अमेरिका में पिछले डेढ़ महिने से हूँ, इसके पहले भी आना हुआ था। यहाँ आने पर न जाने क्यों मुझे तन और मन में संघर्ष सा दिखायी देता है। हो सकता है कि मेरा सोच ही सही नहीं हो, या मेरा नजरियां ही आत्मकेन्द्रित हो। इसलिए ही यह पोस्ट लिख रही हूँ कि मैं समझ सकूं कि अधिकांश लोग कैसे सोचते हैं? अभी कुछ दिन पूर्व las vegas और disney land जाना हुआ था, सारा दिन तरह-तरह की राइड्स की सैर करने में ही निकल जाता था। खौफनाक, हैरतअंगेज करने वाली राइड्स। बचपन में जब झूले में बैठते थे तब रोमांच होता था, जैसे ही नीचे उतरे समाप्तर। फिर रोमांच पाने के लिए लाइन में लग जाते थे लेकिन झूले से उतरते ही रोमांच समाप्त। ऐसा ही रोमांच यहाँ मिलता है। शारीरिक रोमांच। लेकिन आज जब वहाँ के बारे मे लिखने बैठी हूँ तो शरीर का रोमांच कहीं नहीं है और मन को टटोलने का प्रयास कर रही हूँ कि उसमें कोई रोमांच है क्या? मन तो प्यासा ही बना रहा। आखिर इस मन की प्यास कैसे बुझती है? मैं फोन उठा लेती हूँ और कभी भारत में और कभी यहीं अमेरिका में बाते कर लेती हूँ, तृप्ति सी मिल जाती है। समीरजी ने किस अपनत्व से बात की थी, अदाजी की हँसी कितने अन्दर तक उतर गयी, लावण्या जी का मधुर व्यवहार दिल को छू गया, अनुराग जी से बात करके कुछ स्वयं को जान लिया, राम त्यागी जी से बात करके लगा कि कैसे परदेस में सब अपने से लगते हैं। निर्मलाजी से तो साक्षात दो-तीन बार मिलना ही हो गया। सभी की बातचीत मन में जैसे चिपक सी जाती है और मेरी झोली भर जाती है। मुझे न जाने कितने व्यक्तित्व दिखाई देने लगते हैं? कुछ क्षणों की बातचीत से लगने लगता है कि हम इन सबको जानते हैं। इनका मन हमारे सामने आ खड़ा होता है एक खुली किताब की तरह। मैं अपनी समानताएं ढूंढ लेती हूँ और फिर मित्रता का सूत्रपात हो जाता है।
लेकिन हैरतअंगेज, रोमांचकारी स्थानों को देखने के बाद मन का कोई कोना क्यों नहीं भरता? यदि ये सारे ही रोमांचकारी स्थान किसी इतिहास से जोड़ दिए जाए तो क्या यादें अमिट नहीं हो जाएंगी? तभी तो महलों की अपनी कोई कहानी होती है और उसी के सहारे वे महल हमारे दिमाग में बस जाते हैं। इसलिए मुझे यहाँ तन और मन में संघर्ष दिखायी देता है। हमारी युवापीढी ने शायद तन को इतना केन्द्रित कर लिया है कि वे केवल रोमांच से ही उसे चाबुक लगाते रहते हैं और अपने मन को पीछे धकेलते रहते हैं। कहते तो यही है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है और उसका मन तो सामाजिक बातचीत में ही आनन्द पाता है। लेकिन जब व्यक्ति समाज से विरक्त हो जाए और उसकी बातचीत का केन्द्र केवल ये रोमांचकारी वस्तुएं ही हों तब? मैं एक फोन से अपने मित्रों का व्यक्तित्व समझ पाती हूँ लेकिन साथ रह रहे अपने बच्चों के मन को नहीं पढ़ पाती। क्यों कि उनकी बातों के केन्द्र में बस यही सब कुछ है। जब इस पीढ़ी के चार लोग एकत्र होते हैं तो वे नौकरी, कार या घूमने की बात से आगे ही नहीं बढ़ते। कुछ देर तो मैं साथ रहती हूँ फिर अपना कहीं और मुकाम ढूंढने चल पड़ती हूँ। भारत में तो मैं देखती थी कि कम से कम युवापीढ़ी लड़के या लड़कियों की ही बाते करके अपने मन को खुश कर लेते थे लेकिन यहाँ तो ये बाते भी नहीं होती। बस एक यांत्रिकता सी लगती है, कमाओ और खर्चा करो।
