एक दूसरे को समझने की ललक मनुष्य में हमेशा ही रहती है, बल्कि कभी-कभी तो अन्दर तक झांकने की चाहत जन्म ले लेती है। लेखन ऐसा क्षेत्र है जहाँ हम लेखक के विचारों से आत्मसात होते हैं तो यह लालसा भी जन्म लेने लगती है कि इसका व्यक्तित्व कैसा होगा? आज से लगभग 6 वर्ष पूर्व नेट पर हिन्दी कविता संग्रह नामक एक समूह से परिचय आया, लेकिन ज्यादा लम्बा साथ नहीं रह पाया। इसके बाद हिन्दी भारत समूह के साथ कविता वाचक्नवी जी से परिचय हुआ, मात्र परिचय ही। ब्लाग के बारे में मेरी तब तक कोई विशेष जानकारी नहीं थी। आज से लगभग 3 वर्ष पूर्व मेरे पास एक फोन आया, नम्बर अमेरिका का था और अपरिचित था। सामने से एक मधुर आवाज सुनायी दी और उन्होंने कहा कि आपका “मधुमती” में सम्पादकीय पढ़ा और मैं आपकी हो गयी। सामने फोन पर मृदुल कीर्ति जी थी। उसके बाद उनसे बात का सिलसिला चल पड़ा और उन्होंने हिन्दयुग्म के पोडकास्ट कवि सम्मेलन के बारे में बताया। पोडकास्ट सुनते हुए एक दिन अकस्मात ही एक बटन दब गया और सामने था कि अपना ब्लाग बनाएं। जैसे-जैसे निर्देश थे मैं करती चले गयी और एक ब्लाग तैयार था। लेकिन पोस्ट कैसे लिखते हैं और कैसे लोग इसे पढ़ते हैं, कुछ पता नहीं था। कविता जी से बात हुई, उन्होंने बताया कि इसे चिठ्ठा जगत और चिठ्ठा चर्चा के साथ इस प्रकार जोड़ लें। मैंने उनके निर्देशानुसार अपना ब्लाग जोड़ लिया। जोड़ते ही टिप्पणियां आ गयी और हम हो गए एकदम खुश। धीरे-धीरे पोस्ट लिखने का और टिप्पणी करने का सिलसिला आगे बढ़ा। लेकिन किसी को भी प्रत्यक्ष रूप से नहीं जानने का मलाल मन में रहता था। कविता जी से कई बार फोन पर बात भी हुई और उनके बारे में जिज्ञासा ने जन्म भी लिया।
अचानक ही वर्धा में ब्लागिंग की कार्यशाला में जाने का अवसर मिल गया और तब लगा कि चलो कुछ लोगों से परिचय होगा। सिद्धार्थ जी से भी हिन्दी भारत समूह के कारण परिचय हुआ था। वे भी बड़े अधिकारी हैं इतना ही मुझे पता था। जब तय हो गया कि वर्धा जाना ही है तो एक दिन सिद्धार्थ जी से पूछ लिया कि कौन-कौन आ रहे हैं? मुझे तब तक मालूम हो चुका था कि इन दिनों कविता जी भारत में हैं। तो मेरी उत्सुकता उनके बारे में ही अधिक थी। सिद्धार्थ जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि वे तो एक सप्ताह पहले ही आ जाएंगी। साथ में उन्होंने बताया कि श्री ॠषभ देव जी भी आएंगे। ॠषभ जी को मैं ब्लाग पर पढ़ती रही हूँ और उनके लेखन की गम्भीरता से भी वाकिफ हूँ। एक और नाम बताया गया वो नाम था अनिता कुमार जी का। यह नाम मेरे लिए अपरिचित था तो मैं तत्काल ही उनके ब्लाग पर गयी तो वहाँ कुछ भजन लगे हुए थे। एक छवि बन गयी।
