर जाये तो फिर दूरी या भेद बचता ही कहाँ है मगर इंसान इस दीवार को इतना मज़बूत बना कर रखता है कि उसे भेदना आसान नही होता…………एक बेहद उत्तम पोस्ट्।

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  11. पढ़ने के बाद सोच रहा हूँ... इस विश्लेष्णात्मक आलेख का प्रेरक कौन होगा? ... कोई तो जरूर है.. कहीं आपका सबसे करीबी टिप्पणीकार तो नहीं? :)
    कहीं V4-0 या फिर मैं ...... तो नहीं? :)
    दायरा सीमित है इसलिये दो-एक लोगों पर ही शक हो रहा है.
    आपके विचार मन की गुत्थियों को समझने में अच्छा मंथन कराते हैं.
    'पारदर्शी दंभ की दीवार' का बिम्ब बेहद अच्छा लगा.

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  12. अजितदी..दंभ की दीवारें शीशे की तो हैं लेकिन बुलेटप्रूफ हैं..चाह कर भी हम इन दीवारों को तोड़ नहीं पाते...और अगर हठपूर्वक तोड़ भी दें तो जाने क्या हो...!!

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  13. प्रतुल जी घौडे मत दौडाइए, यहां तो अभी ऐसा कोई मिला ही नहीं। आप लोग निसंदेह विद्वान हैं लेकिन दम्‍भ की दीवार यहां कहां है? यह आलेख पूर्व में लिखा था और किसी एक पर केन्द्रित नहीं था। समाज में जो देखा, अनुभव किया बस उसी के आधार पर लिखा था। हर व्‍यक्ति पैर पुजवाने का शौकिन है, लेकिन तब भी दम्‍भ कम नहीं होता।

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  14. ऐसे दम्भी लोगो से दोस्ती की अभिलाषा ही क्यूँ...उन्हें सुरक्षित रहने दिया जाए..अपने दंभ के घेरे में.
    जो लोग अपने दंभ के दायरे से बाहर नहीं निकलते..उन्हें पता नहीं होता...उन्होंने क्या खो दिया...
    सहज व्यवहार वाला व्यक्ति मानसिक सुकून में जीता है.

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  15. आदरणीय अजित गुप्ता जी आप मेरे ब्लॉग को Follow कर रही हैं...मैंने अपने ब्लॉग के लिए Domain खरीद लिया है...पहले ब्लॉग का लिंक pndiwasgaur.blogspot.com था जो अब www.diwasgaur.com हो गया है...अब आपको मेरी नयी पोस्ट का Notification नहीं मिलेगा| यदि आप Notification चाहती हैं तो कृपया मेरे ब्लॉग को Unfollow कर के पुन: Follow करें...
    असुविधा के लिए खेद है...
    धन्यवाद....

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  16. दंभ एक अन्धकार के समान है जिसमें कुछ दिखाई नहीं देता.और बहुत कुछ खो बैठते हैं हम .
    विचारणीय पोस्ट.

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  17. सार्थक आलेख....दंभ इन्सान का दुश्मन है... उम्दा उदाहरण!!!

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  18. Whatever u were feeling u expressed it so well...
    It was a nice read.

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  19. बहुत सुंदर... क्या बात है।

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  20. सार्थक विवेचन.... दंभ सिर्फ दूरियां बढाता है....

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  21. Itna likha jaa chuka, ab kya shesh hai? Nice post.

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  22. तत्सम और तद्भव शब्दों से खेल कर ही महान साहित्यकार होने का दम्भ हो जाता है लोगों को:) अच्छी रचना के लिए बधाई जिसमें कोई दम्भ नहीं दिखाई दिया :)

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  23. दम्भ ही तो है इन्सान में! जो पतन की ओर ही ले जाता है!

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  24. ... आाह! कई लोग हैं जो अाइने तक को झुठलाने से नहीं चूकते.

