आज सुबह रश्मि रविजा जी से चेट पर मुलाकात हो गयी, पूछने लगी कि पुणे में कैसे बीत रही है? मैने कहा कि लग रहा है कि भगवान ने किसी ट्रेनिग पर भेजा है। आप लोग कहेंगे कि एक मॉं अगर अपनी बेटी के घर आकर रहे तो भला इसमें काहे की ट्रेनिंग? लेकिन आप को क्या बताएं, हमारी आपबीती? अब देखिए हम ठहरे छोटे शहर के लोग, हमारा दिन ही ठहराव के साथ शुरू होता है, खरामा खरामा। सुबह समाचारपत्र और टीवी के साथ हम पति-पत्नी बड़ी तसल्ली से चाय पीते हैं और फिर वे अपने क्लिनिक पर और हम अपने नेट पर। लेकिन पुणे जैसे महानगर में यह सम्भव नहीं है। यहॉं चाय पीने के लिए समय निकालना पड़ता है। शुरू के कुछ दिन तो मुझे चाय कभी 9 बजे तो कभी उसके भी बाद नसीब हुई लेकिन अब गणित समझ आने लगा है तो उठते ही सबसे पहले अपनी चाय का बंदोबस्त करती हूँ। यहॉं जल्दी उठना तो महज कल्पना ही है क्योंकि जल्दी सो जो नहीं सकते। अब जब चाय बनाने लगती हूँ तो सबसे पहले काम करने वाली से पूछ लेती हूँ कि चाय पीनी है? कभी तो वह आर्डर सा मारती हुई कह देती है कि हॉं बना लो, तब उसका आर्डर मारना भी चैन की सॉंस बन जाता है। मेरे यहॉं तो हमेशा मेरी कामवाली ही पूछती है कि चाय बनाऊं? लेकिन कोई बात नहीं यहॉं बड़ा शहर है तो कुछ तो बदलाव होगा ही ना? लेकिन यदि वह मना कर दे कि नहीं आज चाय नहीं पीनी है तब कई प्रश्न एक साथ मन में आने लगते हैं। नाराज तो नहीं हो गयी? मेरे पूछने में कहीं कोई गड़गड़ तो नहीं थी? आदि आदि। फिर पूछ ही लेती हूँ कि क्यों नहीं पीनी? तो वह बड़े ठसके के साथ कहती है कि आण्टी क्या है ना कि आजकल गर्मी हो गयी है तो ज्यादा चाय चलती नहीं है। वह नाराज नहीं है यह सोचकर भगवान को धन्यवाद देती हूँ। अब जैसे ही चाय बनाकर पीने लगती हूँ बेटी पूछ लेती है कि आपने मीरा की चाय नहीं बनायी? अरे भाई उसने मना किया था, क्या करूं?
मुझे पद्मा सचदेव की याद आ जाती है, उन्होंने एक उपन्यास लिखा "इन बिन", अरे नहीं समझे? इनके बिना याने कामवालों के बिना आप कितने अधूरे हैं। मुझे लगता है कि मैं तो दो-चार दिन में चले जाऊंगी लेकिन यदि मेरे किसी भी व्यवहार से इनकी नौकरानी भाग गयी तो बस भूचाल ही आ जाएगा। नौकरानी भी यदि स्थानीय हो तो समस्या अधिक है, क्योंकि वह दूसरे को भी नहीं आने देगी। फरमान जारी हो जाएंगा कि इनके यहॉं काम ज्यादा है कोई नहीं जाए। बस फिर क्या है आप लाख सर पटक लो क्या मजाल कोई आपके यहॉं काम कर ले। एक बात का ज्ञान और हुआ मुझे। ये आपकी परीक्षा भी ले लेती हैं कि आपमें कितना दम है? मैं यहॉं आयी ही थी कि दो-चार दिन बाद अचानक ही मेम साहब नहीं आयी। बेटी मेरा मिजाज जानती है उसने पडोस में कहा कि आप अपनी भेज देना, मम्मी को आदत नहीं है। अब मुझे लगा कि यहॉं कुछ सीख ही लेना चाहिए तो मैं डट गयी वाशबेसन पर बर्तनों के साथ। पडोस में भी मना कर दिया कि नहीं मैने ही सब कर लिया है। अब जब दूसरे दिन उसे मालूम पड़ा कि मैंने सारा काम कर लिया तो उसे लगा कि ये तो परेशान ही नहीं हुए। शायद मैं उसकी परीक्षा में पास हुई थी।
