Sunday, September 26, 2010

क्‍या आप विश्‍वसनीय हैं? बचपन के इस “प्रश्‍न” को आज मैंने अलविदा कह दिया है – अजित गुप्‍ता


क्‍या आप विश्‍वसनीय हैं? यह प्रश्‍न मेरे आसपास हमेशा खड़ा हुआ रहता है। कभी पीछा ही नहीं छोड़ता। बचपन से लेकर प्रस्‍थान के नजदीक भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है। कभी पिताजी पूछ लेते थे कि तुम विश्‍वसनीय संतान हो? उनके पूछने का तरीका भी नायाब था, ठोक बजाकर देखते थे और फिर पूछते थे कि जिन्‍दगी भर ऐसे ही ठुकते पिटते रहने की काबिलियत है ना तुम में? उस समय रोने की भी मनायी थी, बस यही कहते थे कि पूरा प्रयास करेंगे कि आप जैसे महान पिता की तुच्‍छ सी संतान बनकर दुनिया में रहें। कुछ और बड़े हुए तो पति  की जेब से भी यही प्रश्‍न निकल आया। मैंने कहा, लो यह साला यहाँ भी उपस्थित है। एकदम सीधा-सादा सा जीवन जीने वाले हम से यह होस्‍टल में रहने वाला भी आज प्रश्‍न पूछने वाला हो गया? कई बार तो मन करता कि इस प्रश्‍न को ही एक कोने में ले जाकर धो डाले। फिर सोचते कि बेचारा यह तो केवल दूत है, इसका क्‍या कसूर? इसको तो जैसे रटाया गया है वैसे ही यह हमारे सामने बोल रहा है। खैर हमने प्रोबेशन पीरियड भी सफलता पूर्वक पास कर लिया। आप गलत मत समझे, यह सरकारी नौकरी वाला दो साल का प्रोबेशन पीरियड नहीं था। कानून भी कहता है कि सात साल तक ढंग से रहो तो केस वेस नहीं लगेगा। खैर हमें भी कई साल लगे इस प्रश्‍न को भगाने में।
हमने यही पढ़ा था और यही सभी विद्वान लोगों के मुँह से सुना था कि दोस्‍ती के बीच में यह प्रश्‍न नहीं आता। तो हमने सोचा कि दुनिया में दोस्‍त ही बनाए जाएं। लोग हमारी पर्सनेलिटी देखकर शक करने लगते और यह पठ्ठा प्रश्‍न चुपके से उनके ऊपर वाली जेब में जा बैठता। लोग हमारे चारों तरफ देखते और पूछते कि तुम्‍हारे में ऐसा क्‍या है जो तुमसे दोस्‍ती करें? तुमसे हमें क्‍या मिलेगा? हमारे पास तो कुछ भी नहीं हैं, अब? हम कहते कि हम तुम्‍हारा हर घड़ी में साथ निभाएंगे। तो प्रश्‍न उछलकर बाहर आ जाता कि कैसे विश्‍वास करें? अब विश्‍वास तो कैसे दिलाएं? जमानत देनी हो तो मकान वगैरह गिरवी रख सकते थे लेकिन विश्‍वास की जमानत तो कोई देता भी नहीं। हमने सोचा कि नहीं हम तो अकेले ही भले। लेकिन अकेले रहो तो यह नामुराद सारे जगत में ढिंढोरा पीट आता कि इन पर कोई विश्‍वास ही नहीं करता। हम ने भगवान का सहारा लिया, हर आदमी यही करता है तो ह‍मने भी एकदम से फोकट के इस फार्मूले को आजमाया। करना तो कुछ पड़ता नहीं, बस हाथ ही तो जोड़ने होते हैं कि हे भगवान, हमें भी ऐसा बना कि लोग हम पर विश्‍वास करें। आप ताज्‍जुब करेंगे कि भगवान ने हमारी दूसरी तरह से सुन ली। अब हमें ऐसा पद दे दिया कि आपको भ्रम बना रहे कि आपके पास बहुत सारे लोग