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  25. आओं हम सब के साथ मिलकर बैठो, शब्दों की निर्झरणी को स्वतः ही बहने दो। उन्हें हिमखण्डों में मत बदलो। अपने आपको दम्भ की दीवार से अनावृत्त करो। मेरे जैसे अनेक लोग तुम्हारे पास शब्दों की पूंजी लेने आएंगे उन्हें दो, उनके लिए सहज सुलभ बनो तुम। तुम्हारी सहजता से हमारे हाथ ही नहीं हमारा मन भी तुम्हारे पाँवों को चूमेगा।
    Kitna khoobsoorat khyal hai ye!

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  26. सुंदर विचार !
    दंभ की भूमिका अहंकार से भी ज्यादा नकारात्मक है, त्याज्य है।

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  27. कभी ऐसी आभासी दीवार रचना जरूरी भी होता है, दंभ के दीवार को भेदने का आकर्षण भी होता है.(साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं)

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  28. दंभ रे दंभ,
    अन्त प्रारम्भ।

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  29. "...यहां तो अभी ऐसा कोई मिला ही नहीं।..."
    @ अजित जी, आपके सरल हृदय ने मेरे आरंभिक लेखकीय दंभ को अनदेखा किया है शायद. :)
    यदि आप जैसे गुरुजनों का सान्निध्य मिले तो बिना शर्मिंदगी के सुधार कर लिया जाता है.

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  30. निर्मला जी, मैंने साहित्‍य जगत के अनेक रूप देखे हैं, दम्‍भी स्‍वरूप भी और चाटुकारिता से भरा भी। मुझे प्रारम्‍भ से ही नवीन और युवा लेखन में दिलचस्‍पी रही है। हम इस आयु में आकर कहीं ना कहीं अपने विचारो से प्रतिबद्ध हो गए हैं इसलिए नवीन और युवा लेखन के नवीन विचार कुछ प्रतिबद्धताओं को तोड़ने में मदद करते हैं। इसलिए ही ब्‍लाग पर आकर नवीनता की खोज कर रही हूँ। साहित्‍य जगत जैसे हालात यहाँ भी है, सबकुछ शीघ्रता से पा लेना चाहते हैं। यहाँ कोई नहीं लिखता कि मैं कुछ सीखने आया हूँ, बस सभी यही लिखते हैं कि मैं कुछ देने आया हूँ। आपका स्‍नेह हमेशा ही मिलता रहा है, आभार।

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  31. रश्मि रविजा जी, आपने प्रश्‍न तो उचित ही किया है कि दम्‍भी लोगों से मित्रता की आशा ही क्‍यों? लेकिन मुझे लगता है कि जिसके पास भी कुछ ज्ञान है, यदि उसकी समीपता मिलेगी तो कुछ ना कुछ तो हासिल होगा ही। लेकिन धीरे-धीरे लगता है कि ऐसे लोग कुछ दे नहीं पाते, देते हैं तो केवल दम्‍भ ही। लोग अपने अनुयायी ढूंढते हैं लेकिन मैं हमेशा गुरु ढूंढती हूँ। पता नहीं गलत हूँ या सही, इसके ज्ञान के लिए ही तो यहाँ लिखती हूँ जिससे अपना आकलन होता रहे। क्‍योंकि ब्‍लागिंग ही ऐसा क्षेत्र है जहाँ त्‍वरित टिप्‍पणी मिलती है, आपके प्रत्‍येक विचार पर।

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  32. प्रतुल जी, मैं आपको ज्‍यादा तो नहीं जान पायी ह‍ूँ लेकिन आपने लेखकीय दम्‍भ या ज्ञान का दम्‍भ शायद इतना नहीं देखा होगा जितना मैंने देखा है। हा हा हाहा, यह मेरा भी दम्‍भ है। लेकिन बहुत कटु अनुभव है इस बारे में, आपकी बात कहने का अंदाज अलग है लेकिन दम्‍भ ऐसा तो कहीं दिखायी नहीं देता कि बरगद के पेड़ के नीचे कुछ भी अंकुरित ना हो! सहजता और सरलता की हमेशा ही तलाश रहती है, यहाँ कुछ मिल जाती है तो कुछ समय देना अच्‍छा लगता है।

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  33. बौना इस मायने में कि मेरी सहजता और तुम्हारे दम्भ में बहुत फासले थे।
    उदाहारण आपने बहुत ही सटीक दिया है , सार्थक पोस्ट आभार

