Saturday, March 26, 2011

नानी दवा खा लो



बाहर अमलताश फूल रहा है, नीम भी बौराया सा है, मन्‍द-मन्‍द समीर के साथ एक मदमाती गंध घर के अन्‍दर तक घुस आयी है। एक गहरे नि:श्‍वास के साथ उस गंध को अपने अन्‍दर समेटने का प्रयास करती हूँ, साथ ही एक नन्‍हीं सी गंध भी नथुनों में भर जाती है। कमरे में पंखा भी अभी ठण्‍डी हवा दे रहा है और इन सारी गंधों ने आँखों की पुतलियों को मदहोश सा कर दिया है। एक खुमारी सी छा गयी है सम्‍पूर्ण तन और मन में। अलसायी सी घड़ी में न जाने क्‍यों पैर अकुला से रहे हैं। जैसे-जैसे हाथों का स्‍पर्श पाते है, उनकी टीस बढ़ सी जाती है। मैंने हौले से पैरों से पूछ लिया कि क्‍यों टीसते हों? इतने आराम में भी यह कैसी टीस है? तभी कानों में एक गूँज गुनगुन कर जाती है नानी दवा ले लो।
मन झूम उठता है, अरे मिहू तुम कहाँ हो? नहीं कोई नहीं है और पैर टीसना चालू रखते हैं। तुम्‍हारे पीछे दौड़ते हुए तो मरे ये पैर कभी शिकायत नहीं करते थे? अभी दो घूंट पानी हलक के नीचे भी नहीं उतरा था कि तुम ठुमकती हुई आ जाती थी नानी सू सू आ रही है। मैं जानती थी कि सू सू का तो बस बहाना है, असल में तो कपड़े खुलवाने की मौज तुम्‍हारी आँखों में तैर रही होती थी। लेकिन यह ऐसा बहाना था कि जानकर भी दौड़कर उठना पड़ता था। तुम्‍हें जल्‍दी से सू सू कराना पड़ता था और वो क्षण? जैसे ही तुम कपड़ों के बंधनों से मुक्‍त हुई और कैसे तो दोनों पैरों को झुकाकर नाच उठती थी। तुम्‍हारी आँखें बोल रही होती थी कि देखो मेरी जीत हो गयी। मैं चड्डी लेकर तुम्‍हारे पीछे दौड़ती थी, कभी बोलती मिहू ------- चलो आओ। लेकिन तुम्‍हें तो मजा आ रहा होता मुझे नचाने में। फिर प्‍यार से बोलती मेरी चीयां आ जा, देख तू कितनी अच्‍छी है, बेटा कपड़े पहनते हैं। जब ये मुए पैर कभी भी इतराते नहीं थे, अहसास ही नहीं होता था कि ये हैं भी।
तुम्‍हारा एक नारा सबसे अनोखा था किचन में चलो। तुम गोद में अट जाती थी और किचेन में न जाने कितने दिन पहले छिपायी हुई चीज तुम्‍हें याद आ जाती थी। मैं खोजती ही रहती कि कहाँ है, लेकिन तुम बता देती कि फ्रिज के ऊपर छिपायी हुई है चाकलेट। अरे ये तो एक महिने पहले छिपायी थी, उसकी माँ बोल उठती। झट से पूरा डिब्‍बा ही मेरे हाथों से छीन लेती और फिर कितनी ही पीछे भागो लेकिन मजाल है जो डिब्‍बा छीन लो। भागना भी कितना होता है, आजकल के फ्‍लेटों में? यहाँ मेरे घर आती तो पता लगता इन इतराने वाले पैरों को? पूरे घर के कितने चक्‍कर लगा देती लगता कि एक बॉल खेलकर ही मानो दौड़कर दस रन बना लिए हों। कैसी अजीब-अजीब जिद थी तुम्‍हारी? बिस्किट खाने है, लो खा लो। नहीं दूध के साथ खाने है। अब दूध तो छंटाक भर और बिस्किट चार खा लिए गए। चम्‍मच में दूध भरा जाता और तुम टुकड़े तोड़-तोड़कर उसमें बिस्किट डालती और जैसे ही चम्‍मच को मुँह में डाला, बिस्किट सुड़ुप और दूध वहीं का वहीं। अरे अरे यह क्‍या है, चलो दूध भी पीओ। नहीं तो यह नन्‍हें पैर कैसे मजबूत होंगे? लेकिन दूध के नाम से तो उसकी आँखों के गोले घूम जाते और बहुत ही शरारती अदा के साथ दुध्‍धू बोलकर माँ के सामने देखती। माँ क्‍या करे, पूरे दो साल तक तो पिलाया है लेकिन दो महिने होने आए मोह छूटता ही नहीं। दूध पीना है तो केवल माँ का, बाकि तो फिर डे-केयर वाले ही पिला सकते हैं। यहाँ तो बस दूध पीने का केवल नाटक भर है। तभी उसकी छोटी-छोटी अंगुलियां घूम जाती और पोरों को गोल-गोल घुमाकर बोलती कि अंगूर। अरे अब बीच में ही अंगूर कहाँ आ गए?