अब एक और है, केवल शाम के लिए खाना बनाने आता है। गिनकर रोटियां बनाता है यदि एक भी रोटी ज्यादा हो जाए तो आपका रिकोर्ड बिगड जाएगा। उसमें लिखा जाएगा कि इनके यहॉं मेहमान ज्यादा आते हैं। अब हमारे यहॉं तो रोज कोई भी टपक जाता है, कभी कोई शिकायत नहीं। हॉं हम भी पूरा ध्यान रखते हैं और बराबर से उसका हाथ काम में बंटाते हैं। थोड़ा भी काम ज्यादा हुआ नहीं कि अलग से पैसे दे देते हैं। पैसे तो यहॉं भी देने पड़ते हैं लेकिन काम उतना ही। अब उसे देखते ही मेरा डर फिर बाहर निकल आता है और उससे कहती हूँ कि भैया जितनी रोटी हमेशा बनाते हो उतनी ही बना लो और रही सब्जी की बात तो काट के रख दो मैं ही बना लूंगी। अब जब शाम को बेटी आती है तो कहती है कि आप उससे काम क्यों नहीं कराती? अब हम ठहरे छोटे शहर वाले अपनी इज्जत से बड़ा डर लगता है, क्योंकि और तो कुछ हमारे पास होता नहीं तो बस इज्जत को लेकर ही बैठे रहते हैं कि कोई यह ना कह दे कि उनके कारण हमारा नौकर छोड़कर चला गया।
अब आप सोच रहे होंगे कि हमने पहली पोस्ट में तो लिखा था कि महानगरों में नौकरों के सपने नहीं होते और अब आप लिख रही हो कि इनसे डरकर रहना पड़ता है। तो नौकर भी कई प्रकार के होते हैं। स्थानीय नौकरों की पूरी दादागिरी है और जो बाहर से आए हैं वे अपने बेहतर भविष्य के लिए चाहे सपने ना देखे लेकिन कामचोरी जरूर सीख लेते हैं। फिर जो लड़के हैं वे तो कमाई के जरिए ढूंढ ही लेंते हैं। यदि ये लोग सपने देखने लगें तो अच्छे मालिक और बुरे मालिक का अन्तर भी समझने लगेंगे और फिर इनके सपने भी पूरे होंगे। लेकिन ये तो बस चन्द पैसों के लिए ही जीते हैं। खैर मैं यहॉं नौकरों की मानसिकता से अधिक अपनी मानसिकता को लिख रही हूँ कि कैसे बदल गयी है यहॉं आकर। मुझे लगने लगा है कि मैं भी सुपर हाउस वाइफ में तब्दील होती जा रही हूँ। ना ज्यादा पोस्ट पढ़ पाती हूँ और ना ही टिप्पणी कर पाती हूँ। इसलिए जो हाउस-वाइफ रहकर ब्लागिंग की दुनिया में मजबूती के साथ डटी हुई हैं उन्हें मैं प्रणाम करती हूँ। यहॉं तो लग रहा है कि दिमाग शून्य हो चला है क्योंकि यहाँ घरों के अन्दर ही करण्ट है बाहर तो एकदम शान्ति रहती है। कहॉं से मिले नयी कहानी? चलो अब बन्द करती हूँ आप लोग बोर हो रहे होंगे। इतना पढ़ा उसके लिए आभार। अपनी नातिन के जलवों के बारे में अलग से लिखूंगी। बस अभी तो लहरों पर हूँ, जीवन का नया पाठ पढ़ रही हूँ। सोचा आप लोगों से ही सांझा कर लूं बाकि तो बात करने की किसी को फुर्सत नहीं है।
ma'm,
ReplyDeleteisi karan ham to apna kaam khud karte hai.
क्या सही खाका खींचा है आपने ... मज़ा आ गया . कामवाली के बारे में बताते हुए आपने कहा है कि आप पुणे आई हुई हैं , तो मैं भी यहीं हूँ ... आ जाइये मेरे पास , मैं बातें करुँगी
ReplyDeleteहर जगह हर समय हम तो सीखने के लिये पाठ तलाशते रहते हैं।
ReplyDeleteचलो अच्छा हुआ आपने अपने को उस शहर के (नौकरों के) हिसाब से ढाल लिया।
ReplyDeleteनातिन के बारे में लिखियेगा।
और रश्मि प्रभा जी से भी मिल आईये।
प्रणाम
घरेलू कामगारों की मनोस्थिति - जितना इन पर चिंतन करो उतने ज्ञानचक्षु खुलवा सकती हैं । हमारे परिवार में एक संकटकालीन समय में रोटी बनाने वाली आई और रोज सुबह आते ही पहला प्रश्न - कितनी रोटियों बनाना है ? बडा अजीबोगरीब अनुभव.
ReplyDeleteटिप्पणीपुराण और विवाह व्यवहार में- भाव, अभाव व प्रभाव की समानता.
lo di:) aapko do iss post ke through ek padosan bhi mil gayee.........rashmi di ke roop me!!