यहाँ भारत से आए आध्यात्मिक गुरुओं की भी बहुतायत है, सभी के आश्रम भी बने हुए हैं। आप कहेंगे कि फिर ये सब कैसे चल रहे हैं? ये सब इसीलिए चल रहे हैं शायद। जब तक शरीर रोमांच के चाबुक से चलता है तब तक ही चलता है लेकिन एक दिन मन धक्का देकर बाहर निकल ही आता है। फिर प्यास जगती है स्वेयं से बाते करने की, अपनी मन की इच्छांओं को जानने की। आसपास तो कोई नहीं तो फिर गुरुओं की शरण में आकर ही सामाजिक चिंतन होने लगता है और मन को कहीं चैन मिलने लगता है। भारत में भी इसलिए ही गुरुओं और शिष्यों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। मन की बात कब करें, किस से करें? वहाँ मौंज-शौक नहीं है लेकिन जीवन की आपाधापी है। सुबह चार बजे से ही घोडा जीन कसकर तैयार हुआ शरीर रात ग्या्रह बारह बजे तक भी कसा ही रहता है। इसी कारण एक उम्र आते-आते गुरुओं की शरण। लेकिन वहाँ व्यक्ति मन को समय देता ही है, उसकी बाते आज भी बचपन, परिवार, समाज केन्द्रित होती ही हैं। जैसा कि मैंने पूर्व में लिखा है कि ऐसा मुझे लगता है, हो सकता है आपके विचार कुछ भिन्न हो लेकिन मैं यहाँ सभी के विचारों का स्वागत करूंगी क्योंकि मुझे दुनिया को समझने की इच्छा है ना कि अपनी सोच को दुनिया पर थोपने की।
किसी सामाजिक प्राणी के लिए संवाद तो ज़रूरी है ही. आध्यात्मिक गुरुओं की कहानी अलग ही है - उस पर कम से कम मैं तो कुछ कहने का अधिकारी नहीं हूँ.
ReplyDeleteमुझे तो लगता है कि जीवन में कहीं ना कहीं ऐसा बिंदु आता ही है जब कोई वस्तु रोमांचकारी नहीं लगती.. कई सम्मानित नामों से आपने बात की, मिलीं सुन कर अच्छा लगा.. ये पोस्ट एक ऐसा विचार है जो शायद कभी ना कभी सभी के मन में आता है.. पर जिस ढंग से आपने इन विचारों को शब्द दिए वो देखने लायक है..
ReplyDeleteदरअसल मनुष्य मन से ही मनुष्य अधिक है तन से तो वह अभी भी बिलकुल जानवर है -आज की भौतिक जिन्दगी मन को कहीं बुरी तरह दबा चुकी है -आपने बिलकुल सही कहा आखिर है तो वह मनुष्य का मन ही -चौड़े आ ही जाता है ! मुझे तो लगता है तन मन का समन्वय जरूरी है -आपने बहुत विचारणीय लिखा है और इससे अमेरिकी जीवन की एक स्पष्ट झलक भी मिलती है !
ReplyDeleteपेट भर जाता है पर मन कभी नहीं भरता, बहुत बार सुना भुगता है ये सब। ये सवाल सच में बहुत बड़ा है कि मन हमेशा अतृप्त क्यों रहता है?
ReplyDeleteसारी व्यवस्था ही तो शरीर की ग़ुलाम हो चली है .निरंतर आविष्कार होते रहते हैं ऐसे यंत्रों के जो मनुष्य को और ज्यादा आलसी बनाता है .............और फिर इस आलसी तन को झूठा उन्माद चाहिए , आसमान से कूद कर पैरा- सेलिंग करने में , रस्सों से बांध कर हवा में उलटे लटक जाने में , या फिर जैसा आपने अनुभव किया ऊटपटांग झूलों में भय में आनंद को ढूँढने के रोमांच में .
ReplyDeleteमानव मन सदा ही अतृप्त रहता है……………जितना मिले और चाहत बढती जाती है मगर फिर एक दिन ऐसा आता ही है हर किसी के जीवन मे जब वो इन सबसे ऊबने लगता है और असल शांति की खोज मे निकलता है अब ये उस पर निर्भर करता है कि उसे वो शांति कहाँ और कैसे मिलती है क्युंकि हर किसी की सोच अलग होती है किसी को समाज सेवा मे तो किसी को देश सेवा मे तो किसी को अध्यात्म मे…………मगर ये भी ज़िन्दगी का एक पडाव ही होता है।
ReplyDeleteअजित जी धार्मिक गुरूओं के बारे मे तो मै भी चुप रहूँगी मगर बाकी बात से सहमत हूँ। वहाँ का जीवन यान्त्रिक सा लगता है। आप हैरान होंगी मेरे मन मे वहाँ जा कर इतने सुन्दर नजारे देख कर भी एक कविता नही फूटी बस उन नजारों मे जाने कैसा खोखलापन सा लगा _ या शायद हम पुराने लोगों के मन मे अपनत्व की भावना इतनी गहरी है कि हमे उपरी आवरण लुभाता नही है। बहुत अच्छी पोस्ट। धन्यवाद।
ReplyDeleteएक तो हम माटी से दूर हैं और अपने सगे सम्बन्धियों से भी दूर, तो कब तक ये कृत्रिम चीजें मन बहलायेंगी ? बाजार से कितने भी खिलौने बच्चे के लिए ला दो , जब तक आप उससे प्यार से बात नहीं करेंगे या उसके साथ आप नहीं खेलेंगे, वो सब खिलौने उसकी तृप्ति को शांत नहीं कर पायेंगे. खिलौने जरूरी हैं मनोरंजन के लिए, पर दिल की खुसी अपनो से ही मिलती है.