अब हम वर्धा में फादर कामिल बुल्के छात्रावास के सामने थे और हमारे सामने थे सिद्धार्थ जी। सिद्धार्थ जी को एक सलाह कि वे अपने ब्लाग पर तुरन्त ही अपना फोटो बदलें। इतने सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी का ऐसा फोटो? किस से खिचवा लिया जी? हम चाहे कैसे भी हो, लेकिन फोटो तो अच्छा ही लगाते हैं। लेकिन अभी तो कई आश्चर्य हमारे सामने आने शेष थे। सामने से जय कुमार जी आ गए, वही जी ओनेस्टी वाले। सारी कार्यशाला में इतना बतियाते रहे कि लगा कि कोई शैतान बच्चा कक्षा में आ गया है। भाई हमने तो आपकी और ही छवि बना रखी थी। दिमाग पर इतनी जल्दी-जल्दी झटके लग रहे थे कि सामने ही अनिता कुमार जी दिखायी दे गयी। बोली कि मैं अनिता कुमार। अब बताओ क्या व्यक्तित्व है, एकदम धांसू सा और ब्लाग पर लगा रही हैं भजन? हमारे दिमाग की तो ऐसी तैसी हो गयी ना।
लेकिन हमें तो मिलने की उत्सुकता थी सर्वाधिक कविता जी से, तो सामने ही कुर्सी पर बैठी थी, हमने झट से उन्हें पहचान लिया। भाई उनके बालो का एक स्टाइल जो है। बहुत ही आत्मीयता से मिलन हुआ और खुशी जब ज्यादा हो गयी तब मालूम हुआ कि हम एक ही कक्ष में रहने वाले हैं। कविता जी पूरे समय जिस तरह चहचहाती रहीं उससे लग ही नहीं रहा था कि मेरे कल्पना की कविता जी हैं। मेरा संकोच एकदम से फुर्र हो गया। कुछ देर बाद ॠषभ देव जी से भी सामना हो गया और मैंने अपना आगे बढ़कर परिचय कराया तो वे बड़ी सहजता से बोले कि मैं तो आपको जानता हूँ। दो दिन तक कई बार उनके साथ बैठना हुआ और लगा कि ब्लाग से निकलकर कोई दूसरा ही व्यक्तित्व सामने आ गया है। या उस परिसर का ही ऐसा कमाल होगा कि सभी लोग अपनी गम्भीरता को बिसरा चुके थे। बहुत ही आत्मीयता और बहुत ही सहजता।
अब बात सुनिए सुरेश चिपनूलकर जी की, अरे क्या छवि बना रखी है? खैर अब शायद उन्होंने ब्लाग की फोटो तो बदली कर दी है, ऐसा कहीं पढ़ा था। मजेदार बात तो यह है कि वे स्वयं फोटोग्राफर है और ऐसी फोटो? उन्हें शायद पहले देख लिया होता तो उनके गम्भीर आलेखों पर इतनी गम्भीरता से विश्वास ही नहीं किया होता। कहने का तात्पर्य है कि एकदम युवा, सुदर्शन और हँसते रहना वाला व्यक्तित्व। बात चली है तो अनूप शुक्ल जी की हो ही जाए। मेरा उनसे परिचय नहीं था, लेकिन वहाँ देखकर मुझे वे एक जिन्दादिल इंसान लगे। प्रवीण पण्ड्या जी के लिए बताया गया कि वे कल आएंगे। खैर वे आए और फिर दिमाग की बत्ती लप-झप करने लगी। इतने युवा? लेकिन कठिनाई यह है कि उनका लेखन इतना परिपक्व है कि उन्हें तुम से सम्बोधित करने का साहस नहीं हो रहा।