हैं। उन्‍हें विश्‍वास का सर्टिफिकेट नहीं चाहिए था बस उन्‍हें तो अपना काम चाहिए था। हमें लगा कि ईमानदारी से इनका काम करना चाहिए जिससे यह नालायक प्रश्‍न मुझसे हमेशा के लिए दूर चला जाए। लेकिन भगवान भी तो केवल हाथ जोड़ने से इतना ही देता है। उसने एक और मुसीबत खड़ी कर दी। हमें लगने लगा कि हमें भी पूजा अर्चना करके प्रसाद वगैरह चढ़ाना चाहिए था। लेकिन यह तो अपनी फितरत में ही नहीं तो क्‍या करते? अब तो केवल भुगतना ही था। कुछ लोगों ने देखा कि यह तो विश्‍वास कायम करने का काम कर रही है, तो जितने भी अस्‍त्र-शस्‍त्र उनके पास थे सारे ही आजमा लिये। उस प्रश्‍न नामके जीव को भी अखबार में ला बिठाया। बोले कि अब बताओ, हम तुम्‍हारी विश्‍वसनीयता की तो ऐसी होली जलाएंगे कि तुम क्‍या तुम्‍हारी सात पुश्‍तें भी दुबारा कभी यहाँ नहीं दिखायी दे। हमने कहा कि यह तो लफड़ा फँस गया, इस प्रश्‍न नामक जीव को सबक सिखाने हम यहाँ आए थे उल्‍टे हमारे अस्तित्‍व पर ही संकट पैदा हो गया। मन ने कहा कि डरना नहीं, डटे रहो, जंती में से निकलकर ही सोने को गढ़ा जाता है। खैर भगवान ने हमारी सुनी और हमें वापस अपने जीवन में लौटा दिया। लेकिन लोगों में डर बैठ गया कि यह वापस ना आ जाए। तो दे दनादन, दे दनादन, गोलियों की बरसात अभी तक चालू है। और यह हमारा हितैषी प्रश्‍न दूर खड़ा हुआ मुस्‍करा रहा है  और पूछ रहा है कि बोलो तुम कितने विश्‍वसनीय हो?
अब हम क्‍या करते? हमने ब्‍लागिंग का सहारा लिया और सोचा कि यहाँ तो विश्‍वास नाम की कोई चीज की आवश्‍यकता ही नहीं तो बचपन से पीछा कर रहा यह प्रश्‍न हमारे कम्‍प्‍यूटर में नहीं घुसेगा। हमें भी आनन्‍द आने लगा, कि कहीं भी जाकर कुछ भी लिख आओ ना कोई विश्‍वास की आवश्‍यकता और ना कोई ईर्ष्‍या की गुंजाइश। हम बहुत खुश रहने लगे कि इस प्रश्‍न से तो पीछा छूटा। लेकिन नहीं जी यह साला वापस निकल आया है, हम से तो फिर लोग पूछने लगे हैं कि क्‍या तुम विश्‍वसनीय हो? किसी अन्‍य गुट के सदस्‍य तो नहीं हो? जासूसी करने तो हमारे गुट में नहीं आ बैठे हो? आदि आदि। इसलिए आज सोचा कि ऐसे तो यह प्रश्‍न पीछा नहीं छोड़गा तो अब हम यह कह दें और सार्वजनिक रूप से हम बता दें कि भाई हम तो विश्‍वसनीय नहीं हैं। अब बेटा प्रश्‍न बता कि तू मेरे पास रहेगा या किसी और को तलाशेगा? जब अमिताभ बच्‍चन तक हीरो से विलेन बन गए तो तुम भी क्‍यों नहीं बन जाते विलेन? अब हम भी विलेन का ही रोल करेंगे। अब देख रही हूँ इस पोस्‍ट को लिखने के बाद यह मेरा बचपन का साथी प्रश्‍न मुझ से बिछड़कर कह रहा है कि तुम्‍हारे साथ अच्‍छे से रहता था अब देखो कौन मिलता है साथी? अलविदा मेरे दोस्‍त, तुमने खूब साथ निभाया। अब तुम सब के पास जाओ और बारी-बारी से सभी से पूछो यही प्रश्‍न कि क्‍या आप विश्‍वसनीय हैं?  

