कानून और इंसाफ की हम सभी प्रतिदिन दुहाई देते हैं। लेकिन जिसे न्याय करना है उसके सामने कई बाद चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। एक तरफ कानून कहता है कि अपराधी को सजा दो, तो दूसरी तरफ उसकी सजा सारे परिवार की सजा बन जाती है। कई बार हम समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि महिला ने अपराध किया, उसे जेल की सजा हुई और उसके साथ उसके गोद का बच्चा भी जेल गया। चोरी या अन्य अपराध में एक व्यक्ति को सजा हुई और सारा ही परिवार भूख की चपेट में आ गया। तब हमारे समाज के कानून पर प्रश्नचिन्ह लगता है। क्या केवल कानून से ही समाज को सही मार्ग दिखाया जा सकता है? या कोई ऐसा भी मार्ग है जिससे अपराधी व्यक्ति का अपराध भी समाप्त हो और समाज और परिवार की समस्या भी सुलझ जाए। कई बार ऐसी ही समस्याएं पुलिस वालों के सामने और न्यायालय में आती हैं, उनके साथ मानवीय व्यवहार करने पर वे बदनाम भी होते हैं और समाचार पत्र उनके चरित्र को बदनाम करने का अवसर नहीं छोड़ते। ऐसे में क्या अन्य मार्ग भी है कानून के पास? इसी समस्या से जन्मी है मेरी यह लघुकथा। आप इसे पढ़िए और अपना परामर्श दीजिए।
लघुकथा - चोर
मजिस्ट्रेट कीर्तिवर्धन जी सर झुकाए अपने ड्रांइग-रूम में बैठे हैं। सामने समाचार-पत्रों की सुर्खियाँ उन्हें सर नहीं उठाने दे रही हैं - ‘मजिस्ट्रेट कीर्तिवर्धन ने रिश्वत लेकर एक चोर को छोड़ दिया’, ‘मजिस्ट्रेट कीर्तिवर्धन का कैसा इंसाफ’?, ‘चोर उनका रिश्तेदार तो नहीं’ ऐसे ही अनेक शीर्षकों से समाचार-पत्र रंगे पड़े हैं। उनकी पत्नी चाय का प्याला लेकर आयीं और बोली कि आपने यह क्या किया? बरसों की तपस्या को आखिर आपने क्यों भंग कर दिया? आप और रिश्वत यह बात तो गले ही नहीं उतरती! ये समाचार-पत्र वाले अपकी इज्जत मिट्टी में मिला देंगे। आपकी नौकरी भी खतरे में पड़ सकती है। आखिर आपने उस चोर को क्यों छोड़ दिया?
क्या करता? उसके दो छोटे-छोटे बच्चे थे और कमाई का कोई साधन नहीं था। यदि मैं उसे सजा दे देता और उसे जेल भेज देता तो या तो वे बच्चे भी चोर बन जाते या फिर भिखारी। आज से वह हमारे यहाँ काम पर आएगा।
यदि एक व्यक्ति कोई अपराध करता है तो उसे दंड केवल इसलिए न मिले कि उसे दंडित करने से उस का परिवार नष्ट हो जाएगा सही सोच नहीं है। अपराधी को तो दंड मिलना ही चाहिए। हाँ यदि उसे दंड देने से उस के परिवार पर कुछ असर आता है तो उस की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए।
ReplyDeleteएक व्यक्ति की हत्या हो जाती है तो उस के अभाव में उस का परिवार भी तो दंड भुगतता है। वास्तव में हमारी सामाजिक व्यवस्था का दोष है। सामाजिक आर्थिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि किसी व्यक्ति को सजा होने या आकस्मिक दुर्घटना में मारे जाने या अपंग हो जाने पर परिवार पर उस का असर न आए।
द्विवेदी साहब से सहमत , वरना तो सारे हे अपराधी अपराध कर बाद में परिवार की दुहाई देने लगेगे ! हमारे लोग वैसे भी ऐसे मौके का नाजायज फायदा उठाने में उस्ताद है !