मुझे लगता था कि ब्लाग जगत में युवा कम हैं लेकिन यह क्या? यहाँ तो जिसे देखो वो ही युवा है, ऐसा लगा कि मैं ही सबसे अधिक बुजुर्ग हूँ। एक और दिलचस्प व्यक्तित्व – यशवन्त। रात को आलोक धन्वा जी कहीं घूमकर आए थे उनके साथ यशवन्त भी थे। आलोक जी बड़े प्यार से कहने लगे कि तुम कुछ खाना खा लो। यशवन्त बोले कि नहीं मुझे नहीं खाना। स्नेहिल पिता की तरह ही वे फिर बोले कि अरे तुमने कुछ नहीं खाया है, जाकर कुछ तो ले लो। लेकिन यह क्या, यशवन्त जी उठे और सीधे ही आलोक जी के चरणों में ढोक लगा दी, कि मुझे नहीं खाना। कुछ देर बाद ही यशवन्त गाने के मूड में थे और अपनी धुन में राग छेड़ रहे थे। मुझे लगा कि इस नवयुवक के अन्दर जितना तेज है उसे अभी मार्ग नहीं मिल रहा है उद्घाटित करने का। निश्चित रूप से यह एक क्रान्ति लाएगा। फिर भी मुझे मलाल रहा कि मैं काश उसे और समझ पाती।
इसी कड़ी में एक और नाम है संजय बेंगाणी जी का। वे बोले कि मेरा बेटा मुझसे लम्बा निकल चुका है। भाई क्या बात है? इतनी सी उम्र अभी लग रही है और ये तो इतने बड़े बेटे की भी बात कर रहे हैं? ऐसे ही युवा हस्ताक्षरों में विवेक सिंह, हर्षवर्द्धन जी और गायत्री थे। बस थोड़ा-थोड़ा ही परिचय आया। संजीत त्रिपाठी और डॉ. महेश सिन्हा जी तो स्टेशन से ही साथ थे तो पहला परिचय उन्हीं से आया। अविनाश वाचस्पति जी रविन्द्र प्रभात जी अपने काम की धुन वाले व्यक्ति लगे। और हाँ जाकिर अली रजनीश और शैलेष भारतवासी की बात को कैसे भूल सकती हूँ, जाकिर अली जी के ब्लाग को तो मैं साँप की छवि से ही जानती थी और शैलेष तो हिन्दयुग्म के कारण पूर्व परिचित थे। दोनों ही एकदम शान्त स्वभाव के लग रहे थे, लेकिन जो शान्त दिखते हैं उनमें उर्जा बहुत होती है। प्रियंकर पालीवाल जी और अशोक मिश्र जी से पहला परिचय था तो अभी उनके बारे में लिखने में असमर्थ हूँ। अब बात करें रचना त्रिपाठी की। मैं तो एक ही बात कहूंगी कि ऐसी पत्नी सभी को मिल जाए तो इस देश में न जाने कितने सिद्धार्थ सिद्ध हो जाएं। समय बहुत कम था, इसलिए अभी जानना और समझना बहुत शेष है। यह तो आगाज भर था, लेकिन अब ब्लाग पढ़ते समय अलग ही भाव आने लगे हैं। इसलिए जितने भी सक्रिय ब्लागर हैं उनसे और मिल लें तब देखिए ब्लागिंग का आनन्द और ही कुछ होगा। मैंने आप सबके बारे में जाना हो सकता है कि मेरे बारे में भी कोई राय बनी होगी? तो सुनो साथियों, राय कैसी भी बना लेना बस स्नेह बनाए रखना। हम इस ब्लाग जगत में नए विचारों से अवगत होने आए हैं तो आप लोगों से मिलकर अच्छा लग रहा है और नवीन विचार भी जान रहे हैं।
इस सुखद अनुभव को बाँटने के लिए धन्यवाद!
ReplyDelete--
विजयादशमी की शुभकामनाएँ!