42 comments:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    कहानी ऐसे बनी– 5, छोड़ झार मुझे डूबन दे !, राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें

    ReplyDelete
  2. बहुत ही बढ़िया प्रश्न .. क्या आप विश्वनीय हैं ??

    मैं तो अभी इसी प्रोसेस में हूँ, यह प्रश्न तो शायद सारी ज़िंदगी यूहीं मुह बाये खड़ा मिलेगा..

    मनोज खत्री

    ReplyDelete
  3. यह प्रश्न खुद से करके ,उत्तर दीजिये और मस्त रहिये , काहे की चिंता ?

    ReplyDelete
  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  5. जो स्वयं के प्रति विश्वसनीय है वही औरों के प्रति भी होगा।

    ReplyDelete
  6. क्यों उलझे इस प्रश्न में? विश्वास को परखने के लिए कोई पारस पत्थर तो नहीं कि उस पर रगड़ कर उसकी परीक्षा से साबित कर सकें. हमें सिर्फ अपनी आत्मा के प्रति जबावदेह होना चाहिए बस.

    ReplyDelete
  7. कभी कभी लगता है कि हम पर लोंग विश्वास नहीं कर रहे ...लेकिन लोगों की बात को छोड़ हमें स्वयं पर विश्वास होना ज़रूरी है ...अब तो वैसे भी आपने तो इस प्रश्न से पीछा छुडा ही लिया है ...

    ReplyDelete
  8. अजित जी,
    आप विश्वसनीयता यानि भरोसे का सवाल कर रही हैं...मेरी नज़र में ये भरोसा ही तो होता है जब आप एक छोटे से बच्चे को हवा में उछालते हैं तो उसके चेहरे पर डर नहीं मुस्कान आती है...क्योंकि उसे पता है कि आपके हाथ उसका इंतज़ार कर रहे हैं...और वो कभी मिस नहीं करेंगे...इसलिए अजित जी आपके विचारों को जो जानते हैं, उनको आप पर ऐसा ही भरोसा है...

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  9. सच में ममा ....विश्वास दिलाना तो बहोत ही मुश्किल काम है....

    ReplyDelete
  10. अगर किसी की आंखों के भाव हमारे मन में विश्वसनीयता का प्रश्न छोड़ जाते हैं...

    भाड़ में जाएं सब...

    या फिर अपनी सैद्धांतिकी और व्यवहार को जांचने की तुरंत जरूरत है...

    बेहतर बात....

    ReplyDelete
  11. सच लिखा...तमाम उम्र एक सीधा साधा इंसान दूसरों को विश्वास दिलाने में ही लगा रहता है और इस प्रोसस्सिंग में खुद को ना जाने कितनी बार दुखी करता है...और उस पर तुर्रा ये की लोग फिर भी अविश्वास की नज़र से देखते हैं...और ये इंसान फिर भी अपनी साफ्गोही देता है विश्वास दिलाने की कोशिश करता ही रहता है...आज आपकी पोस्ट से ये मार्गदर्शन मिल गया की भाड़ में जाये विश्वास....तो लो भैया ..हम तो हैं ही नहीं विश्वास लायक....कल्लो क्या करते हो....हाँ नहीं तो....:):):)
    लगता है आप और मैं एक ही प्रश्न से जूझ रहे थे अब तक....लेकिन अब नहीं.
    शुक्रिया..इस गुरु ज्ञान के लिए.
    आपकी दक्षिणा तैयार है.
    हा.हा.हा.

    ReplyDelete
  12. सच ही कहा है आपने अब मैंने भी किसी को भी सफाई देना बंद कर दिया है.जो मन को सही लगे वही करती हूँ. कई बार गलत भी हो जाती हूँ तो दूसरों को सफाई देने की जगह आत्मविश्लेषण करती हूँ की कहाँ क्या गलत हुआ और आगे से ऐसा न हो इसका ध्यान रखूंगी. ये विचार कर फिर दुगने उत्साह से आगे बढ़ती हूँ

    ReplyDelete
  13. जब हम अन्य लोगो पर विशवास करेगे तो हम पर सभी विसवास करेगे, तो यह तो बहुत् कठिन है, आप ने तो उलझण मै डाल दिया....

    ReplyDelete
  14. बहुत सही लिखा पर इस अंतर्दंध से निकलने की भी जरुरत है.

    ReplyDelete
  15. क्या आप विश्वशनीय हैं ? मेरे ख्याल से यह सवाल पूछने का नहीं , समझने का है । ज़वाब हाँ या न में होने से क्या किसी का विश्वास किया जा सकता है ?

