Monday, January 12, 2009

पूछती है इन्दर की माँ

पूछती है इन्दर की माँ

मेरे पास का एक गाँव
वहाँ रहने वाली एक माँ
खोए बेटे इन्दर की माँ!
जब भी वहाँ जाती हूँ
मेरे बेटे का सुराग मिला?
पूछती है इन्दर की माँ।

निरूत्तर करते हुए उसके प्रश्नों से
लगता है जैसे मेरे मुँह पर
मौन का ताला पड़ गया है
कैसे कहूँ कि तेरा बेटा भी
सत्य, ज्ञान और लाजवंती की तरह
शहर की भेंट चढ़ गया है।

गाँव से निकलकर पहले
ज्ञान शहर चला गया था
चश्मा चढ़ाए विज्ञान बनकर
गाँव को भूल गया था
ज्ञान की माँ सुरसति भी
उसे गाँव-गाँव ढूँढ रही थी
ज्ञान का तो बदला रूप
मुझे मिल भी गया था
सत्य तो वहाँ से भी ना जाने
कहाँ गुम हो गया था
लाजवंती को खोजने का काम
थाने से भी हट गया था।

यह शहर नहीं
एक भीड़ का है समुन्दर
सत्य, ज्ञान, लाजवंती
और आज तेरा इन्दर
इसमें समाहित हो गए हैं
कहीं खो गए हैं
इन्द्र बनकर भूल गया है
तुझे तेरा इन्दर।

अब गाँव में कहाँ है स्वर्ग
तो कैसे रहे तेरा इन्दर?
शहर की खोखली चकाचौंध में
कहाँ ढूँढू तेरा इन्दर?

आज भी तेरे पास भोला,
गवरी और कलावती रहते हैं
उन्हें ही सहेज ले वे भी
शहर चले गए तो क्या होगा?
क्या पता कभी तेरा भोला
ही सत्य को ले आए
क्या पता कभी गवरी ही
लाजवंती को ढूँढ लाए
क्या पता कभी कलावती ही
ज्ञान को लौटा लाए
जब ये सारे के सारे
गाँव को वापस आ जाएंगे
तो सच कहूँ तेरा इन्दर भी
जरूर लौट आएगा
जरूर लौट आएगा।

4 comments:

  1. बहुत ही सहजता से आज के वातावरण का वर्णन.. दिल को छू गया..शुभकामनाएं...
    "मेरी माँ की कृतियाँ" पर टिपण्णी करने के लिए धन्यवाद..

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  2. aapne yaad rakha. shukriya.
    milte rahenge blog par.

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  3. छोड़ गाँव को भटकते,
    पनघट औ' चौपाल.
    बीच शहर में अकेले,
    कोई न पूछे हाल.
    देख मौन बोला शहर,
    केर-बेर का संग.
    कहिये कैसे निभेगा?
    अगर न बदला रंग.
    बदले गर तो जमाना,
    तुमको देगा दोष.
    और न बदले तो नहीं,
    पाओगे संतोष.
    बुरे फंसे आकर शहर,
    जाओ वापस गाँव.
    बोला पनघट अब नहीं,
    वहां शेष है छाँव.
    जहर सियासत का करे
    जीना वहाँ मुहाल.
    अपनापन बाकी नहीं
    बोल पड़ा चौपाल.

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  4. bohot hi khoob. very very nice. thanks for sharing. regards,

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