बढिया रिपोर्ट के लिए बधाई॥
ReplyDeleteबहुत अच्छी रिपोर्ट। लगा आपके साथ सारे दृष्य साकार हो गए। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteसर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोsस्तु ते॥
विजयादशमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
काव्यशास्त्र
बहुत सुंदर लगा आप का यह विवरण, चलिये अब रोहतक का भी प्रोगराम बना ले यहां भी आप को बहुत सारे नये पुराने ब्लांगर मिलेगे, ओर रोअहत तो आप से नजदीक होगा, धन्यवाद
ReplyDeleteविजयादशमी की बहुत बहुत बधाई
आपका सौभाग्य रहा कि आपने इतने अधिक ब्लॉगरों के इतने निकट से देखा है। आपसे विस्तृत चर्चा करने का सपना शीघ्र ही पूरा करना है।
ReplyDeleteब्लोगर साथियों से मिलने का जो सुख है वह सच में बेजोड होता है. भले ही आप सम्मलेन में सबसे एक ही जगह पर मिली हों पर अगर किसी के घर/दफ्तर में भी मुलकात हो तो भी परस्पर संतुष्टिदायक होती है.
ReplyDeleteवैसे इस ब्लॉगर सम्मलेन को मैं इस तरह से सफल मानता हूँ की कम से कम एक मंच तो है सबसे मिलकर एक जगह बैठ कर इस 'virtual' दुनिया के बाहर एक सचमुच की दुनिया में जाने का...
मनोज
राज भाटिया जी, आपके आमंत्रण का आभार। कोशिश जरूर रहेगी रोहतक आने की, लेकिन अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। पहले आप तिथियां फिक्स कर लें फिर विचार बनाते हैं।
ReplyDeleteब्लोगिंग का यह रूप सबसे सुन्दर है कि नए नए लोगों से मधुर सम्बन्ध बन जाते हैं ।
ReplyDeleteवर्धा मिलन का वृतांत पढ़कर अच्छा लगा ।
इस सुखद अनुभव को बाँटने के लिए धन्यवाद--विजयादशमी की शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteबढिया रपट.
ReplyDeleteविजयादशमी की अनन्त शुभकामनाएं.
वाकई ब्लॉगरों से मिलना एक अलग ही तरह का अनुभव होता है, मानसिक धरातल से बिल्कुल सामने
ReplyDeleteअजित जी
ReplyDeleteअच्छी ली रपट यही तो मुदिता की यादें हैं जो अंकित रहतीं हैं बरसों बरस मानस पर
अब जैसे भी हैं हम, आपके सामने हैं. दुराव कोई नहीं - न ब्लॉग पर, न मुलाकात में.
ReplyDeleteयह जानकर स्वयं को भाग्यशाली महसूसा कि - अरे, हमसे भी मिलने की चाह इतने महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों के मन में थी!
आपसे मिलकर बेहद अच्छा लगा - लगना ही था.
अजित जी
ReplyDeleteअच्छी ली रपट यही तो है "मुदिता की यादें" हैं जो अंकित रहतीं हैं बरसों बरस मानस पर
बहुत अच्छी लगी आपकी यह रिपोर्ट |
ReplyDeleteविजयादशमी की शुभकामनाएं!
ReplyDeleteअच्छी रिपोर्ट रही, आभार.
ReplyDeleteअजित गुप्ता जी ,
ReplyDeleteदशहरे की बहुत बहुत शुभकामनायें !
पहली पंक्ति ने ही मन मोह लिया - 'एक दूसरे को समझने की ललक मनुष्य में हमेशा ही रहती है'
वाह-वाह अजित जी क्या बात कही आपने.....अच्छी लगी आपकी क्लास...आपसे मिलकर मैं ही नहीं बल्कि सभी ब्लोगर बेहद खुश थे और उसका कारण था आपका यही अपनापन...एक शानदार व्यक्तित्व की मालकिन हैं आप .....
ReplyDeleteसंस्मरण और प्रस्तुतिकरण लाजवाब! बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteबेटी .......प्यारी सी धुन
अति विस्तृत, फिर भी संक्षिप्त सी लगी यह रिपोर्ट. रोचक इतनी कि कब ख़तम हो गयी पता ही न चला. सभी से परिचय भी करा डाला, पलक झपकते ही...........