    ReplyDelete
  16. खुद से पूछने और मंथन करने का प्रश्न है..वैसे आज यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है..जाँचने और समझने का प्रश्न है आज की दुनिया में..बढ़िया आलेख.

    ReplyDelete
  17. ... पर आज के दौर में विश्वास करने पर दुख ही हाथ लगता है... हर एक की दुम उठा कर देखी, हर एक को मादा पाया :)

    ReplyDelete
  18. दिल की बात कह दूँ ... एक दम साफ़
    पुराने जमाने की बात :
    राम और कृष्ण पर [पुरुष होते हुए ] भी "ऐसे वैसे लोगो" ने भी कहाँ यकीन दिखाया ??
    मॉडर्न हिसाब की बात :
    जब विलयम हाकिंग्स ने इश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं दिखाया [जो की पहले दिखाया था ] तो भी लोग उस पर यकीन करते हैं [और इश्वर पर नहीं ]
    तो हमारी क्या बिसात है ??

    फिर भी इसे देखिये और खुश हो लीजिये

    http://www.youtube.com/watch?v=CMmCkJBUnKs

    अच्छा हुआ जो इस फालतू प्रश्न को अलविदा कह दिया :)

    बेहतरीन पोस्ट :)

    ReplyDelete
  19. विश्वास और अविश्वास के इस झूले में झूलने से कहीं बेहतर है कि इस सवाल को ही दरकिनार कर दिया जाए....जो कि आप कर ही चुकी हैं..

    ReplyDelete
  20. इस मामले को आपने इतना लम्बा तान दिया की अब विश्वसनीयता खुद आपसे मुंह चुरायेगी ... : :)
    रही बात अंतर्जाल /ब्लाग्जाल (वाग्जाल ) की तो यहाँ विश्वसनीयता .राम भजो ....अपने तीन साल के ब्लॉग नारकीय जीवन में एक एक धोखे बाजों को देखा ...और देखते जा रहे हैं ..
    अब आपको क्या बताएं -आपने भी एक ज़माना देखा है -जहां विश्वास होगा ,वहीं विश्वासघात भी होने की गुंजाईश रहेगी ..
    आपका तो रिकार्ड ही पूरी तरह साफ़ लग रहा है -न रहा बांस और न बजी कोई रणभेरी ...
    मगर अब कुछ दाल में काला दिख रहा है ,.किसी को जरूर अप पर विश्वास हुआ लग रहा है :)

    ReplyDelete
  21. मन में है विश्वास
    पूरा है विश्वास
    हम होंगे कामयाब एक दिन
    क्या मै विश्वसनीय हूँ ???
    ये तो ऐसा ही हुआ गुलाब पूछे क्या मुझमे खुशबू है ?

    ReplyDelete
  22. पुनश्च :
    मैं तो दुखिया ही रह गया संसार में -कितने विश्वासघात सहे हैं ..छाती छलनी हो चुकी है !
    लेकिन खुद कोई कह भर देता है की मेरा विश्वास कीजिये -तत्क्षण उस पर विश्वास की छत्रछ्या लगा देता हूँ ....

    ReplyDelete
  23. भरोसा...विश्वास.... आज के युग में यूं तो अपनी अपनी सुविधा से तय किये जाते हैं. पर इससे इतर भी इस भरोसे शब्द का एक सुनिश्चित मुकाम है. अगर किसी ने शिद्दत से कभी किसी पर भरोसा किया हो तो वो ही इसका मर्म जानता है. बहुत ही सुंदरतम और सहज स्वाभाविक आलेख.

    रामराम.

    ReplyDelete
  24. अजीत जी,
    आपने बचपन के प्रश्न को अलविदा कह दिया है।
    ठीक किया है।
    बस इसके लिए इतना ही कहना चाहुंगा।

    "होईहें वही जेही राम रचि राखा।
    को करि तरक बढावहीं शाखा॥"

    ReplyDelete
  25. प्रश्न तो बिखरे हुए चहुँ ओर हैं!
    किन्तु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!
    --
    आपने अच्छा ही किया
    कि बचपन के प्रश्न को अलविदा कह दिया!