ReplyDeleteअपराध को अपराधी से जोड़िए। उसके अच्छे और बुरे नतीजे न्याय और अन्याय के रूप में हमारे सामने आते हैं। जरा इस पर भी विचार करने की कृपा करे।
ReplyDeleteकथा के दोनों ही पहलू अपना सशक्त महत्व रखते हैं. परिस्थितियों अनुसार फ़ैसले होते भी आये हैं. पर आश्रितों के लिये दोषी को बरी किया जाना भी कुछ न्यायसंगत नही लगता.
ReplyDeleteरामनवमी की घणी रामराम.
मुश्किल सवाल है।
ReplyDeleteबहुत गंभीर सवाल है ........लघु कथा बहुत अच्छी थी .......ऐसे ही विषय पर एक फिल्म बनी थी ''दुश्मन ''
ReplyDeleteलघुकथा का विषय बहुत गंभीर है....न्याय को ध्यान में रखते हुए सजा देनी चाहिए...
ReplyDeleteसटीक विषय उठाया है..
गलत फैसला।
ReplyDeleteअपने काम में सेंटीमेंटल होना ठीक नहीं । अन्याय ही होगा।
श्री दिनेश जी से सहमत.
ReplyDeleteमुश्किल है जज मियां से सहमत होना. पता नहीं IPC/CrPC के कौन से नए प्रावधान इन बाबू ने संसद के बजाय ख़ुद ही लिख डाले.
ReplyDeleteसरकार को बच्चों की ज़िम्मेदारी संभालने का आदेश देकर उसकी मानीटरिंग की भी व्यवस्था करते तो शायद कुछ बात बनती. वर्ना पट्ठे चोर की तो पांचों घी में :)
अपराधी को तो सजा मिलनी ही चाहिये लेकिन उसके परिवार का ध्यान रखे जाने का प्रवधान होना चाहिये लेकिन भारतीय परिप्रेक्षय में यह एकदम असंभव है।
ReplyDeleteकहते हैं न ...पाप को ख़तम करो पापी को नहीं ..ये कहावत चरितार्थ करती है आपकी लघुकथा..बहुत प्रभावी बन पड़ी है
ReplyDeleteमै भी दिनेशराय जी जैसे ही विचार रखता हुं अपराधी को सजा जरुर मिलनी चाहिये,वर्ना उस चोर ने पहले काम नही किया तो सजा माफ़ होने पर कहां करेगा...
ReplyDeletedfdf
ReplyDeleteआपकी पोस्ट में गहरे सवाल हैं.अपराधी को छोड़ना तर्कसंगत नहीं होगा..पर एक बड़ा सवाल है कि जो भूख के कारण, काम नही मिलने के कारण चोरी करने को मजबूर हो जाता है उसका क्या किया जाए..यह सच है कि कई कैदी जेल में ही रह रहे हैं क्योंकी बाहर आकर दो जून की रोटी का जुगाड़ उनके लिए मुश्किल होता है....कहीं फिर फिर अपराध न करना पड़े,.....इसलिए वो जेल से बाहर आने को उत्सुक नहीं होते....पर सजा से माफी देना अच्छी मिसाल नहीं....कथा में जज साहब के फैसले से कोई भी इत्तफाक नहीं रखेगा, पर कथा में छुपी भावनाओं और तल्ख सवाल का जवाब समाज को ढ़ढना ही होगा.....
ReplyDeleteआपकी जोधपुर यात्रा तो लाजवाब रही......आपके पतिदेव जी ने चाय वाली दुकान तक पैसे पहुंचावा दिए......एक गंभीर सुझाव ....उस गांव को भी क्यों नहीं तलाशा जाए, जहां क्या पता आज भी चुड़ैलों का भय हो....उस गांव को ढूंढ कर भयमुक्त किया जा सके......(हा हा हा हा)
रेल की क्षत्राणी ने तो दिल खुश कर दिया, बेचारे टीटी महोदय कुछ और देर टिकते तो क्या पता उन्हें50 रुपये कमाने की जगह 500 रुपये देकर जाना पड़ता....
आप बहुत संवेदनशील हैं , आपके परिवार को बधाई !
