Wednesday, January 14, 2009

लघु कथा

प्रेम का पाठ

सरस्वती अकेली बैठी है, उसकी आँखों में आँसू हैं। कभी धुंधली होती रोशनी से अपने बुढ़ापे को देख रही है, कभी जंग लगते अपने घुटनों को हाथों से सहला रही है। अपने आप से प्रश्न कर रही है कि ‘मैंने जीवन में प्रेम का पाठ पढ़ाने का प्रयास किया लेकिन आज मैं अकेली क्यूँ हूँ, मेरा सहारा यह छड़ी क्यों बन गयी है?’ वह सूने रास्ते को देख रही थी, जहाँ से शायद उसके बुढ़ापे का सहारा चला आए और उसकी छड़ी को हवा में उछाल दे और बोले, ‘माँ मैं तेरी छड़ी हूँ, इसकी तुझे जरूरत नहीं पड़ेगी’। लेकिन दूर तक कोई नहीं है, लेकिन एक परछाई उसकी ओर बढ़ रही है। परछाई पास आती है, वह एक इंसान में बदल जाती है।
वह इंसान उससे पूछता है कि ‘तुम्हारे द्वारा प्रेम बाँटने का कारण?’
क्योंकि बचपन से ही प्रेम के अभाव की कसक मन में थी।
तुम्हें किसके प्रेम का अभाव था, उसने फिर प्रश्न किया।
सरस्वती ने कहा कि पिता के प्रेम का, पति के प्रेम का।
तुमने अपनी संतान को इसी प्रेम के अभाव का पाठ पढ़ाया?
हाँ पढ़ाया। सरस्वती ने कहा।
तब वे अच्छे पिता बनेंगे और अच्छे पति बनेंगे। वे अच्छे पुत्र कैसे बन सकते हैं? जिसका अभाव तुमने जाना नहीं, उसे तुम कैसे पढ़ा सकती थीं?

3 comments:

  1. अच्छी कहानी है. दूसरों को वह सहजता से दे सकते हैं जो हमारे पास है. मगर ज्ञान हो तो ऐसा बहुत कुछ दे सकते हैं जो हमने स्वयम कभी नहीं अनुभव किया.

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  2. मर्मस्पर्शी लघुकथा.

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