ReplyDeleteab kahna
khub jamega...
jab
mil baithenge
do chaar nahi sirf do.........:D
सही अनुभव है।
ReplyDeleteहमारी परिक्षाएं लेकर हमें परेशानीयों में डालकर असल में तो इस में खुश हो लेते है कि…"तुम सुधरेले से अपुन में ज्यादा होशीयारी है"
bahut badhiya post..padhkar majaa aa gayaa.
ReplyDeleteरश्मिप्रभा जी आपने फोन नम्बर तो दिया ही नहीं।
ReplyDeletebahut achchhi seekh milti hai
ReplyDeletebahut badhiya post..padhkar majaa aa gayaa.
अब यहाँ नहीं हंसूंगी....चैट पर ही कोटा पूरा कर लिया था :)
ReplyDeleteसचमुच सामंजस्य बिठाना बहुत कठिन होता है. यहाँ तो ज़िन्दगी भागती रहती है. उन हाउस वाईव्स का सोचिये...जिन्हें घर के काम के साथ...सब्जी-शॉपिंग के साथ ढेर सारे बिल भी जमा करने होते हैं...फिर फिल्म फ्रेंड्स...पार्टियां भी हैं..जैसे उनके लिए ४८ घंटे हों दिन के.:)
कामवालियों की तो खूब कही...वे कुछ चाय-नाश्ता कर लें...तो जी खुश हो जाता है...जैसे कोई अहसान किया हो,हम पर ...मैने एक पोस्ट लिखी थी इन पर....और वो अखबार में भी छपी थी
खुदा महफूज़ रखे इन्हें हर बला से,हर बला से
सही कहा आप ने कई बार बड़े शहरों में तो अपने घर वालो से भी ज्यादा इज्जत से इनसे बात करनी होती है घरवाले गलती करे तो उन्हें डांट भी सकते है पर इनके साथ तो वो भी नहीं कर सकते है |
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (17-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
bahut saral aur sundar bbaten batayeen ...bahut achcha laga.
ReplyDeleteकामवाली का तो बहुत ध्यान रखना पड़ता है जी ।
ReplyDeleteअगर ये बिगड़ जाएँ तो देश विकासशील देश से अविकसित देश में तब्दील हो जाए ।
लेकिन बड़े शहरों में तो कामवाली के न आने से सबसे ज्यादा गाज़ घरवाले पर पड़ती है । :)
बहुत कुछ याद दिला दिया आपने
ReplyDeleteपुणे में रश्मि प्रभा जी के साथ मिलकर एक ब्लोगर कम दोस्ताना मीटिंग करिए ! नया अनुभव होगा ...फिर इंतज़ार करेंगे एक प्यारी पोस्ट का ! शुभकामनायें !!
बहुत सच कहा है..महानगरों में कामवालियों के नखरे तो एक आम बात हैं..बहुत सुन्दर और रोचक ..आभार
ReplyDeleteye bhi tasveer ka dusra rukh hai janaab. aur aapki zindgi ke anubhavo me ek naya safa. maja aaya post padh kar.
ReplyDeleteआपके पास तो अमरीकी अनुभव भी है..हा ह
ReplyDeleteछोटी जगह ही भली.
ReplyDeleteबाप रे लगता हे यह कामवालिया नही हम इन के काम करने वाले हे..... बहुत रोचक, लेकिन हमरी रेखा बहुत अच्छी थी, कितनी रोटियां सब्जी बनवा लो कोई दिक्कत नही, बस बेचारी के पास समय कम था, क्यो वो कोई मेरे पक्की काम करने वाली नही थी, फ़िर भी समय निकाल कर मेरे लिये खाना बना देती थी.
ReplyDeleteबडे शहर के बडे तेवर... कामवाली के नखरे भी झेलना पड़ता है :)
ReplyDeleteआपका अवलोकन बहुत सुंदर और संवेदनशीलता का पुट लिए होता है हर बार :)
ReplyDelete-----------
सच में 'इन ' के बिना यानि की कामवाली या कामवालों के बिना महानगरीय जीवन अधूरा हो जायेगा.... ये लोग तो परिवारों की धुरी बन गए हैं.... मुंबई में ऐसा देखा है....
अइसाईच होता बई,
ReplyDeleteकाय म्हणते ,नौकर आहे पण पूरा ठसका !
इनके ठसके उठाने से अच्छा लगता है काम खुद ही कर लेना ...वैसे भी राजस्थानियों को अपना काम स्वयं करने की ही आदत ज्यादा होती है , कोई विशेष मजबूरी ना हो तो ...
ReplyDeleteपुणे में ब्लॉगर मीट कर ही लीजिये ...रश्मि प्रभा जी से मिलना जरुर अच्छा लगेगा !
