अपने आसपास से इतर आखिर दुनिया क्या
है? हमारी सोच से परे आखिर दुनिया की सोच क्या है? दुनिया देखने के लिये झोला लेकर,
दुनिया की सैर तो नहीं की जा सकती है बस टीवी ही हमें दुनिया दिखा देती है।
मनुष्यों की दुनिया कमोबेश एक जैसी है, वही सत्ता का संघर्ष, वही अहंकार का वजूद! दुनिया
के हर कोने के मनुष्य का यही फलसफा है, बस अधिकार और अधिकार।
डिस्कवरी से प्रकृति को देखने की चाहत
बहुत कुछ दिखा देती है, तब लगता है कि मनुष्य को अभी बहुत कुछ सीखना है। प्रकृति
में सामंजस्य है लेकिन जागरूकता भी है। अपने परिवार की रक्षा कैसे करनी है, वे
जानते हैं। प्रणय से लेकर नयी पीढ़ी के पंख आने तक कैसी साधना करनी है, वे जानते हैं।
उनकी साधना का प्रकार बदलता नहीं है, छोटे से जीवन में भी पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही
साधना चली आ रही है, कुछ बदलता नहीं।
एक सुन्दर सा पक्षी, कबूतर से कुछ
बड़ा, घने जंगल में फूल एकत्र कर रहा है। सुन्दर बीजों का ढेर सजा दिया है। तिनकों
से झोपड़ी बना ली है। लग रहा है कि जंगल में किसी तपस्वी कन्या ने घर सजाया है। जब
सब कुछ सज गया है, तब प्रणय निवेदन के लिये पुकार के स्वर गूंज जाते हैं। साथी
पक्षी आता है, प्रणय निवेदन स्वीकार करता है और कुटिया में परिवार का डेरा सज जाता
है। इतना सुन्दर दृश्य, मन कहीं खो सा गया, एक पक्षी का सौन्दर्य बोध सीधे दिल में
उतर गया। अभी तक बया-पक्षी के घौंसले को ही उत्सुकता से देखा है लेकिन इस पक्षी की
कुटिया को देखकर मन रीझ सा गया!
इतनी सुन्दर कुटिया तो बचपन में भी
नहीं बना पाए थे! बरसात की भीगी मिट्टी, पैरों के ऊपर मिट्टी की तह जमा देना और
फिर आहिस्ता से पैर को बाहर निकाल लेना! फिर फूल चुनकर लाना, उस घरोंदे को सजाना,
एक खूबसूरत अहसास था। लेकिन इस पक्षी की खूबसूरती किसी भी पैमाने से नापी नहीं जा
सकती थी! बेहद खूबसूरत।
पहाड़ की ऊँची सतह, जहाँ मिट्टी की
पर्त थी, वहीं कोटरों में घौंसले बने थे। बाज पक्षी के छोटे-छोटे बच्चे वहाँ रह
रहे थे। बाज पक्षी अपनी यात्रा पर है,
शायद भोजन की तलाश में गया है। लेकिन उसकी दृष्टि में उसका परिवार है। वह देखता है
कि एक विशालकाय अजगर पहाड़ की ऊँचाई पर चढ़ रहा है. तेजी से आगे बढ़ रहा है।
बाज पक्षी ने उड़ान भर ली है। अभी अजगर
कोटर तक नहीं पहुँच पाया है और बाज उस पर प्रहार कर देता है एक ही झटके में अजगर, हवा
में तैरता हुआ पहाड़ से गिरने लगता है। बाज पक्षी को अभी भी विश्वास नहीं, वह पीछा
करता है। बीच पहाड़ में जहाँ अजगर को जमीन मिलने के आसार दिखते हैं, वह वहाँ से भी
उसे धकेलता है। तब कहीं जाकर निश्चिन्त होता है।
अपने परिवार को अपनी नजर में रखना,
प्रकृति सिखाती है। लेकिन मनुष्य भूल गया है। परिवार को छोड़ देता है, समाज को
छोड़ देता है और देश को भी छोड़ देता है। बस अकेला ही दुनिया को जीतने निकल पड़ता
है! कहते हैं कि मनुष्य प्रकृति को जीतने निकला है लेकिन लगता ऐसा है कि वह
प्रकृति को जान भी नहीं पाया है! प्रत्येक
जीव अपनी परम्परा से बंधा है, जो उसके पूर्वज करते रहे हैं, बस वह भी वही कर रहा
है। उसके गुण-सूत्रों में ही समाहित हो गये हैं, उसी से उसकी पहचान है। लेकिन
मनुष्य बस परिवर्तन दर परिवर्तन कर रहा है, उसकी
पहचान क्या है? कहीं खो सी गयी है। क्या मनुष्य रक्षक है या भक्षक? वह अपने
युगल के साथ भी ढंग से व्यवहार नहीं कर पा रहा है। जब युगल से ही व्यवहार का पता नहीं है तब अन्य प्रणियों के साथ सामंजस्य
कैसे रख सकेगा?
लगता है मनुष्य को प्रकृति से बहुत
कुछ सीखना है, सामंजस्य बनाकर चलना है। जो
उसके मूल गुण-सूत्र हैं, उन्हीं पर कायम रहना है। अपने सौन्दर्य बोध को जिंदा रखना
है। बहुत उन्नति कर ली है मनुष्य ने लेकिन फिर भी इन छोटे से प्राणियों से हार जाता
है। उस छोटे से पक्षी जैसा सौन्दर्य बोध शायद मनुष्य ने खो दिया है। वह प्रणय
निवेदन करना भी भूल गया है। अपने अधिकार को जगा लिया है, सब कुछ छीनकर प्राप्त
करना चाहता है। शायद प्रकृति का सौन्दर्य बोध उससे दूर होता जा रहा है! सब कुछ
कृत्रिम सा है! प्रकृतिस्थ कुछ भी नहीं! काश हम
प्रकृति के साथ चले होते, जैसे हमारे ऋषि-मुनियों की दुनिया थी! किसी पड़ाव
पर तो शान्ति मिलती! जीवन के अन्तिम पड़ाव पर खोज रहे हैं कि कहाँ बसेरा हो? लेकिन
कृत्रिम दुनिया के मकड़जाल में ऐसे फंसकर रह गये हैं कि कहीं मार्ग दिखता नहीं।
फूलों को एकत्र करने की चाहत भी जैसे इस कृत्रिमता के नीचे दब गयी है। काश हम भी
उसी पक्षी की तरह बन पाते, जो अपनी चोंच के सहारे ही इतना सुन्दर घर बना लेती है!
सुन्दर आलेख।
ReplyDeleteआभार शास्त्रीजी
ReplyDeleteआभार ओंकार जी
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