ReplyDeleteहार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
अनुभव को बाँटने के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही बढिया अनुभव रहा आपका तो……………इसी प्रकार जान पहचान बढती है हम एक दूसरे को जान पाते हैं।
ReplyDeleteचलो हम पढ़ कर ही सब को जान लेते हैं अच्छी लगी ये पोस्ट
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा अवसर, और इस सुखद अनुभव को हम सबके बीच बांटा आपकी इस पोस्ट ने, और आपके माध्यम से हमें भी जानने का अनुभ्ाव मिला, धन्यवाद ।
ReplyDeleteआपके अनुभवों से हम भी कुछ सीखेंगे।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर विवरण..
ReplyDeleteआपके ब्लॉग शुरू करने की कथा भी जानी...
bdhiya raha aap sab se milna, aapne mann ke bhaavo ko badhiya prastut kiya hai yahan
ReplyDeleteअजित जी,
ReplyDeleteआपने कितने स्नेह व अपनत्व से इसे लिखा है, उसे इन पंक्तियों के पीछे से पढ़ने का यत्न कर रही हूँ. गद गद तो हूँ ही कि आप की स्नेहपात्र हूँ.
मेरे लिए आपके जाने के बाद वह कक्ष जैसे नितांत सूना-सा हो गया था. मुझे स्वयं आपसे मिलने की इतनी ही उत्कंठा थी.... और कैसे इस संयोग ने इसे पूरा किया! अब हम शीघ्र ही पुनः मिलेंगे... आशा की जानी चाहिए.. :) .
और हाँ, आप तो भूल ही गईं कि ब्लॉग बनाने की प्रक्रिया से काफी पूर्व हिन्दी-भारत ( http://groups.yahoo.com/group/HINDI-BHARAT/ )
में आपके सम्मिलित होते ही हिन्दी-भारत पर ( http://hindibharat.blogspot.com/2008/11/blog-post_05.html )
) आपका चित्रकूट का यात्रावृतांत समूह पर भी सबको कितना रुचा था.
खूब लिखने वालों के लिए अपना लिख बिसर जाना स्वाभाविक है.. परन्तु मुझे तो वह गुप्त गोदावरी अभी तक स्मरण है.
मूर्ति तो आपकी भी टूटी कि आप भी पुरानी सखियों-सा बहनापा भर गईं प्राणों में.
प्रेम बनाए रखिएगा.
इस रिपोर्ट से बहुत जानकारियाँ मिली .
ReplyDeleteब्लाग्ज़ का महत्व तो प्रतिपादित हुआ ही ,परस्पर विकसित होनेवाले स्नेह-सौहार्द और आपसी समझ ने हम अलग-थलग पड़े दूरस्थ जनों को भी अपनी लपेट में ले लिया .
विश्वास है व्यावहारिक मान-मूल्य विकसित होने की प्रक्रिया आगे चलेगी और संवाद तथा संचार के क्षेत्र में इस जनतांत्रिक विधा की हलचल ने लोगों कान खड़े कर दिये होंगे .
जिनके नाम भर सुने थे उन्हें और उनके विषय में जानना बहुत अच्छा लगा .
आप सब को बहुत-बहुत बधाई ,
साथ ही हमारे लिए यह सब प्रस्तुत करने के लिए आभार.
अजित मेम
ReplyDeleteप्रणाम !