ReplyDeleteजहाँ तक कहानी का सम्बन्ध है मैं श्री दिनेश राय द्विवेदी से सहमत हूँ !
हमारी न्याय और दंड प्रक्रिया पर बहुत सटीक दृष्टि डाली है आपकी लघुकथा ने ...दंड ऐसा दिया जाए कि या तो अपराधी खुद को सुधार सके ...या फिर कोई और जुर्म करने का साहस ही ना कर सके ....ना कि जुर्म के अंधियारे दलदल में उसके अपनों को भी प्रवीण होने का अवसर प्रदान करे ...!!
ReplyDeleteद्विवेदी जी, आपका परामर्श मेरी इस पोस्ट को मिलेगा इसका विश्वास था। मुझे आज अच्छा लग रहा है कि अब ब्लोगिंग परिपक्वता की ओर बढ़ रही है। आप और गोदियाल जी सहित कइयों ने यही परामर्श दिया है कि कानून को अपना काम करना चाहिए। मैं भी आजकल की कहानी जब पढ़ती हूँ तब मुझे ऐसे ही पात्र समाज में कहीं दिखायी नहीं देते। इसी कारण मैंने यह लघुकथा आप सभी सुधि पाठकों व चिंतकों के परामर्श के लिए यहाँ पोस्ट की थी कि क्या ऐसी लघुकथा स्वीकार्य होगी? मैं अब इसमें कुछ बदलाव लाकर इसे पुस्तक में सम्िमलित करूंगी।
ReplyDeleteबोलते बिंदास वाले रोहित जी, आपने मेरी इस लघुकथा के साथ अन्य पोस्ट भी पढ़ी और उन पर भी टिप्पणी की। आपकी टिप्पणी से बहुत आनन्द आया। मुझे भी लगता है कि उस गाँव में जाकर देखना चाहिए कि कहीं हमारी चुड़लों वाली दंतकथा तो वहाँ प्रचलित नहीं है?
ReplyDeleteइस लघुकथा के माध्यम से सवाल तो आपने बहुत मुश्किल उठाया है...पर गुणीजनों ने यथोचित सुझाव भी दिए हैं...पर ऐसे प्रसंग सोचने पर मजबूर तो करते ही हैं कि एक की गलती की सजा पूरे परिवार को भुगतनी पड़ती है.
ReplyDeletepost bahut dimagi halchal dene wali hai. kayi baar insaan k halaat majboor kar dete hai use apradh karne k liye. isliye jaruri to nahi har apradhi itna bada gunahgaar hai..aise kuch special cases me sarkar ko aage aana chaahiye aur saath me kuch samaj savi sansthao ko...jaise bujurgo k liye vridh-aashram banaye gaye hai..aise hi koi commetties banyi jaye jo inko thodi-bahut saza dilwane k sath inko rojgar dilwane ki koshish kare, inke pariwar inke baccho ko bhi bhar-pait bhojan/shiksha aur rojgar muhaiyya ho iske sath sath aise logo per nigrani bhi lagatar rakhi jaye.
ReplyDeleteपुरानी कहावत है की चने के साथ घुन तो पिसता ही है.!
ReplyDeleteऔर वैसे में दिवेदी जी से पूरी तरह से सहमत हूँ !
sunder kahani...
ReplyDeleteसही कहा....अपराधी को समाप्त न कर यदि उसकी आपराधिक वृत्ति को समाप्त कर दिया जाय,तो यही सही मायने में समाज को सुरक्षित रखने के प्रति न्याय व्यवस्था का दायित्व होगा...
ReplyDeleteआपकी बात को ही सिद्ध करती लघुकथा अत्यंत ही प्रभावशाली है...
Aaj ki laghukatha ko sirf ek post ki tarah nahin balki class ki tarah padha.. ummeed hai aap blogrole me is anuj ke blog ko daal niyamit margdarshan karti rahengeen ma'am. agar sambhav ho to kripya apna koi no. mujhe mail kar den jisse main saturday ya sunday ko baat kar sakoon.
ReplyDeleteडॉ0 गुप्ता जी!
