वर्तमान में हम सब प्रेम के लिए तरस उठते हैं, सारे सुख-सुविधाएं एक तरफ हो जाती हैं और प्रेम का पलड़ा दूसरी तरफ हमें बौना सिद्ध करने पर तुला रहता है। कुछ दिन पूर्व एक आलेख लिखा था, आज उसका स्मरण हो आया। कारण भी था कि कुछ पोस्ट ऐसी पढ़ी जिसमें उहापोह था, शायद मेरे मन में भी था, इसलिए वे पोस्टे मन को छू गयी और सोच में डाल गयी कि क्यों इंसान सब कुछ पाने के बाद भी प्रेम से वंचित क्यों रह जाता है? इस वंचना से बचने का भी कोई उपाय है क्या? अधिक भूमिका नहीं बांधते हुए सीधे ही आलेख पढ़ा देती हूँ।
सुकून आता जाएगा
कई दिनों से मन में एक उद्वेग उथल पुथल मचा रहा है, लेकिन समझ नहीं आ रहा कि क्या है? तभी डॉक्टर पति के पास एक बीमार आया, उसे फूड पोइजनिंग हो गयी थी और वह लगातार उल्टियां कर रहा था। मुझे मेरी उथल पुथल भी समझ आ गयी। दिन रात मनुष्यता को समाप्त करने वाला जहर हम पीते हैं, शरीर और मन थोड़ा तो पचा लेता है लेकिन मात्रा अधिक होने पर फूड पोइजनिंग की तरह ही बाहर आने को बेचैन हो जाता है। मन से निकलने को बेचैन हो जाता है यह जहर। कुछ लोग गुस्सा करके इसे बाहर निकालते हैं, कुछ लोग झूठी हँसी हँसकर बाहर निकालने का प्रयास करते हैं और हम स्याही से खिलवाड़ करने वाले लोग स्याही को बिखेर कर अपनी उथल-पुथल को शान्त करते हैं। बच्चा जब अपने शब्द ढूंढ नहीं पाता तब वह स्याही की दवात ही उंडेल देता है। शब्द भी पेड़ों से झरे फूलों की तरह होते हैं, वे झरते हैं और सिमट कर एक कोने में एकत्र हो जाते हैं। अच्छा मकान मालिक उन्हें झोली में भरता है और अपने घर में सजा लेता है। लेखक भी शब्दों को अपनी स्याही के सहारे पुस्तकों में सजा देता है। जैसे ही कमरे में फूलों का गुलदस्ता सजा दिया जाता है स्वतः ही वातावरण सुगंधित हो जाता है। वहाँ फैली घुटन, सीलन झट से बाहर भाग जाती है। ऐसे ही जब हम शब्दों को मन में सजाते हैं उन्हें कोरे पन्नों में उतारते हैं तब मन की घुटन और ऊब पता नहीं कहां तिरोहित हो जाती हैं। जीवन फिर खिल उठता है।
आज एक कसक फिर उभर आयी। बचपन से ही मेरे पीछे पड़ी है, कभी भी छलांग लगाकर मेरे वजूद पर हावी हो जाती है। मैं नियति का देय मानकर सब कुछ स्वीकार कर चुकी हूँ लेकिन फिर भी यह कसक मेरे अंदर अमीबा की तरह अपनी जड़े जमाए बैठी है। जैसे ही अनुकूल वातावरण मिलता है यह भी अमीबा की तरह वापस सक्रिय हो जाती है। आदमी सपनों के सहारे जिंदगी निकाल देता है। बचपन में जब नन्हें हाथ प्रेमिल स्पर्श को ढूंढते थे तब एक सपना जन्म लेता था। हम बड़े होंगे अपनी दुनिया खुद बसाएंगे और फिर प्रेम नाम की ऑॅक्सीजन का हम निर्यात करेंगे। जिससे कोई भी रिश्ते में उत्पन्न हो रही कार्बन-डाय-आक्साइड का शिकार ना हो जाए। लेकिन यह कारखाना लगाना इतना आसान नहीं रहा। हवा इतनी दूषित हो चली थी कि आक्सीजन का निर्यात तो दूर स्वयं के लिए भी कम पड़ती थी। जैसे तैसे करके काम चलाते रहे। बच्चे बड़े होने लगे, तब फिर सपना देख लिया। सपने में देखने लगे कि अब तो प्राण वायु का पेड़ बड़ा होगा और हमें भरपूर वायु मिलेंगी। लेकिन क्या? हमने पेड़ बोना चाहा लेकिन बच्चे पंछी बन गए। वे हमारे पेड़ से उड़कर बर्फ की धवल चोटी पर बैठ गए। जहाँ उष्मा नहीं थी, थी केवल ठण्डक। हम फिर आक्सीजन के अभाव में तड़फड़ाने लगे। अब तो सपने भी साथ छोड़ने को आमादा हो गए। वे बोले कि तुम जिंदगी भर हमारा सहारा लेते रहे, तुमने सच करके कुछ भी नहीं दिखाया। हम भला तुम्हारा साथ कब तक देंगे? और एक दिन उन्होंने बहुत ही रुक्षता के साथ हम से कह दिया कि नहीं अब नहीं होगा, बाबा हमारा पीछा छोड़ो।