इंसान को कही ना कही से कोई ना कोई प्रेरणा मिलती ही है बस उसे लेने वाला चाहिए जैसे आप ने लिया . शायाद ना आप को पोड कास्ट के लिए फ़ोन आता और ना आप के दोमाग में अपने ब्लॉग कि आती , मगर आप ने उस अवसर का भरपूर उपयोग किया , मेम , वैसे हम भी '' मधु मति ' को हाथ में लेते ही आप पृष्ठ ही प्रथम खोते थे कि इस बार आप ने क्या लिखा है .. असी ही इच्छा ब्लॉग पे रहती है हां देर सवेर अवश्य होती है , साधुवाद
सादर 1
कविता जी
ReplyDeleteआपको गुप्त गोदावरी का स्मरण रहा। आपकी स्मरण शक्ति की तो मैं वर्धा में ही कायल हो चुकी हूँ। असल में आप सभी से अपनत्व रखती हैं इसलिए स्मरण भी रहता है और सबकी आत्मीय भी बन जाती हैं, काश हम में भी ऐसे कुछ गुण आते?
सुनील गज्जाणी जी
ReplyDeleteआप मधुमती में मेरे सम्पादकीय चाव से पढ़ते रहे हैं इस प्रेम को आप यहाँ ब्लागिंग में भी बनाए रखना चाहते हैं यह मेरे लिए सुखद बात है। मन करता है कि कभी वैसे ही लिखा जाए लेकिन ब्लागिंग में लेखन कुछ अलग प्रकार का होता है फिर भी कोशिश करती हूँ कि सार्थक लिखा जाए।
बहुत-बहुत बधाई अजित जी। इस सुंदर वर्णन के लिए। आपकी बात पढ़कर मेरा भी मन किसी कार्यशाला में जाने का हो रहा है। इस बार कहीं हो तो बताइएगा।
ReplyDeleteआपके लेख से मानो हम सब को नज़दीक से जान पाए. अब जब कभी मिलना हुआ तो आपकी ये बाते दिमाग में रहेंगी और पहले से ही तैयार रहेंगे उसी इमेज के साथ मिलने के लिए.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति.
शुक्रिया.
अच्छा लगा अन्य ब्लागरों को आपकी नज़र से देखना.
ReplyDeleteमैं वर्धा संगोष्ठी की सुखानुभूति से बाहर नहीं निकल पा रहा हूँ। ...निकलना भी नहीं चाहता शायद।
ReplyDeleteअभिभूत हूँ।
और हाँ, मेरी कोई फोटो अच्छी नहीं आती शायद। प्रोफ़ाइल वाली तो स्टूडियो में परिवार के साथ खिचवायी थी। बाद में उसको क्रॉप करके लगा लिया। फिर खोजता हूँ कोई..।
ReplyDeleteाजित सी एक हफ्ते से कम्प्यूटर खराब था इस लिये देर से पढ पाई । आपके संस्मरण पढ कर खुशी हुयी। ये तस्वीरें भी कई बार अनर्थ कर देती हैं जैसे मैने आपकी पहली तस्वीर देख कर छवी बनाई थी लेकिन साक्षात आपको देखा तो आप पर मोहित हो गयी। शुभकामनायें।
ReplyDeleteआज प्रथम बार आया हूँ आपके ब्लॉग पर... मेरी यात्रा सार्थक हुई। अब तो बार-बार आता ही रहूँगा यहाँ।
ReplyDeleteI liked this report.Thanks a lot.
ReplyDeleteThere is an article on the blog of Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya , Wardha ‘ Hindi-Vishwa’ of RajKishore entitled ज्योतिबा फुले का रास्ता ..Article ends with the line.....दलित समाज में भी अब दहेज प्रथा और स्त्रियों पर पारिवारिक नियंत्रण की बुराई शुरू हो गई है…. Ab Rajkishore ji se koi poonche ki kya Rajkishore Chahte hai ki dalit striyan Parivatik Niyantran se Mukt ho kar Sex aur enjoyment ke liye freely available hoon jaisa pahle hota tha..Kya Rajkishore Wardha mein dalit Callgirls ki factory chalana chahte hain… besharmi ki had hai … really he is mentally sick and frustrated ……V N Rai Ke Chinal Culture Ki Jai Ho !!!