ReplyDeleteजिस समाज में हम रह रहे हैं वह वास्तव में राजशाही के ईट-गारे से बना है। उसी से उपजे बहुत सारे नियम-कानून हम ओढ़-बिछा रहे हैं। जाने अनजाने हम आज भी उसी राजतांत्रिक व्यवस्था को पोषित करते हैं। पिछले दिनों एक ‘सूचना के अधिकार संबंधी’ आयोजन के अध्यक्ष पद से बोलते हुए एक वक्ता ने भारत को प्रजातंत्रिक राज्य कहा है। उनके वक्तव्य को सुन कर मैं हैरान रह गया। बडे-बडे लोग लोकतंत्र को प्रजातंत्र कहते हैं। भारत में अभी समाजवादी व्यवस्था के पैर जम भी न पाए थे कि हम फिर पूंवावादी व्यवस्था के जबडों में जकड़ते जा रहे हैं। बाजारीकरण ने हर वस्तु को बिकाऊ बना दिया है। कल्याणकारी राज्य और हर नागरिक के सर्वांगीर्ण विकास की अवधारण का अब सवाल अब पीछे छुट गया है। आपने अपनी लधुकथा में इन्हीं प्रश्नों को उठाया है। मेरा मानना है कि राज्य के सभी नागरिकों को ‘शिक्षा-स्वास्थ और उसके जीवन को सुरक्षा’ सुलभ कराना राज्य की नैतिक जिम्मेदारी है। इसके अतिरिक्त अपराध मुक्त सामाजिक परिवेश बनाना राज्य का कर्तव्य है। आपने अच्छे मुद्दे को उठाया है। साधुवाद! सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
अगर एक झूठ से किसी कि जान बचा सकते है तो वो ,झूठ झूठ नहीं कहा जायेगा |कुछ ऐसे ही भाव उभरे है आपकी इस लघुकथा को पढ़कर |अपराधी को सजा तो मिलनी ही चाहिए |पर देश ,काल और परिस्थितिया अपना महत्व रखती है |
ReplyDeleteप्रयोग के तौर पर जज साहब का फैसला सही है इसी विषय पर वि शांताराम कि "दोंखे बारह हाथ "पिक्चर बनी थी |
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ReplyDeleteकथा भी अच्छी लगी और उसके पीछे की अवधारणा भी. जहां तक क़ानून के सर्वोपरि होने की बात है, हमें यह यह रखना चाहिए कि क़ानून में कमी हो सकती है और है. एक ज़माने में अरब-यूरोपीय क़ानून में अश्वेतों को जानवरों की तरह खरीदना-बेचना-यौन शोषण-मारना कानूनी रूप से जायज़ था. कई अमेरिकी प्रदेशों में भू-विकास के लिए मूल निवासियों की सामूहिक ह्त्या जायज़ थी. चीन में तो आज भी कम्म्युनिस्ट विचारधारा के विरोधियों को न सिर्फ मौत की सज़ा देना जायज़ है बल्कि उनके अंग भी प्रत्यारोपण के लिए धनी विदेशियों को "कानूनन" बेच दिए जाते हैं.
ReplyDeleteएक पुरानी फिल्म "दुश्मन" में अपराधी को पीड़ित परिवार की देखरेख की सज़ा दिए जाने की भारत के वकीलों में आलोचना हुई थी जबकि अमेरिका में अपराधियों को जन-सेवा की ज़िम्मेदारी देना आम बात है.
आपकी लेखनी बहुत प्रभावशाली है - अविचलित लिखती रहिये.
सादर...
...प्रसंशनीय अभिव्यक्ति!!!
ReplyDeleteयुवा सोच का पता मिल गया, अद्भुत। सजदे में सिर झुकता है।
ReplyDeleteअपराधी को दंड मिले ,और उससे जेल में रख कर काम करवाया जाय ,जिसकी आय परिवार को देने की व्यवस्था हो तो दोनों के साथ न्याय हो सकता है .
ReplyDelete(हो सकता है मेरे इस विचार में कोई टेक्नीकल बाधा हो.)