अभी अदा जी की एक पोस्ट आयी, हमारी राष्ट्रपति के इंग्लैण्ड दौरे को लेकर। भाई प्रवीण शाह ने अपनी टिप्पणी में लिखा कि अंग्रेजों ने हमें बहुत कुछ दिया है। मैं यहाँ अंग्रेजों ने हमें कैसे लूटा है उसका ब्यौरा दे रही हूँ। यह आलेख मेरी पुस्तक "सांस्कृतिक निबन्ध" से लिया है, उसके कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं।
अंग्रेजी खूनी पंजे
अंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेजीयत इस देश की युवापीढ़ी को सदैव से ही आकर्षित करती रही है। जब अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया था तब भी हमारे राजे-रजवाड़े और आधुनिक कहे जाने वाले युवा उनकी स्वच्छंदता से बहुत प्रभावित थे। व्यक्ति की जन्मजात आकांक्षा रहती है - स्वच्छंदता। उसमें कहीं एक पशु छिपा रहता है और वह सभ्यता के दायरे को तोड़ना चाहता है। भारत हजारों वर्षों से एक सुदृढ़ संस्कृति के दायरे में बंधा हुआ था, इसलिए भारतीयों ने इस प्रकार की स्वच्छंदता कभी न देखी थी और न ही अनुभूत की थी। अतः समृद्ध और प्रबुद्ध वर्ग इस स्वच्छंदता की ओर आकर्षित हुआ। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अधिकांश रजवाड़े अंग्रेजों की भोगवादी प्रवृत्ति के गुलाम हो गए। कल तक प्रजा के रक्षक कहे जाने वाले ये श्रीमंत लोग आज प्रजा से दूर हो गए। वे केवल मालगुजारी एकत्र करने और अंग्रेज शासक को खुश रखने में ही लगे रहे। जनता के ऊपर कितने अत्याचार हो रहे हैं और जनता गरीब से गरीबतर होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रही है, इस बात की चिन्ता किसी को भी नहीं थी। अंग्रजों ने भारत को किस तरह तबाह किया और लूटा इसके उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं। उन्होंने भारत के व्यापार को चौपट किया, करोड़ों लोगों को भूखा मरने पर मजबूर किया। अयोध्या सिंह की पुस्तक ‘भारत का मुक्ति-संग्राम’ में भारतीय कपड़ा उद्योग के कुछ आंकड़े दिए हैं, उन्हें मैं यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ। ‘1801 में भारत से अमरीका 13,633 गांठ कपड़ा जाता था, 1829 में कम होते-होते 258 गांठ रह गया। 1800 तक भारत का कपड़ा प्रतिवर्ष लगभग 1450 गांठ डेनमार्क जाता था, वह 1820 में सिर्फ 120 गांठ रह गया। 1799 में भारतीय व्यापारी 9714 गांठ पुर्तगाल भेजते थे, 1825 में 1000 गांठ रह गया। 1820 तक अरब और फारस की खाड़ी के आस पास के देशों में 4000 से लेकर 7000 गांठ भारतीय कपड़ा प्रतिवर्ष जाता था 1825 के बाद 2000 गांठ से ज्यादा नहीं भेजा गया।’ पुस्तक में आगे लिखा है कि ‘ईस्ट अण्डिया कम्पनी के आदेश से जांच के लिए डाॅ. बुकानन 1807 में पटना, शाहाबाद, भागलपुर, गोरखपुर आदि जिलों में गए थे। उनकी जांच के अनुसार पटना जिले में 2400 बीघा जमीन पर कपास और 1800 बीघा में ईख की खेती होती थी। 3,30,426 औरतें सिर्फ सूत कातकर जीविका चलाती थी, दिन में सिर्फ कुछ घण्टे काम करके वे साल में 10,81,005 रू. लाभ कमाती थी। इसी प्रकार शाहबाद जिले में 1,59,500 औरतें साल में साढ़े बारह लाख रूपए का सूत कातती थी। जिले में कुल 7950 करघे थे। इनसे 16 लाख रूपये का कपड़ा प्रतिवर्ष तैयार होता था। भागलपुर मंे 12 हजार बीघे में कपास की खेती होती थी। टसर बुनने के 3,275 करघे और कपड़े बुनने के 7279 करघे थे। गोरखपुर में 1,75,600 स्त्रियां चरखा कातती थीं। दिनाजपुर में 39,000 बीघे में पटसन, 24,000 बीघे में कपास, 24,000 बीघे में ईख, 1500 बीघे में नील और 1500 बीघे में तम्बाकू की खेती होती थी। महिलाएं 9,15,000रू. का खरा मुनाफा सूत कातकर करती थीं। रेशम का व्यवसाय करनवाले 500 घर साल में 1,20,000 रू. का मुनाफा करते थे। बुनकर साल में 16,74,000रू. का कपड़ा बुनते थे। पूर्णिया जिले की औरतें हर साल औसतन 3 लाख रूपए का कपास खरीद कर सूत तैयार करती थी और बाजार में 13 लाख रूपये का बेचती थीं।’
इतना ही नहीं अंग्रेजों ने नेविगेशन एक्ट के कारण यूरोप या अन्य किसी देश से सीधे व्यापार करने का हक भारत से छीन लिया। 1890 में सर हेनरी काटन ने लिखा ‘अभी सौ साल भी नहीं बीते जब ढाका से एक करोड़ रू. का व्यापार होता था और वहाँ 2 लाख लोग बसे हुए थे। 1787 में 30 लाख रू. की ढाका की मलमल इंग्लैण्ड आयी थी और 1817 में बिल्कुल बन्द हो गयी। जो सम्पन्न परिवार थे वे मजबूर होकर रोटी की तलाश में गांव भाग गए।’
शेष अगली बार
एक ज्ञानवर्धक पोस्ट .....अगले अंक की इंतजार रहेगी!