ReplyDeleteये सब अमेरिका की जगहें भी एक मनोरंजन का खिलौना मात्र है बस !!!
बाकी गुरुओं का हाल तो इंडिया और इंडिया के बाहर सब जगह ही खराब है. भगवान् बोलता नहीं और गुरु बोलता है शायद लोग भावना और यादों से इतने कमजोर हो जाते है कि इन तथाकतित गुरुओ में ही सब कुछ पाते हैं, भले ही घर पर बूढी माँ भूखी बैठी हो, पर बस गुरु खुस रहे. कुछ दिन पहले मैंने इस बारे में एक पोस्ट लिखी थी.
badhiya aalekh hai...hota hai kabhi kabhi romaanch samapt ho jata hai...fir nayi taraf rukh karte hain...baaki baba log ...unke baare me kya kahun...roz kuch na kuch unse juda bhi hota hi rehta haii...
ReplyDeleteअजित गुप्ता जी, आप का लेख पढ कर दिल की बात जुबान पर आ गई, मैने आधी से ज्यादा जिन्दगी यहां बिताई है, लेकिन फ़िर भी भारत वाली बात नही, यहां आत्मा से नही जुड पाया, भारत जाने को हर पल तडफ़ता हुं, जब कि अब वहां जा कर भी अपने आप को प्रदेशी ही महसुस करता हु,इन गुरुओ को मै ज्यादा ध्यान नही देता, आप अपना फ़ोन ना० दे हम भी आप से बात कर सकते है
ReplyDeleteapne mann ki soch batane ke liye dhanyawad...:)
ReplyDeletemere sath aisa tab hota hai, jab mann k andar kahin kuchh khali rah jata hai......aur fir kahin bhi pahuch jao, begana sa hi lagta hai...:(
अजीत जी ,
ReplyDeleteआज कल तो भारत भी अमरीका ही बन रहा है...सब आत्मकेंद्रित से होते जा रहे हैं...जहाँ एक व्यक्ति मन से कुछ काहे और दूसरा मन से सुने वहीँ सुकून मिलता है ..अपनापन मिलता है..जीवन में उत्साह और उर्जा का समावेश होता है..रोमांच का अनुभव होता है...
राम त्यागी जी ने ठीक ही कहा है कि कितने ही मनोरंजन के लिए खिलौने पास हों पर अपनो का स्नेह और प्यार ही मन को खुशी देता है....
अजित जी ,
ReplyDeleteआपसे बात करके तो मन तृप्त हो गया था....
वैसे अतृप्ति का गुण ही है जो मनुष्य को विकास के लिए प्रेरित करता है....लेकिन एक उम्र में आने के बाद विरक्ति का अहसास होता है वह तब जब वो अपने अधिकाँश लक्ष्य प्राप्त कर लेते है...
तृप्ति के साथ विरक्ति आती है....और तब लगता है सबकुछ कितना खोखला है.....जीवन की ज़रूरतें कितनी कम हैं और हम बिना बात इतना ताम-जाम किये बैठे हैं...तब लगता है हम उसके पीछे भागते रहे जिसकी ज़रुरत नहीं थी...और जिसकी ज़रुरत थी वो हमारे पास ही था...
बहुत सुन्दर पोस्ट ...
फिर बात करुँगी आपसे...
बेहतरीन लेख. बहुत खूब!
ReplyDeleteआप पढ़िए:
चर्चा-ए-ब्लॉगवाणी
चर्चा-ए-ब्लॉगवाणी
बड़ी दूर तक गया।
लगता है जैसे अपना
कोई छूट सा गया।
कल 'ख्वाहिशे ऐसी' ने
ख्वाहिश छीन ली सबकी।
लेख मेरा हॉट होगा
दे दूंगा सबको पटकी।
सपना हमारा आज
फिर यह टूट गया है।
उदास हैं हम
मौका हमसे छूट गया है..........