चल उठती हूँ, फ्रिज में से एक गुच्‍छा अंगूर निकाला और उसने थाम लिए। देखा कि अरे अंगूर तो समाप्‍त होने वाले हैं, अब क्‍या करूं? यहाँ कॉलोनी में तो अंगूर मिलते नहीं, अब? मिहू के पापा तो लंदन गए हुए हैं और मैं यहाँ के रास्‍ते जानती नहीं। मम्‍मा भी ऑफिस है और उसके रास्‍ते में भी अंगूर नहीं मिलेंगे। सोच में पड़ जाती हूँ। दिन में जैसे ही उसे डे-केयर छोड़ती हूँ, दौड़कर सब्‍जी वाले की दुकान पर पहुँच जाती हूँ। यह सोचकर कि अंगूर नहीं तो तरबूज तो मिल ही जाएगा। पैरों का खून रेंगने लगता है, लगता है कि जैसे पंख लग गए हों, बस एक ही धुन है कि कैसे भी कुछ मिल जाए। जैसे ही सब्‍जी वाली थड़ी जैसी दुकान के पास जाती हूँ, तो एकदम सकते में! अरे दुकान ही नहीं है, लेकिन बस एक ही क्षण में आँखे बता देती हैं कि चिन्‍ता मत करो, यह दुकान उठकर सामने आ गयी है। नये अंदाज के साथ। जैसे ही दुकान के पास जाती हूँ, एक पेटी भर अंगूर रखे हैं, एकदम ताजा और बेस्‍ट। आह मन पुलकित हो जाता है, बस फटाफट एक किलो तुलवा लेती हूँ। फिर ध्‍यान आता है कि दुकानदारी का तकाजा है कि भाव जरूर पूछना चाहिए तो नियम सा निभाते हुए भाव भी पूछ लेती हूँ। अब मुझे आजतक ही किसी का भाव मालूम नहीं हुआ तो पूछकर भी क्‍या होगा? तभी ध्‍यान आया कि कल ही तो बेटी ने बताया था कि साठ रूपए किलो हैं। बस अब तो मन शेर हो गया। अरे अस्‍सी रूपए कैसे? माना अंगूर बहुत अच्‍छे हैं तो सत्तर ले लो। वो भी एकदम से ही मान गया। मानता भी क्‍यों नहीं, क्‍योंकि मैंने केवल अंगूर का ही तो भाव पूछा था, बस दस्‍तूर निभा दिया और बाकि सारे अन्‍य फल और सब्जियों को तो बेभाव ही खरीद लिया। लेकिन मैं खुश थी, मेरी मिहिका के लिए अंगूर और तरबूज मिल गये थे। आज पहली बार ही पैदल चलकर थैला लटकाकर सब्‍जी लेने जो गयी थी। तभी से पैर भी इठलाते रहते है और आज अकेले बैठे-बैठे न जाने क्‍यों टीस रहे हैं।
तभी फोन की घण्‍टी बज उठती है, भागकर फोन उठाती हूँ, उधर से मिहू बोल रही है, नानी दवा ले ली? बस इन पैरों में जैसे आयोडेक्‍स मल दिया हो, और उस आवाज के साथ ही पिण्‍डलियों की थकान फुर्र हो गयी। घड़ी में देखा छ: बज गए हैं, अरे यह समय तो मिहू को डे-केयर से लाने का होता है। जल्‍दी से तैयार होने लगती हूँ, लेकिन अरे पुणे से तो परसों ही वापस आ गयी थी! जैसे ही मैं डे-केयर जाती और एकदम चहक उठती नानी आ गयी। दिव्‍या बोलती कि मिहू नानी आयी हैं तो झट से प्रतिवाद कर देती, नहीं मेरी नानी है। बस जल्‍दी से जूते पैरों पर डाले और बिना अंगुली पकड़े ही दरवाते के बाहर दौड़ पड़ती। मैं पीछे भागती, अरे रूक, धीरे, गिर जाएगी तो लग जाएगा। लेकिन जब स्‍कूल की छुट्टी होती है तो बस भागने का ही भाव मन में आता