बहुत वर्षों बाद थियटर में फिल्म देखनी पड़ी। आग्रह था बिटिया का, वह शुभ समाचार सुनाने वाली है तो उसकी इच्छा अभी सर्वोपरि है। फिर शहर में एक पुराने थियटर को नया रूप दिया गया था तो उसे भी देखने का चाव था। सोचा था कि दिल्ली का दिल फिल्म में होगा, पर यहाँ तो अपना ही दिल निकल गया। ऐसा लगा कि निदेशक को किसी भी कलाकार पर भरोसा ही नहीं था, बस सब कुछ टुकड़ों में था। अनावश्यक साम्प्रदायिकता ठूंसी गयी थी, चुनाव आ रहे हैं तो बताना तो पड़ेगा ही न कि हमारे मध्य कितने झगड़े हैं? हम चाहे कितने ही प्रेम से रहने का प्रयास करें ये फिल्म वाले और मीडिया वाले खुरंट को नोच ही लेते हैं।
बहुत पहले दूरदर्शन पर एक फिल्म आयी थी, वो जमाना था दूरदर्शन का। फिल्म का नाम था उसकी रोटी। ऊस समय घर का कमरा आस-पड़ौस से भर जाता था लेकिन जैसे ही वो फिल्म शुरू हुई लोग खिसकने लगे और आखिर में मैं और एक और बुद्धिजीवी ही शेष बचे। कुछ दिनों बाद धर्मयुग में एक व्यंग्य छपा - सूर्यबाला का, जिसमें लिखा था कि एक आदमी को पागल कुत्ते ने काट खाया था और डाक्टर ने उससे कहा कि या तो चौदह इंजेक्शन लगाओ या फिर शहर में चल रही फिल्म को देख लो। कल वो ही वाकया याद आ गया। पहली बार 200 रू। एक टिकट के बहुत खले।
गाना गेंदा फूल भी अनावश्यक ही ठूंसा गया था। छोटी सी प्रस्तुति थी, कब शुरू हुआ और कब समाप्त पता ही नहीं चला। निदेशक को भी विश्वास नहीं था कि फिल्म कमाल करेगी, इसलिए अन्त में अमिताभ की आत्मा को भी बुला लिया और दोनों बाप-बेटे आत्मा रूप में बतियाने लगे। लेकिन फिर हीरो को जीवित ही रख दिया गया। अपनी आप सब के समय की और जेब की सलामती चाहती हूँ इसलिए ही यह लिख दिया है और इससे यह भी मालूम पड़ गया होगा कि सर मुंडाते ही ओले पड़े।
चलो आपने अच्छा किया हमारी जेब जो बच्चा ली आपने....आपको बहुत-बहुत धन्यवाद....!!
ReplyDeleteआपकी समीक्षा बहुतों का भला कर देगी.
ReplyDeleteमेरे सभी दोस्त जिद कर रहे थे इस फिल्म को देखने की, एक दिन सबने प्लान बनाया ... वो तो मेरी किस्मत अच्छी थी बच गया.... फिर उन्होंने भी फिल्म में दिखाई झूटी साम्प्रदायिकता की बात बताई तो लगा अपन भी देखे तो सही.. पर आपकी समीक्षा पद कर अब मन नहीं कर रहा.. धन्यवाद...
ReplyDeleteआजकल ऐसी ही फिल्मेँ बनतीँ हैँ ...
ReplyDeleteजो आतीँ हैँ और चली जातीँ हैँ
आपकी बिटीया को आशिष
स्नेह सहित
- लावण्या