पूरी हास्य-कविता पढने के लिए निम्न लिंक पर चटका लगाएं:
http://premras.blogspot.com
आज की ही नहीं, हर युग की युवा पीढ़ी में सांसारिक लिप्साओं के प्रति व्यामोह रहा है। आधुनिक युवाओं में यह व्यामोह कुछ अधिक दिखता है। मानव का तन-मन प्राकृतिक उपादानो का बना पुतला है। प्रकृति-प्रदत्त बैटरी से वह संचालित है। नवलता में अतिरिक्त ऊर्जा और उत्साह दोनों रहते है। समय के साथ बैटरी क्षीण हो जाती है। एक ऐसी भी स्थिति आती है जब वह असहाय हो जाता हैं और मन का तन पर आदेश नहीं चलता है। व्यक्ति जब भौतिक वस्तुओं में अपने मन की शान्ति को खोज पाने में निराशा हो जाता है तो उसके पास एक ही विकल्प शेष बचता है। वह होता है-प्रकृति के सम्मुख स्वयं का समर्पण। यह क्रम आदि से सृष्टि में अब तक घटित होता रहा है, आगे भी ऐसा होता रहेगा। प्रकृति के सम्मुख समर्पण को ही कुछ मनीषियों ने भक्ति माना है। शान्ति अभ्यांतरिक खोज है, तुष्टि वाह्य। भौतिक वस्तुओं में क्षणिक तुष्टि है, शान्ति नहीं। साधु-संतों का धंधा पश्चिम में चमकने की संभावनाएं इसलिए भी अधिक हैं क्योंकि वहाँ उनके पास आने वाला साधक संपन्न्ता से ऊबा हुआ होता है। मठों के संचालन में धन की समस्या वहां आड़े नहीं आती है।
ReplyDeleteसद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
रोटी, कपड़ा, मकान..की इच्छा पूरी हो तो फिर मन इस ओर भागता है..तो अध्यात्मिकता जागती है..शायद यही इनके ज्यादा होने की वजह हो. वरना कब समय है खुद से बात करने का. कोई कॉल मिला दे तो बात हो जाये और यही कॉल मिलाने में इनकी महारत है.
ReplyDeleteअच्छा विचारणीय आलेख बन पड़ा इसी चर्चा के बहाने.
बहुत ही विचारणीय आलेख....ये बातें तो मन को सालती ही हैं...किसी अंधी दौड़ में लगे हुए दिखते हैं सब...सही अर्थों में जीवन जीना छोड़ ही दिया है.
ReplyDeleteराज भाटिया जी, मैंने अपना फोन नम्बर आपको मेल कर दिया है। वैसे मैं यहाँ 2 जुलाई तक ही हूँ।
ReplyDeleteबाबाओं और गुरुओं की सुनामी की एकदम सही व्याख्या की है आपने! आज की जिंदगी आदमी की तमाम जरूरियात पूरी नहीं करती, जिनकी संतुष्टि की चाह उसे बाबाओं और गुरुओं की शरण में ले जाती है।
ReplyDeleteविचारों की स्वायतत्ता के पक्ष मे उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteअच्छा संस्मरण कई सीख दता हुआ .मन कभी नहीं भरता.किसी सामाजिक प्राणी के लिए संवाद तो ज़रूरी है ही.
ReplyDeleteकमज़ोर इच्छाशक्ति और असहाय महसूस करते लोग कहाँ जाएँ अतः गुरु की तलाश करते हैं , मगर गुरुओं की पहचान कैसे की जाये यह मुश्किल होने के कारण बहुत से लोग इनको फाँस लेते हैं !
ReplyDeleteकमज़ोर इच्छाशक्ति और असहाय महसूस करते लोग कहाँ जाएँ अतः गुरु की तलाश करते हैं , मगर गुरुओं की पहचान कैसे की जाये यह मुश्किल होने के कारण बहुत से लोग इनको फाँस लेते हैं !
ReplyDeleteShayad yahee avastha meri bhi ho gar mai apne watan se bahar nikal padun...isi bhautik khalipan ke karan shayad nikalti nahi..
ReplyDeleteAapka lekhan padhti hun to lagta hai,jaise bahuton ke man padh leti hain aap!
सच है की मन कभी नहीं भरता और किसी का नहीं भरता बहुत अच्छा आलेख व संस्मरण
ReplyDeleteआपने अपने अनुभवों से दिल के एहसास को जो अभिव्यक्ति दी है वह न केवल पाश्चात्य जीवनशैली की खामियों को उजागर करती है अपितु बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती है कि हम क्यों और कहाँ भाग रहे है....!
ReplyDeleteशानदार पोस्ट के लिए आभार.
बहुत सुन्दर पोस्ट! आपकी पोस्ट पढ़कर अपनी ये कविता याद आ गयी:
ReplyDeleteआओ बैठें ,कुछ देर साथ में,
कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में।
गपशप किये बहुत दिन बीते,
दिन,साल गुजर गये रीते-रीते।
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।