है। लेकिन उसे तब घर नहीं जाना होता, वो दौड़ पड़ती पार्क की ओर। नन्‍हें-नन्‍हें दो साल के पैरों को लेकर झट से चढ़ जाती रिसट-पट्टी पर। मैं धीरे-धीरे ही कहती रहती। जैसे ही रिपसने को तैयार होती मैं दौड़कर नीचें रिपसती हुई उसे पकड़ लेती। कितने ही चक्‍कर कटा देती वो लेकिन तब ये पैर नहीं दुखते थे। पूरा एक घण्‍टा खेलकर ही घर जाने का नाम लेती। अब मम्‍मा के आने का भी समय हो जाता। लेकिन अभी दरवाजा खोला भी नहीं कि सामने वाला एक वर्षीय ऑरेक दिखायी दे गया। बस ऑरेक बेबी के साथ खेलना है। उसके खिलौनों के साथ खेलना जायज है लेकिन अपने खिलौने उसे देना गैरकानूनी सा है। पूरा कमरा खिलौनों से भरा पड़ा है लेकिन सब बेकार। सीडी और कम्‍प्‍यूटर का जमाना आ गया है। सीडी में कितनी पोयम है सारी ही याद हैं, और एक के बाद एक लगाते चलो, आप थककर चूर हो जाओ लेकिन उसकी और समाप्‍त नहीं होती।
आजकल पैदा होते ही एबीसीडी सिखा दी जाती है और साथ में वन टू थ्री। लेकिन अ आ इ ई का पता नहीं। मिहू पॉटी में बैठी है, बोल रही है कि एबीसीडी बोलो। मैंने कहा कि बोलों अ से अनार। उसे अचार का खूब शौक है तो बोली कि नहीं अ से अचार। अब मैंने अ से अचार और आ से आम ही सिखाना शुरू कर दिया। दो दिन बाद ही मम्‍मा को बता दिया कि अ से अचार और आ से आम, इ से इमली और ई से ईख। अरे यह कब सीख लिया, मम्‍मा एकदम से खुश हो गयी। बस लेकिन इन पैरों की सारी मशक्‍कत तो रात को होती जब कपड़े पहनने के लिए पलंग के चक्‍कर लगाने पड़ते और सुलाने के लिए न जाने कितनी लोरियां और गाने गाए जाते। अब एक लोरी तो बना दी उसके लिए टिमटिम टिमटिम तारे बोलें, निदियां चुपके जाना। लेकिन गाना तो ऐसे जैसे मरी बिल्‍ली के मुँह से आवाज निकले। उसका फरमाइशी प्रोग्राम चलता ही रहे। लेकिन यह अच्‍छी बात थी कि मैंने लोरी टूटी-फूटी या मरी बिल्‍ली की आवाज में रिकोर्ड कर दी थी तो बस वो चलती ही रहती। जैसे ही बन्‍द होती, उसकी आवाज आ जाती नानी टिमटिम तारे बोले। एक दिन तो एक नया प्रयोग ही कर डाला, गायत्री मंत्र बोलना शुरू किया अरे उसे तो वो भी याद था और बस झट से सुनकर सो गयी। दूसरे दिन भी बोली कि भूर्भव: सुनाओ।
लेकिन अब बस आराम ही आराम हैं, जब एक पैर पर खड़े होकर दौड़ लगानी पड़ रही थी तब ये नालायक कभी नहीं फड़फड़ाते थे लेकिन अब आराम में इन्‍हें अवसर मिल गया है। बस फोन की घण्‍टी पर ही कान लगे हैं कि कब आवाज सुनाई देगी नानी दवा खा लो। दवा भी कैसी, केलशियम और बुढापे में पैर जुड़ा नहीं जाए उसके लिए अमेरिका से एक दवा ले आयी थी, बस वो दो गोली रोज लेनी होती थी। अब रात का खाना खाकर गोली ले लेती थी लेकिन उसे तो मुझे याद दिलाना ही नहीं था बस हाथ पकडकर सूटकेस तक ले जाती और वहाँ से दवा की डिब्‍बी निकालती और फिर दवा को खुद गिनकर मेरे हाथ में रखती। कई बार तो मेरे मुँह में भी वो ही रखती। मैं उससे कहती कि अरे अभी खाना नहीं खाया है। लेकिन उसने कह दिया तो बस ले लो दवा। बड़ी मुश्किल से उसे मनाना पड़ता और उसका ध्‍यान हटाना पड़ता। लेकिन जैसे ही खाना होता उसे फिर ध्‍यान आ जाता और फिर वही नानी दवा खा लो
  