हमने भी जिद ठान ली कि देखें सपने कैसे नहीं आते? लेकिन सपनों ने नींद से दोस्ती कर ली। वे बोले सपने तभी देखोंगे ना, जब नींद आएगी? हम नींद को भी अपने साथ ले जाते हैं। हम फिर भी हताश नहीं हुए। हमने कहा कि कोई बात नहीं हम खुली आँखों से सपना देखेंगे। लेकिन इतना सुनते ही सपने फिर हँस दिए, वे बोले कि दिन में जब भी खुली आँखों से सपना देखने की कोशिश करोगे तो नींद झपकी बनकर उसे तोड़ देगी। अब तुम उस संन्यासी की तरह हो जिस का तप भंग करने के लिए अप्सरा जरूर आएगी। अतः भूल जाओ सपने और कठोर धरातल पर जीना सीखो। यहाँ रिश्तों में जहरीली हवा ज्यादा है और प्रेम की ताजगी से भरी प्राण वायु कम है। तुम ने जिस प्राण वायु का कारखाना लगाना चाहा था वह भी तुम्हारे लिए नहीं रहा। तुम्हें तो उसी जद्दो-जहेद में अपनी जिंदगी निकालनी है। यदि हिम्मत को बटोर सको तो फिर जुट जाओ। लेकिन इस बार ध्यान रखना कि सपनों की दुनिया बसाने का अब समय नहीं है, जो भी करना है ठोस धरातल पर खुली आँखों के सहारे करना है। रोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है। तुम्हारी बगियां की प्राण वायु शायद तुम्हारें लिए ना हो लेकिन उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो। विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो, जब तक प्रयत्न करते रहो जब तक कि मंजिल ना मिल जाए। बस शब्दों की निर्झरनी को बहाते रहो और अपने आप सुकून आता जाएगा, आता जाएगा बस आता जाएगा।
ajit ji, parnaam,
ReplyDeleteaaj to man kee ganthe kholne kee koshish kee hai - or wo puri bhi hui hain....
badiya laga.
रोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है। तुम्हारी बगियां की प्राण वायु शायद तुम्हारें लिए ना हो लेकिन उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो।
ReplyDeleteआज तो आपने मेरे मन की बात कह दी ...इतनी खूबसूरती से मैं नहीं बयान कर सकती थी ... बहुत सूक्ष्म विवेचन
उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो। विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो, जब तक प्रयत्न करते रहो जब तक कि मंजिल ना मिल जाए। बस शब्दों की निर्झरनी को बहाते रहो और अपने आप सुकून आता जाएगा, आता जाएगा बस आता जाएगा।
ReplyDeleteकितनी सुंदर बात ........ सच है यह खोज जारी रहे ...
आप ने बहुत सुंदर बाते लिखी इस लेख मे, बहुत अच्छी लगी, धन्यवाद
ReplyDeleteआपकी हर प्रस्तुति जानदार और शानदार होती है। इस अनूठेपन को बनाए रखने के लिए आभार....।
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इन्हें कारखाना कहें, अथवा लघु उद्योग।
प्राण-वायु के जनक ये, अद्भुत इनके योग॥
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सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
कितनी सहजता से आपने, हमें ये सब समझाया है,
ReplyDeleteउठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो। विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो, जब तक प्रयत्न करते रहो जब तक कि मंजिल ना मिल जाए। बस शब्दों की निर्झरनी को बहाते रहो और अपने आप सुकून आता जाएगा, आता जाएगा बस आता जाएगा।
ReplyDeletebahut sunder baat .itni sunder tarike se kahi ki shabd nahi byan karne ko
saader
rachana
प्राण वायु के लिए सतत प्रयास करना होता है आज के वातावरण में...
ReplyDeleteउम्दा एवं सार्थक आलेख,
तुम्हारी बगियां की प्राण वायु शायद तुम्हारें लिए ना हो लेकिन उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो
ReplyDeleteअन्दर पैठ कर विवेचन एक बढ़िया पोस्ट बधाई
सुकूनदेह, थोड़ी राहत देने वाली.
ReplyDeleteसुकून आता जाएगा..
ReplyDeleteपोस्ट के शीर्षक में आने और जाने की क्रियाएँ एक साथ देखकर आज का सुकून स्तब्ध हो गया.