ReplyDeleteआज महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय , वर्धा के हिन्दी-विश्व ब्लॉग ‘हिन्दी-विश्व’ पर ‘तथाकथित विचारक’ राजकिशोर का एक लेख आया है...क्या पवित्र है क्या अपवित्र ....राजकिशोर लिखते हैं....
ReplyDeleteअगर सार्वजनिक संस्थाएं मैली हो चुकी हैं या वहां पुण्य के बदले पाप होता है, तो सिर्फ इससे इन संस्थाओं की मूल पवित्रता कैसे नष्ट हो सकती है? जब हम इन्हें अपवित्र मानने लगते हैं, तब इस बात की संभावना ही खत्म हो जाती है कि कभी इनका उद्धार हो सकता है .....
क्या राजकिशोर जैसे लेखक को इतनी जानकारी नहीं है कि पवित्रता और अपवित्रता आस्था से जुड़ी होती है और नितांत व्यक्तिगत होती है. क्या राजकिशोर आस्था के नाम पर पेशाब मिला हुआ गंगा जल पी लेंगे.. राजकिशोर जी ! नैतिकता के बारे में प्रवचन देने से पहले खुद नैतिक बनिए तभी आप समाज में नैतिकता के बारे में प्रवचन देने के अधिकारी हैं ईमानदारी को किसी तरह के सर्टिफिकेट की आवश्यकता नहीं पड़ती. आप लगातार किसी की आस्था और विश्वास पर चोट करते रहेंगे तो आपको कोई कैसे और कब तक स्वीकार करेगा ......महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय , वर्धा को अयोग्य, अक्षम, निकम्मे, फ्रॉड और भ्रष्ट लोग चला रहे हैं....मुश्किल यह है कि अपवित्र ही सबसे ज़्यादा पवित्रता की बकवास करता है.......
प्रीति कृष्ण
हथियारों से रूबरू हो आएं
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉगिंग के एक सेमिनार में शामिल ब्लॉगरों के हथियारों की झलक
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के ब्लॉग हिन्दी-विश्व पर २ पोस्ट आई हैं.-हिंदी प्रदेश की संस्थाएं: निर्माण और ध्वंस और गांधी ने पत्रकारिता को बनाया परिवर्तन का हथियार .इन दोनों में इतनी ग़लतियाँ हैं कि लगता है यह किसी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का ब्लॉग ना हो कर किसी प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे का ब्लॉग हो ! हिंदी प्रदेश की संस्थाएं: निर्माण और ध्वंस पोस्ट में - विश्वविद्यालय,उद्बोधन,संस्थओं,रहीं,(इलाहबाद),(इलाहबाद) ,प्रश्न , टिपण्णी जैसी अशुद्धियाँ हैं ! गांधी ने पत्रकारिता को बनाया परिवर्तन का हथियार- गिरिराज किशोर पोस्ट में विश्वविद्यालय, उद्बोधन,पत्नी,कस्तूरबाजी,शारला एक्ट,विश्व,विश्वविद्यालय,साहित्यहकार जैसे अशुद्ध शब्द भरे हैं ! अंधों के द्वारा छीनाल संस्कृति के तहत चलाए जा रहे किसी ब्लॉग में इससे ज़्यादा शुद्धि की उम्मीद भी नहीं की जा सकती ! सुअर की खाल से रेशम का पर्स नहीं बनाया जा सकता ! इस ब्लॉग की फ्रॉड मॉडरेटर प्रीति सागर से इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं की जा सकती !