33 comments:

  1. बहुत संवेदनशील और सुन्दर प्रस्तुति...बच्चों के आगे पीछे भागने में कहाँ थकान होती है, जबकि अकेले में बैठे रहना भी थका देता है..बहुत सुन्दर शब्द चित्र..सब कुछ आँखों के सामने तैरने लगा..आभार

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  2. अब ज़माना ए बी सी डी का है, एक कव्वा प्यासा था... उड गया :)

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  3. अच्छी नानी, प्यारी नानी,
    रूठा-रूठी छोड़ दे,
    जल्दी से इक पैसा (आज के टाइम में शायद सौ रुपये) दे दे,
    तू कंजूसी छोड़ दे...

    नानी तेरे सारे टाइम को लेखन ले गया,
    बाकी जो बचा था वो ब्लॉगर ले गए...

    जय हिंद...

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  4. नानी दवा खा ली या नहीं ?? शुभकामनायें :-) !

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  5. कितना सुन्दर चित्र बना दिया आपके शब्दों ने। बच्चों को भगवान यूँ ही तो नहीं कहते।

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  6. हाँ, मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है.

    सुंदर प्रस्तुति....

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  7. Aah! Aapne to aankhon ko sawan bhado bana diya!

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  8. कित्ते प्यार से लिखा है..एक -एक शब्द से ममता छलकी पड़ रही है....हर पंक्ति दो बार पढ़ी....मिहू की सारी हरकतें आँखों के सामने सजीव हो उठीं....ऐसा होता है, नानी का प्यार...:)

    बस नानी और मिहू की एक प्यारी सी तस्वीर की दरकार थी.

    ये पोस्ट सहेज कर रखियेगा...जैसे ही समझने लायक होगी...उसे पढ़ कर सुनाइएगा...फिर वो किसी लोरी या कहानी की फरमाइश नहीं करेगी.....इसे ही बार-बार सुनाने को बोलेगी.
    मिहू को ढेर सारा प्यार.

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  9. हम भी यही कहेंगे,' नानी जी दवा ले लो। '
    -
    *
    बहुत अच्‍छा लगा आपका यह संस्‍मरण।

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  10. अ से आचार ...अ से अनार ...वाह वाह नानी माँ की अच्छी क्लास चल रही है..... बड़ी संवेदनशील पोस्ट है.... बच्चों के साथ कितना कुछ बदल जाता है....

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  11. मधुर अहसास की सुमधुर स्मृतियों का दौर...

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  12. बहुत सुंदर यादें हे जी... कितने भी थके हो लेकिन बच्चो के सामने सारी थकावट भाग जाती हे, बहुत सुंदर.. नानी दवा खा ली...

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  13. अच्‍छा संस्‍मरण।
    आंखों के सामने तैरने लगा सारा दृश्‍य।
    वैसे आप दवा ले लीजिए, मिहू का दुलार।

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  14. संवेदनशील और सुन्दर प्रस्तुति.

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  15. सुंदर, संवेदनशील प्रस्तुति.