    ReplyDelete
  26. .
    .
    .
    "इसलिए आज सोचा कि ऐसे तो यह प्रश्‍न पीछा नहीं छोड़गा तो अब हम यह कह दें और सार्वजनिक रूप से हम बता दें कि भाई हम तो विश्‍वसनीय नहीं हैं।"

    चलिये आपने आज कहा, हम तो पहले से ही खम ठोक कह चुके हैं कि हम विश्वसनीय नहीं हैं...रमते जोगी और बहते पानी का क्या भरोसा... ;))


    ...

    ReplyDelete
  27. ऐसे प्रश्न पूछने वाला स्वयं को ही सांत्वना दे रहा होता है।
    हमारी ब्रांच में एक पेमेंट लेते समय ग्राहक खजांची महोदय से पूछ रहा था, "नोट ठीक हैं न सारे?"
    अब जिसने नोट गलत देने हैं वो यह कह देगा कि नहीं तीन नोट नकली हैं और दो नोट फ़टे हुये हैं?"
    अच्छा किया आपने गुडबाय कह दिया इस "प्रश्न" को।

    ReplyDelete
  28. सच में इस प्रश्न को मैं भी काफी दिनों से फेंकने के प्रयास में हूं। कई बार सोचा जाए बाड़ में। लोगो के कुछ समझने से में बदल नहीं जाउंगा, जो हूं वही रहूंगा। हालांकि इस प्रश्न को विदा करने का नतीजा ये हुआ कि कई रास्ते रुक गए। लोगो का एक ही नजरिया होता है जो अमेरिका का होता है यानि आप हमारे साथ नहीं हो तो दुश्मन के साथ हो। खैर इस प्रश्न से छुटकारा पाना आसान तो नहीं होता, कहीं न कहीं किसी न किसी मोड़ पर सालों बाद ही सही, साला तंग करने के लिए आ ही जाता है।

    ReplyDelete
  29. बहुत कुछ हैं इस विषय पर कहने को मगर ज्यादा तूल नहीं देने की अपनी आदत के कारण इतना ही कहूँगी कि दूसरों से विश्वसनीय बनने की उम्मीद रखने की बजाय खुद ही विश्वसनीय हो जाना चाहिए ..कई बार आप अपनी सरलता में ऐसा कुछ कह या कर जाते हैं जो किसी के लिए विश्वासघात हो सकता है ,
    आभासी और वास्तविक जीवन में विश्वास टूटने के बहुत से कारण मौजूद हैं मगर फिर भी ये विश्वास है कि फिर -फिर से विश्वास करता है ..
    सबसे बेहतर है कि दूसरों की बजाय खुद पर ही विश्वास किया जाए ...
    अनामिका जी का कहना कि हम तो नहीं है विश्वसनीय ...कर लो क्या करना है ...ये भी ठीक है ...!
    अच्छा विश्लेषण है ...!

    ReplyDelete
  30. आप सभी चौंक गए होंगे मेरी इस पोस्‍ट से। असल में यह प्रश्‍न ब्‍लागजगत की उठापटक से निकलकर आया। हम सभी में से एक ने मित्रता बढ़ाने के नाते हमसे पूछ लिया कि यहाँ ब्‍लाग जगत में तो लोग दोहरा चरित्र रखते हैं तो क्‍या आप विश्‍वसीन हैं, मित्रता के लिए? बस हमारी सटक गयी। बहुत दिमाग और दिल दोनों ने ही मंथन किया कि हम यहाँ एकदम सीधे-सादे जिन्‍दगी जी रहे हैं फिर भी यह प्रश्‍न यहाँ भी उपस्थित हो गया। तब हमने सार्वजनिक ऐलान कर दिया कि भाई इस प्रश्‍न के चक्‍कर में पड़ोंगे तो मित्रता नहीं कर सकते इसलिए हम तो अविश्‍वसनीय हैं, जँचे जैसा करो। फिर आप सभी ने बता ही दिया है कि पहले स्‍वयं पर विश्‍वास करो तो अपने आप दूसरे पर विश्‍वास हो जाता है। वैसे मुझे ब्‍लाग जगत से कोई शिकायत नहीं है। सभी में एक विचार है और विचारों की भिन्‍नता से ही समाज बनता है। आप सभी ने मुझे पढ़ा इसके लिए आभार।