ReplyDeletenice............nice............nice.............
ReplyDeleteडॉ.अजित जी,
ReplyDeleteमैं अभीभूत हूँ..कि आपने मुझे समर्थन दिया....
आपके ज्ञान के आगे तो मैं कुछ भी नहीं हूँ.....फिर भी आपने मान दिया...ह्रदय से आभारी हूँ..
इस तरह कि जानकारियां निहायत ही ज़रूरी अब महसूस हो रही हैं....
नई पीढी को असलियत से अवगत कराना अत्यांतावाश्यक हैं...
आपकी पोस्ट बहुत ही महत्वपूर्ण साबित होगी जिस तरह के आंकड़े आपने प्रस्तुत किये हैं उस हिसाब से...
ये आंकड़े स्पष्ट रूप से आर्थिक ह्रास दिखाते हैं...
आपका बहुत बहुत धन्यवाद...
स्नेह सहित..
'अदा'
mera blog visit karne ke liye aapka abhar.didi aapka aalekh bahut prashansneeya hai.
ReplyDeleteaur haan rishte hamesha dukhdayee hi hote hain.agar unme apnapan ho to wo moh ko janm dete hain.agar na ho,to akakipan ko.taqleef to har haal main ete hain.sapnon ke pure hone ki ak umeed to hoti hai.chahe jhoothi sahi.
अदा जी को भी पढ़ा.
ReplyDeleteआपको पढ़कर ज्ञानवर्धन हुआ, आभार.
आपके लेख 'मधुमती' मे पढ़े थे। बहुत ही विचारोत्तेजक, तथ्यों से भरपूर एवं सम्यक प्रस्तुति इनकी विशेषता है।
ReplyDeleteबड़े आश्चर्य की बात है भारत के आजाद होने के बाद भी अंग्रेजों के कारनामे छिपे रह गये या छिपाये गये।
ऐसे ही शोधपरक एवं वस्तुनिष्ट लेखों से इस दिशा में व्याप्त कुहासा छटेगा।
विचारोत्तेजक और ज्ञानवर्धक
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख
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ReplyDelete.
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डॉ० अजित गुप्ता जी,
काफी शोधपरक आलेख है, आभार।
आज के जमाने में और गुजरे जमाने में भी प्रत्येक देश की आर्थिक और औद्योगिक नीतियां उसके अपने हितों को सर्वोपरि मान कर बनाई जाती हैं/थीं...यह एक अकाट्य सत्य है... अब इसे आप लूट कहें या कुछ और...
बहुत ही रोचक और जानकारी भरा आलेख ..इतना तो पता था अँग्रेज़ों ने हमारे साथ अच्छा नही किया था..पर आपकी उम्दा पोस्ट उस बात कुछ साक्षात उदाहरण दे रही है....धन्यवाद
ReplyDeleteवाह...!
ReplyDeleteकाव्य के साथ गद्य-लेखन भी बहुत बढ़िया है आपका।
चिंता/चिंतन परक ! बहुत प्रभावपूर्ण प्रस्तुति एक विस्मृत होते कालखंड की !
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी जानकारी दी और आंकडों का तो क्या कहना !!!
ReplyDeleteअजित दीदी,
ReplyDeleteदेश फिर भी अंग्रेजी के मोह से पीछा नहीं छुटा पाया है।
किरण माहेश्वरी
ज्ञानवर्धक लेख!
ReplyDeleteअंग्रेजों ने हमारे देश को लूटा और सिर्फ लूटा है। लूटने के बाद भी संतुष्टि नहीं मिली तो जाते जाते हमारा विभाजन भी कर गये।
आचार्य चतुरसेन जी की पुस्तक 'सोना और खून' में भी अंग्रेजों के इतिहास बहुत अच्छी जानकारी है।
बहन जी!
ReplyDeleteसबसे पहले तो आपसे निवेदन है कि पोस्ट के टैक्स्ट का कलर नीला कर दें।
दूसरा यह कि फॉंट्स एण्ड कलर्स मे जाकर टैक्स्ट का साइज बड़ा कर दें।
"अंग्रेजी खूनी पंजे" बहुत सटीक लेख है।
बधाई!
शास्त्री जी
ReplyDeleteआपके कहे अनुसार परिवर्तन किया है, अब ठीक है। आप सभी का आभार। इस आलेख की अगली कड़ी कल पोस्ट करूंगी।
अंग्रेजों के कारनामे किसी से छुपे नहीं हैं ......... भारत को कमजोर करने में इन्होने सबसे बड़ी भूमिका अदा की है और आज भी कर रहे हैं ........... हाँ ये बात हम लोगों को शायद समझ नहीं आ रही
ReplyDeleteकपडा व्यापार के ये आपके आंकडे खुद ही सब कह जाते हैं । इसी तरह सालों साल जनता अकाल और भुखमरी में पिसती रही पर अंग्रेजी सरकार ने उनके लिये कुछ नही किया । बिहार में अनाज के जगह नील की खेती अपने मेंचेस्टर कपडा उद्योग के फायदे के लिये करवाई पर किसान को कभी इस कैश क्रॉप का लाभ नही पहुंचा । आपकी ये पोस्ट बहुत अच्छी लगी ।
ReplyDeleteडॉ अजित गुप्ता जी,
ReplyDeleteप्रणाम,
आपके बहुमूल्य विचार हमलोगों को इस पोस्ट पर प्राप्त हुए....बहुत बहुत आभार....
आपके अगले पोस्ट की प्रतीक्षा है...