यह जो डर होता है ना, वह हमें चैन से रहने नहीं देता।
डर ही है जो हमें ऐसे-ऐसे काम कराता है जिसकी हम कल्पना तक नहीं करते। बच्चे को हम
डराते हैं कि चुप हो जा, नहीं तो हव्वा आ जाएगा! हव्वे का डर बच्चे के दीमाग में
बैठ जाता है और बड़ो को आराम हो जाता है। जब भी कोई समस्या आए तो बड़े हव्वा को
बाहर निकाल लाते हैं! लेकिन सोचो यदि यह हव्वा
समाप्त हो जाए, इसका अस्तित्व ही मिट जाए तो बच्चे आजाद हो जाएंगे। बड़ों के पास डराने
को कुछ नहीं रहेगा!
ऐसा ही कश्मीर में हुआ, 370 रूपी हव्वा से हम देश
को और कश्मीर को डराते रहे। मोदीजी ने 370
को एक झटके में समाप्त कर दिया और 70 साल के हव्वे का नामोनिशान मिटा दिया। डर
समाप्त हो गया तो लोकतंत्र आ गया। लेकिन कुछ लोगों को यह रास नहीं आया, डर तो आखिर
डर है ना! यह हमेशा रहना ही चाहिये! इसके समाप्त होने से तो कुछ लोगों की मनमर्जी
चल नहीं सकती।
हमारे लोकप्रिय नेता राहुल गाँधी ने एक कुनबा
खड़ा किया, सारे ही लोकप्रिय नेताओं को शामिल किया और चल पड़े मुहिम पर हव्वे को
स्थापित करने। कश्मीर के लोगों को बताने निकल पड़े कि हव्वा था और हमेशा रहेगा, तुम
इससे मुक्त नहीं हो सकते। तुम्हारी भलाई हव्वे के अस्तित्व के साथ ही जुड़ी है।
भला वो बच्चा ही क्या जो हव्वे से ना डरे, यह तो ऐसा ही हुआ कि बच्चे से उसका बचपन
छीन लो, उसे यकायक बड़ा बना दो। नहीं ऐसा नहीं चलेगा। राहुल गांधी ने कहा कि अभी
मेरा बचपन ही अक्षुण्ण है तो कश्मीरियों का भी रहना चाहिये, डर जरूरी है।
एक टोली बनाकर हवाई-जहाज में बैठ गये कि कुछ भी हो जाए, हव्वे को जीवित करके
ही दम लेंगे। अब मोदीजी ने क्या कर दिया की हव्वे को वेंटीलेटर तक पर नहीं रखा,
सीधे ही राम नाम सत्य कर दिया! सारे क्रिया-कर्म भी कर दिये। राख में से वापस
हव्वे को जीवित करने हमारे जुझारू नेता निकल पड़े। कश्मीर के हवाई-अड्डे पर जा
पहुँचे। लेकिन वहाँ जाकर कहा गया कि आप जिस हव्वे की तलाश में आए हो वह तो नाम
मात्र का भी यहाँ नहीं है, उसके नाम का डर
भी समाप्त हो रहा है। लोग घर के दरवाजे खुले रखकर आराम से घूम रहे हैं और
उन्हे दूर-दूर तक हव्वा दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन यदि आप लोग यहाँ से बाहर गये तो लोग आपके कपड़े जरूर फाड़ डालेंगे।
पूछेंगे कि बता हव्वा कहाँ था? इसलिये भलाई इसी में है कि आप लोग वापस जहाज में
बैठ जाओ। जहाज का पंछी पुन: जहाज में आवे, वाली बात कर लो। खैर राहुल जी वापस आ
गये, उनके सारे ही शागीर्द भी वापस आ गये लेकिन आकर बोले कि मैंने देखा था कि दूर
झाड़ियों के पीछे हव्वा था। आपने कितनी दूर तक देख लिया था? लोग पूछ रहे थे।
असल में वहाँ एक दर्पण लगा था, उस दर्पण में दूर
से धुंधली सी तस्वीर खुद की ही दिख रही थी, इन्हें ऐसा लगा कि हो ना हो यही हव्वा
है! बस दिल्ली आते ही बोले कि मैंने हव्वा देखा था। हव्वे का डर भी देखा था। पसीने
भी पोछते जा रहे थे और डर भी रहे थे कि अब क्या होगा? हव्वा समाप्त तो डर समाप्त
और डर समाप्त तो खेल समाप्त! 70 साल से जो पाकिस्तान और गाँधी-नेहरू खानदान मिलकर हव्वा-हव्वा
खेल रहे थे, उस खेल का ऐसे बेदर्दी से अन्त पच नहीं रहा है। पाकिस्तान के पास तो
इस खेल के अलावा और दूसरा खेल ही नहीं है, सभी लोग बस एक ही खेल रात-दिन खेले जा रहे
थे। लेकिन अब?
हव्वा तो उड़ गया लेकिन उसके डर को ये लोग ढूंढ
रहे हैं, भागते चोर की लँगोटी की तरह! हव्वा तो अब कश्मीर में वापस आएगा नहीं,
उसका डर भी भाग ही जाएगा लेकिन डर इनके
अन्दर घुस गया है वह जाता नहीं। बे फालतू घूम रहे हैं और हव्वे को ढूंढ रहे हैं। अपने
साथ झाड़-फूंक वालों को भी लेकर घूम रहे हैं कि हव्वा ना सही डर को तो अभी स्थापित
कर ही दें लेकिन डर कश्मीर की जगह इनके दिलों को डरा रहा है कि अब क्या होगा? लगे
रहो, तुम्हारा डर ही आमजन के डर को निकालकर बाहर करेगा। तुम अब धूणी रमाओ और
कश्मीर को खुली हवा में साँस लेने दो। राम-राम भजने का समय आ गया है तो राम-राम भजो।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (28-08-2019) को "गीत बन जाऊँगा" (चर्चा अंक- 3441) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार शास्त्रीजी।
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