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  16. बच्चों के साथ समय पता नहीं चलता, जीवन ऊर्जा से भर जाता है।

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  17. रश्मि रविजा जी, आप ने चित्र के लिए लिखा तो मुझे भी पोस्‍ट करते ही लगा की फोटो लगानी चाहिए थी लेकिन उसकी लेटेस्‍ट फोटो मेरे मोबाइल पर है और कोड नहीं है मेरे पास। आपका धन्‍यवाद।

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  18. खुशदीप जी, यह गाना तो न जाने कितनी बार गाना पड़ा था। उसे पता नहीं कितने तो याद हैं और उसकी फरमाइस समाप्‍त ही नहीं होती। रात को एक घण्‍टे तक विविध भारती का फरमाइशी प्रोग्राम चलता था।

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  19. अजीत जी ,

    पुणे की मीठी मीठी यादें यहाँ साझा करने के लिए आभार ...पैरों की टीस नहीं यह तो मन की टीस है जो मिहू को याद करते हुए हो रही है ...बच्चों के साथ बड़े भी बच्चे ही तो बन जाते हैं ...अ से अचार , आ से आम आखिर आप सिखा ही आयीं ...बहुत प्यारी पोस्ट है ..एक एक शब्द जैसे वहाँ के एक एक पल को जिया हुआ ..अब नानी दवा खाना तो भूल ही नहीं पाएंगी ..क्यों की कानो में अचानक आवाज़ आ जायेगी ..नानी दवा खा लो ..

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  20. .

    पुणे से वापस आने के बाद भी बहुत दिनों तक याद आती रहेगी वहां बिताये सुखद पलों की।

    मेरा बेटा कहता है --"दुनिया में सबसे अच्छी नानी हैं " --मैंने पूछा क्यूँ ? तो बोला - "जब मुझसे ग्लास टूट गया था , तो सबसे पहले नानी ने दौड़कर मुझे गोद में उठा लिया था , किसी की भी डांट पड़ने के पहले"

    .

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  21. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (28-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  22. अन्तर्मन के आन्दोलनों को साकार कर देती है।
    आभार

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  23. “नानी दवा खा लो”।

    jai baba banaras......

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  24. majedar hain mihoo ki baaten.....

    ham bachche bahut kaam ke hain....

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  25. agar mobile mae blue tooth haen to aap photo transfer kar saktee haen apnae laptop par

    agar mobile me email haen to photo apnae email par email karkae computer par download kar saktee haen


    mobile kaa data cable use karkae bhi phot transfer hosaktee haen

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  26. ऱचना जी मोबाइल पर तो ब्‍लूटुथ ह‍ै लेकिन इसके लिए लेपटॉप पर भी तो होना चाहिए, वो अभी मैंने चेक नहीं किया है और शायद उसमें नहीं है। पुरानी फोटो देखती हूँ या फिर बेटी से कहती हूँ।

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  27. अरे अजितजी
    आपने तो मेरी ही कहानी बयां कर दी |मै भी आजकल बेंगलोर में अपने डेढ़ वर्षीय पोते के साथ ,नानी तेरी मोरनी के साथ ,दादी अम्मा मान जाओ ,के साथ और सच गायत्री मंत्र के साथ ही सु ख के हिंडोले ले रही हूँ |
    और संयोग से अंगूर वाला वाकया भी मेरे साथ ही हुआ साथ में छोटे केले भी बिना भाव किये ही लेने पड़े |बस फर्क है की निमांश(पोता ) अभी बोलता नहीं है पर हाथ के इशारे से मेरी ऊँगली पकड़कर पूरे घर me घुमाता है |
    बहुत ही सुन्दर तरीके से आपने 'मिहू और नानी 'का प्यार बनता है |
    मेरी इस पोस्ट पर आपकी उपस्थिति चाहती हूँ |मिहू को प्यार |
    http://shobhanaonline.blogspot.com/2011_02_01_archive.html

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  28. जब नानी हो तो डे केयर कैसा !

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  29. itna jeevant lagasab kuch jaise swayam sakshee rahe ho . padkar aakhe bhar bhar aaee...........

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  30. 'nani nahi aata'
    ye jumla Samyak mujhe tab kahta tha jab mei uski laptop ki c d start nahi kar pati thi.aaj meri post gayab ho gayi to yad aa raha hei' nani nahi aata 'in baccho ki choti-choti baten kaise dil per asar karti hei,vastav mei mool se byaz pyara hota hei.

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