"बच्चा जब अपने शब्द ढूंढ नहीं पाता तब वह स्याही की दवात ही उंडेल देता है।"
......... कुछ ऐसा ही भाव मेरा भी बन गया है आपकी पोस्ट को पढ़कर.
विचारोत्तेजक और मन को झकझोरने वाली पोस्ट।
ReplyDelete• मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन को समय के बदलाव के साथ वैज्ञानिक उपादानों का सहारा लेकर लिखी गई यह रचना मन को बहुत झकझोड़ती है।
बदल रहे समय का स्पष्ट प्रभाव प्रेम की अवधारणा पर देखने को मिलता है। एक ओर जहां नैतिकताओं और मर्यादाओं से लुकाछिपी है तो दूसरी ओर स्वच्छंदताओं के लिए नया संसार बनाने का प्रयास है।
बच्चा जब अपने शब्द ढूंढ नहीं पाता तब वह स्याही की दवात ही उंडेल देता है।"
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी, धन्यवाद.....
रुला के गया सपना मेरा...
ReplyDeleteकभी गौर कीजिएगा कि आपके सपने कलर में होते हैं या ब्लैक-व्हाईट में...
जय हिंद...
आयेगा आने वाला ... आयेगा!
ReplyDeletesach kaha aapne , agar insaan ke andar ki trashna khym ho jaye to fir insaan ke paas sab kuchh hoga, sabse bada sukh " SUKUN"
ReplyDeleteMERI NAYI POST PAR AAYEN
आज भी जीवित है दुनिया का सबसे खूंखार आतंकवादी ! जरा ध्यान दीजिये .....>>> संजय कुमार
http://sanjaykuamr.blogspot.com/2011/06/blog-post.html#comments
अजितदी...अब तक आपके जितने भी लेख पढ़े हैं उनमें दो लेख दिल पर उतर गए हैं उनमें से एक यह...पहला वह था जब आप सुबह की सैर के लिए निकली थी....
ReplyDelete" क्यों इंसान सब कुछ पाने के बाद भी प्रेम से वंचित क्यों रह जाता है?"
अपने अनुभव से कहती हूँ कि प्रेम रूपी कस्तूरी को वह बाहर ढूँढने में जो लगा रहता है....
रोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है।
ReplyDeleteसही कहा है...उस जहर में अपने अंदर का प्रेम मिला रूप बदल कर उलट देना है...कहीं बाहर से तो प्रेम मिलने से रहा...कस्तूरी के मृग जैसा ही है...
बहुत कुछ सोचने को बाध्य करता है यह आलेख.
हर किसी को आवश्यकता है इसकी और हर किसी के पास है यह।
ReplyDeleteअभिनव ग्रहणीय मंथन परोसा है आपने!!
ReplyDeleteसार्थक एवं विचारणीय!!
उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो। विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो, जब तक प्रयत्न करते रहो जब तक कि मंजिल ना मिल जाए। बस शब्दों की निर्झरनी को बहाते रहो और अपने आप सुकून आता जाएगा, आता जाएगा बस आता जाएगा।
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति बहुत ही सुन्दर…………..
बहुत गहन विश्लेष्णात्मक आलेख ! कहीं न कहीं किसी न किसी बगिया में ये मिल ही जाता है । बस चुनना आना चाहिए।
ReplyDeleteएक ही चीज को हम अलग अलग देखते हैं, फ़र्क नजरिये का है। आपका नजरिया सकारात्मक है और आपकी पोस्ट भी यही संदेश देती है।
ReplyDeleteआभार।
बहुत ही बढिया। आपके लेख के विषय का क्या कहना
ReplyDeleteशब्द से सुसज्जित काव्यात्मक लेख आक्सीजन देता हुआ . किन्तु "विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो" पंक्ति थोडा कन्फ्यूज कर गयी.
ReplyDeleteइसे आलेख कहें या संस्मरण!
ReplyDeleteलेकिन है बहुत सारगर्भित और सटीक!
शरीर के टोक्सिन व्यायाम से निकलते हैं , मन के अभिव्यक्ति से । दोनों ही स्थितियों में हल्कापन महसूस होता है । निकाल ही देना चाहिए जो तंग कर रह है ।
ReplyDeleteबड़े होने पर बच्चे भी एक रेयर कोमोडिटी बन जाते हैं ।
खूबसूरत बात ख़ूबसूरती के साथ.बस आत्मसात करने की कोशिश है.
ReplyDeleteसंयुक्त परिवार टूट रहे हैं और हम अपनेआप को असुरक्षित महसूस कर रहे है। ऊपर से आज का माहौल, पर्यावरण और भोजन सभी तो मनुष्य को खोखला करते जा रहे हैं- मानसिक और शारीरिक तौर पर भी॥
ReplyDeleteजिस भी चीज से अपच होती हो , उगल देना ही ठीक है ...भोजन हो या बह्वंयें ...