    ReplyDelete
  31. हमारे लिये तो आप विश्वस्नीय हैं। खुशदीप का जवाब बिलकुल सही है। बस ैन्सान को खुद पर भरोसा होना चाहिये। उस प्रश्न से कहें तुम जितनी मर्जी कोशिश कर लो मेरा विश्वास नही गिरा सकते। दुनिया ने तो राम को नही छोडा फिर हम और आप क्या हैं। वैसे भी अच्छाई को दुनिया कब जीने देती है जीता वही है जिसने खुद पर विश्वास किया। वो आपमे है तभी तो आप हमारे सामने है। मै तो आपको पहली बार देखते ही फिदा हो गयी थी क्या नूर है क्या आत्मविश्वास है आपके चेहरे पर । बधाई और शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  32. प्रवीण भाई की बात दोहराता हूँ:

    जो स्वयं के प्रति विश्वसनीय है वही औरों के प्रति भी होगा

    ReplyDelete
  33. .

    आभासी हो या रियल दुनिया, अपनी तो आदत सी हो गयी है , लोगों पर अंध-विश्वास करने की। जिससे भी मिली आज तक , विश्वास कर लिया। हर किसी ने मेरे विश्वास का यथा संभव मान भी रखा। अफ़सोस इस बात का है की मानव क्षमताएं लिमिटेड हैं। एक हद के आगे मनुष्य असहाय हो जाता है, वो चाहकर विश्वसनीय नहीं रह जाता। क्यूंकि यही हरी-इच्छा है। जगत के रचयिता ने कुछ सोचकर ही मानव स्वभाव ऐसा बनाया है। हर व्यक्ति यथासंभव, इमानदार , विश्वसनीय और मददगार बन कर ही जीना चाहता है । समय एवं परिस्थितियाँ अक्सर विवश कर देती हैं।

    बिना पूछे विश्वास कर लीजिये। यकीन मानिए विश्वास फलता है।

    विश्वास करने का सुख बहुत बार चखा है। हर बाद सुखद अनुभव ही हुआ है।

    आभार।

    .

    ReplyDelete
  34. sach me jo apne prati viswasniya hoga wo auron ke prati bhi hoga.......


    achchhi prastuti.....

    ReplyDelete
  35. प्रश्न से आँख-मिचौली का खेल बहुत पसंद आया. आपके इस संस्मरण का अंदाज़ काफी हटकर था. पढ़कर कुछ अलग-सा 'चित्रात्मक-सुख' मिला.

    ReplyDelete
  36. कविता का एक अंश
    आपके भावों को शब्द दे रहा है :

    करो पहले खुद पर विश्वास
    तभी करना हम पर परकाश.
    कौन-से जीवन पर तम का
    हुआ बैठा देखें आवास.

    नहीं तुमको जीने की चाह
    हमें ना मरने की परवाह
    देखते हैं सच्चा आनंद
    कौन पायेगा उर की थाह.

    >>>>>>>>>>> शेष अभी याद नहीं आ रहा.
    शायद यह सब विषयांतर हो, लेकिन मैं आपके
    अनुभवों को अपनी शब्दावली में समझकर आनंदित हो रहा हूँ.

    ReplyDelete
  37. प्रतुल जी, यह आपकी कविता है क्‍या? वैसे इसके कुछ शब्‍द कामायनी से मिलते हैं तो अच्‍छी लग रही है।

    ReplyDelete
  38. जी मेडम, पूरी कभी अपने ब्लॉग पर दूँगा. इतना ऊँची तुलना न करें. मेरे तो साधारण से शब्द ही तो हैं. मैं इन्हें अक्सर गुनगुनाता भी हूँ.

    ReplyDelete
  39. ज़िन्दगी भी बार बार यही सवाल करती है इंसान से ।

    ReplyDelete
  40. ajit mem
    namaskaar !

    ''sach tum kya ho
    jo kahi kise se jodte ho
    to kahi kise se todte bhi ho
    sach tumhe ek pershan ho ''
    saadar

    ReplyDelete
  41. ..बढ़िया आलेख!
    बहुत ही बढ़िया प्रश्न!क्या आप विश्वनीय हैं ?
    हमें स्वयं पर विश्वास होना ज़रूरी है ...

    ReplyDelete