:):) बड़ा सूक्ष्म अवलोकन कर डाला काम वालियों का ...बड़े शहरों की बड़ी बातें ...वैसे काम वालियां हर जगह एक सी ही पायी जाती हैं .
ReplyDeleteवक्त के थपेडो से विचारों में थोड़ा बहुत बदलाव आना स्वभाविक है |
ReplyDeleteजिंदगी का हर पल नया सीख देता है।
ReplyDeleteअच्छा संस्मरण।
हमें इंतजार रहेगा आपकी नातिन के किस्सों का।
शुभकामनाएं आपको।
रश्मि जी से मिल आईए और इस मुलाकात पर भी एक पोस्ट हो जाए।
धटनाओं को गहनता से परखने की दृष्टि है…
ReplyDeleteनिरामिष: शाकाहार : दयालु मानसिकता प्रेरक
ना ना, बोर नहीं हुए।
ReplyDeleteबढिया लग रहा है।
sukshm avlokan kar dala hai :) vaise pune badhiya jagah hai ..rashmi prabha di se milin ya nahi?
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteजिंदगी का हर पल नया सीख देता है।
ReplyDeleteअच्छा संस्मरण। धन्यवाद|
अजित जी, ये सुबह चाय न मिलना तो मेरी भी समस्या है...पत्नीश्री स्नान, पूजा-पाठ करने के बाद ही मेरे साथ सुबह की चाय पीती है...अब वो इन कामों में लगी रहती है और मैं चाय के लिए कुढ़ता रहता हूं...खुद ठहरा महाआलसी जीव और ऊपर से ब्लॉगिंग का रोग...इसलिए चाहते हुए भी खुद चाय न बनाना अपनी शान का हिस्सा समझता हूं...खैर छोड़िए ये चाय-पुराण...आज तो बस...
ReplyDeleteतन रंग लो जी आज मन रंग लो,
तन रंग लो,
खेलो,खेलो उमंग भरे रंग,
प्यार के ले लो...
खुशियों के रंगों से आपकी होली सराबोर रहे...
जय हिंद...
होली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं। ईश्वर से यही कामना है कि यह पर्व आपके मन के अवगुणों को जला कर भस्म कर जाए और आपके जीवन में खुशियों के रंग बिखराए।
ReplyDeleteआइए इस शुभ अवसर पर वृक्षों को असामयिक मौत से बचाएं तथा अनजाने में होने वाले पाप से लोगों को अवगत कराएं।
कल ही हमारी भौजी दो घंटे तक काम वालियों को घर घर मस्का लगाती रही। तब भी नहीं आई। अगर वह खुद ही लग जाती तो 10 मिनट का काम था।
ReplyDeleteसही कहा है आपने।
होली की शुभकामनाएं
आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeletesahi kaha hai aapne ...mushkil to hota hai par nibhana hi padta hai .
ReplyDeleteआप को रंगों के पर्व होली की बहुत बहुत शुभकामनायें ..
रंगों का ये उत्सव आप के जीवन में अपार खुशियों के रंग भर दे..
इनकी जबरदस्त यूनियन है आजकल । इनके नखरे नहीं उठाये तो तुरंत नाराज़ हो जाते हैं । गरज अपनी है , ख्याल रख लेने में ही भलाई है।
ReplyDeleteसोचने को मजबूर कर दिया आपने।
ReplyDeleteहोली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
धर्म की क्रान्तिकारी व्या ख्याa।
समाज के विकास के लिए स्त्रियों में जागरूकता जरूरी।
बहुत ही सुन्दर कहा अपने बहुत सी अच्छे लगे आपके विचार
ReplyDeleteफुर्सत मिले तो अप्प मेरे ब्लॉग पे भी पधारिये
मै भी बेंगलोर में रहते हुए बराबर कुछ भी नया नहीं लिख प् रही हूँ पहले मैंने आपकी नानी वाली पोस्ट पढ़ी लगा आपने मेरी कहानी बयां कर दी पर ये पोस्ट तो उससे भी अपनी लगी यहाँ के लोकल काम वालो से तंग आकर अब इंदौर से ही मेरी हमउम्र की" आई" को ले आये है भले ही उनसे काम ज्यादा नहीं बनता किन्तु मुझे उनसे और उनको मुझसे संबल तो मिलता है |
ReplyDeleteकुछ दिन पहले जील ने मौन अच्छा या संवाद उसपर एक पोस्ट मौन के विरोध में लिखी थी किन्तु काम वालो के साथ मौन कितना" सार्थक "है ये मैंने अब -अब जाना है |
क्योकि इंदौर में तो सब आपने ही होते है अकेले होते है तो सारी बाते उन्ही से होती है और लेखन को भी गति मिलती है |