ReplyDeleteसार्थक चिंतन !
बहुत अच्छी बात बताई आपने। आभार।
ReplyDelete---------
कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
ब्लॉग समीक्षा का 17वाँ एपीसोड।
बहुत अच्छी बात बताई आपने। आभार।
ReplyDelete---------
कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
ब्लॉग समीक्षा का 17वाँ एपीसोड।
बहुत सुंदर बात राखी है आपने. माइक्रो अनालिसिस. आभार.
ReplyDeleteरोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है। तुम्हारी बगियां की प्राण वायु शायद तुम्हारें लिए ना हो लेकिन उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो।
ReplyDeletebahut sunder likha hai .
इस देश की वतर्मान तानाशाही और नेताओं की असभ्य भाषा से मन बहुत दुखी है इसलिए किसी की टिप्पणी का उतर आज देने का मन नहीं है। क्षमा करेंगे।
ReplyDeleteअच्छा आलेख
ReplyDeleteकाफी कुछ सीख देता हमें
आपकी कलम में जादू सा है
एक बार पढने से मन नहीं भरता
रोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है। तुम्हारी बगियां की प्राण वायु शायद तुम्हारें लिए ना हो लेकिन उठो और खोजों शायद कहीं किसी की बगियां में थोड़ी प्राण वायु तुम्हारे लिए हो। विवेकानन्द की तरह हिम्मत मत हारो, जब तक प्रयत्न करते रहो जब तक कि मंजिल ना मिल जाए।....
ReplyDeleteमन के अंतर्द्वंद और विव्हलता को कितने सुन्दर और प्रेरक ढंग से शांत कर दिया आपकी कलम ने..आभार
सबके मन की बात कह दी आपने .ये मनुष्य ही है जो अटका रहता है .चिड़िया के बच्चे उड़ जातें हैं अमरीकी बच्चों की तरह फिर हाथ नहीं आते .इधर भी निर्मोही उधर भी निर्मोही .माँ -बाप का दायित्व भी चुक जाता है .भारतीय माँ -बाप अजीब हैं बच्चों के बच्चों पर भी हक़ जतातें हैं अपने साँचें लिए फिरतें हैं आदर्शों के ,उपदेशों के कौन पूंछता है .भावों को छेड़ दिया अजित गुप्ताजी आपने अच्छा नहीं किया .नश्तरों को कुरेदना अच्छा नहीं होता .
ReplyDeleteshaayad har kisi ke man mein ye uthal puthal rahti hai...aapne shabd de diye.
ReplyDeleteवीरू भाई जी, आज न जाने कितने लाखों या करोड़ों लोगों के मन में ऐसे ही नश्तर चुभे हैं, हम एक दूसरे के नश्तरों की चुभन को कम कर सकें तो शायद दर्द को एक रास्ता मिल सकेगा। मेरे कारण आपकी भावनाएं दर्दमय बनी इसके लिए क्षमा चाहती हूँ।
ReplyDeleteप्राण वायु के बारे में बतियाता सुंदर आलेख| बधाई स्वीकार करें अजित गुप्ता जी|
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरक पोस्ट है और जब आदमी हताश हो तो ऐसे शब्द उसके लिये अमृ्त समान होते हैं\ मुझे आजकल इसी अमृ्त की जरूरत है। धन्यवाद अजित जी।
ReplyDeleteरोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है।
ReplyDeleteसूक्ष्म विवेचन |
धन्यवाद ||
पूरी की पूरी पोस्ट एक साथ पढ़ती चली गई - लगा आप कह रही हैं और मैं समझती जा रही हूँ ,
ReplyDeleteमन में उतर गई ,
आभार !
गुप्ता जी इस पोस्ट की आखिरी वाक्य ...दिल को छु गयी ! सब कुछ निहित है !प्रणाम !
ReplyDelete@ लेकिन इस बार ध्यान रखना कि सपनों की दुनिया बसाने का अब समय नहीं है, जो भी करना है ठोस धरातल पर खुली आँखों के सहारे करना है। रोज ही पीना है जहर और जब भी आत्मसात ना हो तब शब्दों के सहारे उन्हें उलट देना है।
ReplyDeleteअच्छा चिंतन, सुंदर विश्लेषण।
मन में गांठ बांधने से अच्छा है अभिव्यक्त कर देना।
ReplyDeleteमन में गांठ बांधने से अच्छा है अभिव्यक्त कर देना।
ReplyDeleteमीनाक्षी जी की बात से सहमत |
ReplyDeleteआपका सर्वश्रेष्ठ आलेख |