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  34. आओं हम सब के साथ मिलकर बैठो, शब्दों की निर्झरणी को स्वतः ही बहने दो। उन्हें हिमखण्डों में मत बदलो। अपने आपको दम्भ की दीवार से अनावृत्त करो। मेरे जैसे अनेक लोग तुम्हारे पास शब्दों की पूंजी लेने आएंगे उन्हें दो, उनके लिए सहज सुलभ बनो तुम। तुम्हारी सहजता से हमारे हाथ ही नहीं हमारा मन भी तुम्हारे पाँवों को चूमेगा।
    ......
    आज दंभ की दीवार कितने रिश्तों के बीच दूरियां पैदा कर दे रही है. एक व्यक्क्ति उस दीवार को हटाना भी चाहे तो कुछ नहीं कर सकता जब तक कि दूसरा भी अपने चारों ओर बनायी हुई शीशे की दीवारों से बाहर न आना चाहे. सुन्दर विम्बों की सहायता से दंभ की दीवार का बहुत ही विषद और बोधगम्य विवेचन..हम अपनी दीवार गिरा सकते हैं,लेकिन दूसरों के द्वारा अपने चारों ओर खड़ी की गयी दीवार का क्या कर सकते हैं? ...आभार

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  35. अहंकार से बड़ा खुद अपना कोई दुश्मन नहीं होता ...मगर इस पर सिर्फ लिखने से क्या ...यहाँ टिप्पणीकर्ता खुद अपने गिरेबान में झाँक ले ...

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  36. लोकैषणा बढने से दंभ उजागर हो जाता है, सरल शब्दों में भी बात समझी जाती है।

    बड़ी सुदर बात कही है आद्य शंकराचार्य जी ने-

    वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्र व्याख्यानम् कौशलम।
    वैदुष्यम् विदुषां तद्वद भुक्तये न तु मुक्तये।।

    आभार

    ब्लॉग4वार्ता-नए कलेवर में

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  37. 'commonsense is very uncommon' की ही तरह सहज व्यक्तित्व हैं तो लेकिन उन्हें खोज पाना इतना सहज नहीं है।
    हमारे एक बॉस कहा करते थे, "जितना छोटा आदमी, उतनी बड़ी उसकी ईगो।" ये अलग बात है कि उनकी खुद की ईगो मौके बेमौके हर्ट हो जाती थी:)
    आपके आलेख का एक एक शब्द असरदार ह।, लेकिन हम कहाँ इस दीवार को गिरा पाते हैं? और हर कोई इतना महान हो भी नहीं सकता।

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  38. गुप्ता जी ..आप की यह लेख सोंचने के लिए मजबूर कर रही है ! दंभ एक गलत प्रक्रिया है ! सुन्दर लेख

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  39. अजित जी कई बार ऐसा भी होता है असल में सामने वाला विद्वान होता ही नहीं है बस विद्वान होने का दंभ भर रहता है जानबूझ कर बनाई दिवार होती है ताकि करीब आ कर कोई सच न जान ले इसलिए दंभ की इतनी मोटी दिवार बनाओ की लोग उसे ही विद्वान होने का संकेत मान ले और आने वाला बस चरण पूजन तक ही सिमित रहे आप से कोई वैचारिक बहस न करे | वो जानता है की जिस दिन ये दंभ की दिवार गिरा दी उस दिन विद्वान होने की भ्रम भी टूट जायेगा |

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  40. भैया ये दम्भ की दीवार टूटती क्यों नहीं है...टूटेगी कैसे अंबुजा सीमेंट से जो बनी है...

    खाता न बही, जो हम कहें वही सही...

    देश के एक अरब बाइस करोड़ आबादी में मेरे समेत हर एक की यही सोच है...

    जय हिंद...

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  41. शब्दों की कृत्रिम दीवार पर टिका दम्भ ज्यादा देर तक नहीं टिकता। उसे तो ताश के पत्तों की तरह कभी न कभी ढहना ही है।

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  42. दंभ दूरियां बढ़ाता है.
    इस तरह के मनोभावों को शब्द देना आसान नहीं है लेकिन आप ने बखूबी अभिव्यक्त किया है.