ReplyDeleteमहात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के ब्लॉग हिन्दी-विश्व पर २ पोस्ट आई हैं.-हिंदी प्रदेश की संस्थाएं: निर्माण और ध्वंस और गांधी ने पत्रकारिता को बनाया परिवर्तन का हथियार .इन दोनों में इतनी ग़लतियाँ हैं कि लगता है यह किसी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का ब्लॉग ना हो कर किसी प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे का ब्लॉग हो ! हिंदी प्रदेश की संस्थाएं: निर्माण और ध्वंस पोस्ट में - विश्वविद्यालय,उद्बोधन,संस्थओं,रहीं,(इलाहबाद),(इलाहबाद) ,प्रश्न , टिपण्णी जैसी अशुद्धियाँ हैं ! गांधी ने पत्रकारिता को बनाया परिवर्तन का हथियार- गिरिराज किशोर पोस्ट में विश्वविद्यालय, उद्बोधन,पत्नी,कस्तूरबाजी,शारला एक्ट,विश्व,विश्वविद्यालय,साहित्यहकार जैसे अशुद्ध शब्द भरे हैं ! अंधों के द्वारा छीनाल संस्कृति के तहत चलाए जा रहे किसी ब्लॉग में इससे ज़्यादा शुद्धि की उम्मीद भी नहीं की जा सकती ! सुअर की खाल से रेशम का पर्स नहीं बनाया जा सकता ! इस ब्लॉग की फ्रॉड मॉडरेटर प्रीति सागर से इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं की जा सकती !
ReplyDeleteमहात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा के ब्लॉग हिन्दी-विश्व पर २६ फ़रवरी को राजकिशोर की तीन कविताएँ आई हैं --निगाह , नाता और करनी ! कथ्य , भाषा और प्रस्तुति तीनों स्तरों पर यह तीनों ही बेहद घटिया , अधकचरी ,सड़क छाप और बाजारू स्तर की कविताएँ हैं ! राजकिशोर के लेख भी बिखराव से भरे रहे हैं ...कभी वो हिन्दी-विश्व पर कहते हैं कि उन्होने आज तक कोई कुलपति नहीं देखा है तो कभी वेलिनटाइन डे पर प्रेम की व्याख्या करते हैं ...कभी किसी औपचारिक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करते हुए कहते हैं कि सब सज कर ऐसे आए थे कि जैसे किसी स्वयंवर में भाग लेने आए हैं .. ऐसा लगता है कि ‘ कितने बिस्तरों में कितनी बार’ की अपने परिवार की छीनाल संस्कृति का उनके लेखन पर बेहद गहरा प्रभाव है . विश्वविद्यालय के बारे में लिखते हुए वो किसी स्तरहीन भांड से ज़्यादा नहीं लगते हैं ..ना तो उनके लेखन में कोई विषय की गहराई है और ना ही भाषा में कोई प्रभावोत्पादकता ..प्रस्तुति में भी बेहद बिखराव है...राजकिशोर को पहले हरप्रीत कौर जैसी छात्राओं से लिखना सीखना चाहिए...प्रीति सागर का स्तर तो राजकिशोर से भी गया गुजरा है...उसने तो इस ब्लॉग की ऐसी की तैसी कर रखी है..उसे ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’ की छीनाल संस्कृति से फ़ुर्सत मिले तब तो वो ब्लॉग की सामग्री को देखेगी . २५ फ़रवरी को ‘ संवेदना कि मुद्रास्फीति’ शीर्षक से रेणु कुमारी की कविता ब्लॉग पर आई है..उसमें कविता जैसा कुछ नहीं है और सबसे बड़ा तमाशा यह कि कविता का शीर्षक तक सही नहीं है..वर्धा के छीनाल संस्कृति के किसी अंधे को यह नहीं दिखा कि कविता का सही शीर्षक –‘संवेदना की मुद्रास्फीति’ होना चाहिए न कि ‘संवेदना कि मुद्रास्फीति’ ....नीचे से ऊपर तक पूरी कुएँ में ही भांग है .... छिनालों और भांडों को वेलिनटाइन डे से फ़ुर्सत मिले तब तो वो गुणवत्ता के बारे में सोचेंगे ...वैसे आप सुअर की खाल से रेशम का पर्स कैसे बनाएँगे ....हिन्दी के नाम पर इन बेशर्मों को झेलना है ..यह सब हमारी व्यवस्था की नाजायज़ औलाद हैं..झेलना ही होगा इन्हें …..
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