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  43. galti se aapke blog se khud ko post kar diya, galti pe galti kshma karen|
    kindly have a look ----

    nivedan
    आदरणीया अजित जी गुप्ता निवेदन पूरी गंभीरता के साथ किया है मैंने | कभी दर्शन दें | मेरे लगाये आम के पांच पेड़ों में फल आ रहे हैं | अवश्य भेंट करूँगा आपके श्री चरणों में |
    |http://dcgpthravikar.blogspot.com/
    http://dineshkidillagi.blogspot.com/
    http://neemnimbouri.blogspot.com/
    http://terahsatrah.blogspot.com/
    see my son,s blog -- http://kushkikritiyan.blogspot.com/

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  44. bahut sahi kahaa...lekhani sahaj honi chaahiye.

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  45. दंभ से बड़ा कोई दुश्मन नहीं होता

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  46. विचारोत्तेजक आलेख !
    लेखकीय दंभ अंततः अपने आप में ही घुट कर रह जाता है ,चारों ओर व्याप्त होने के लिए खुली हवा उसे मिल ही कहाँ पाती है !

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  47. हिन्दुस्तान हिंदी के सम्पादक थे अब तो नाम भी याद नहीं हम दोनों ब्रह्माकुमारीज़ के एक सेमीनार में थे जो टीचर्स और पत्रकारों ,डॉक्टरों के लिए था .कन्नोजिया थे .बात चली कहने लगे विज्ञान ,लोकप्रिय विज्ञान बहुत से लोग हिंदी में लिख रहें हैं लेकिन साफ़ नहीं लिखतें हैं .इतना सारल्य था उनके इस वाक्य में जिसे हमने तभी गांठ में बाँध लिया था ।
    शब्दों का अपना संस्कार मर जाता है हमारे अन्दर की क्लिष्टता और आवरण से ढीठाई से .सहज सरल होना भाषिक आभूषण है .आपसे सहमत .जो अपने अन्दर अटकें हैं वो भटकें हैं .

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  48. कुछ लिखते क्यूँ नहीं ||

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  49. is blog jagat me hi na jane kitne log aise honge jo is bimari ke shikar honge.

    vicharneey post.

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  50. आपके उदाहरण बड़े ही जबरदस्त हैं. काफी अच्चा लेख.

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  51. अपने आपको दम्भ की दीवार से अनावृत्त करो। मेरे जैसे अनेक लोग तुम्हारे पास शब्दों की पूंजी लेने आएंगे उन्हें दो, उनके लिए सहज सुलभ बनो तुम। तुम्हारी सहजता से हमारे हाथ ही नहीं हमारा मन भी तुम्हारे पाँवों को चूमेगा।
    wah.kitni achchi baat kahi hai.

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  52. आपने दंभ या कहें तो अंहकार का सही वर्णन किया है । मुझे लगता है सरल और सहज व्यक्ति को लोग बेवकूफ समझते हैं . मेरा काम ऐसा है कि बहुत से लोगों से पाला पड़ता रहता है मैने तो बड़े बड़े साधु संतों को भी दंभ से अछूता नहीं पाया । साधारण मु,्य़ों की बात तो छोड़ दिजिए . हाल ही में एक सज्जन जो कि बहुत गुणी है उन्हें मैनें हर तरह से प्रमोच करने का स्च्चे दिल से प्रयास किया लेकिन उनका अहंकार इतना बड़ा है कि वो मुझे ये बताने में भी नहीं चूके तुम मुझे प्लेटफार्म दे भी रही हो तो क्या इसकी पहंुच तो लोअर मिडिल क्लास तक ही है . जबकि उन्होने कुछ दिन पहले स्वयं ही स्वीकार किया था कि उनके अहम के कारण उनकी अमूल्य रिसर्च बेकार जा रही है । क्या कर सकते हैं अजितजी सोच अपनी अपनी है मुझे तो लगता है अपनी सहजता और सरलता के कारण मुझे ही कईं बार अपमानित होना पड़ा है

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