सेकुलर बिरादरी और मुस्लिम बुद्धिजीवी दोनों ही होच-पोच होने लगे हैं। अन्दर ही अन्दर देगची में ऐसा कुछ पक रहा है जिससे इनकी नींद उड़ी हुई है। महिलाएं आजाद होने की ओर कदम बढ़ाने लगी हैं। कभी तीन तलाक सुर्खियों में आता है तो कभी बुर्का! पुरुषों का अधिपत्य पर पत्थर फेंकना ही बाकी रह गया है बाकि तो उनके खिलाफ बगावत का बिगुल बज ही उठा है। आप कहेंगे कि मैं क्या बिना सिर-पैर की हाँक रही हूँ! लेकिन यह सच है कि महिलाएं संकेत देने लगी हैं। सऊदी अरब जैसे मुल्क में महिलाओं को आजाद किया जा रहा है तो भारत जैसे सेकुलर और हिन्दू बहुसंख्यक देश में तो देगची में से खदबदाने की आवाज आ ही जाएगी! हिन्दू दुनिया में सर्वाधिक स्वतंत्र धर्म है, यहाँ महिलाओं के ऊपर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। क्या कहा कि आप नहीं मानते! यदि प्रतिबन्ध होता तो बॉलीवुड से लेकर राजनैतिक और धार्मिक लोगों के परिवार की युवतियाँ इतनी आसानी से मुस्लिम सम्प्रदाय में निकाह नहीं कर सकती थीं। हर शिक्षित और समृद्ध युवक का निकाह हिन्दू युवती के साथ हुआ है और हो रहा है। ऐसे में मुस्लिम युवती भी बेचैनी महसूस कर रही है, वह भी आजाद होना चाहती है। लेकिन जैसे ही कोई तस्लीमा नसरीन आजादी की ओर बढ़ती हैं, उसपर परम्पराओं की बेड़ी पहनाने का काम ये प्रगतिशील बुद्धिजीवी करने लगते हैं। बॉलीवुड में मुस्लिम भरे पड़े हैं लेकिन जावेद अख्तर सरीखी मानसिकता ही सबकी है। वे सारे ही हिन्दू युवतियों से निकाह करते हैं और मुस्लिम युवतियों को मौलानाओं के रहम पर छोड़ देते हैं।
लेकिन जैसे ही मोदी ने कहा कि मैं किसी भी महिला के साथ अन्याय नहीं होने दूंगा। सभी को देश में समान आजादी होगी, बस फिर क्या था, महिलाओं को आशा की किरण दिखायी देने लगी और इन धर्म के आकाओं को अपना वजूद खतरे में पड़ता दिखायी दिया। बस रोज ही कोई ना कोई मुद्दा उछाल दिया जाता है कि हम मुस्लिम सम्प्रदाय की परम्पराओं पर आँच नहीं आने देंगे, फिर चाहे वे परम्पराएं दुनिया में कहीं भी अपना अस्तित्व नहीं बचा पायी हों! जब सारी दुनिया बुरके को प्रतिबंधित करना चाहती है, तब ऐसे में सर्वाधिक प्रगतिशील माने जाने वाले जावेद अख्तर कहते हैं कि बुरका और घूंघट दोनों ही बराबर हैं! अपने सम्प्रदाय की महिला की आजादी की बात इतने बड़े प्रगतिशील को भी नहीं भायी! यदि बुरके की आड़ में आतंकवादी अपना खेल खेल रहे हैं तो समय की मांग को देखते हुए उस पर प्रतिबंध से महिला को भी आजादी मिल जाएगी और आतंक पर भी चोट लगेगी। अब ये प्रगतिशील बुद्धिजीवी महिला को आजादी नहीं देना चाहते या आतंक को चोट नहीं देना चाहते! उन्हें इस बात का उत्तर तो देना ही होगा। तीन तलाक का मुद्दा भी ऐसे ही लोगों ने लटकाया हुआ है। जावेद अख्तर जैसी शख्सियत अपने सम्प्रदाय की वकालात तो करते हैं लेकिन महिलाओं को इंसाफ दिलाना तो दूर उनकी आजादी पर खुलेआम चोट करते हैं। ऐसे लोग डरे हुए लोग हैं, चार विवाह की सौगात जो मिली है इनको! कहीं कुछ पुरुषों का छिन ना जाए, इस बात से दहशत में हैं।
महिला समझ रही है, बगावत के लिये निकल भी पड़ी है। बस अभी देगची खदबदा रही है, पता नहीं लग रहा है कि देग में क्या पक रहा है? लेकिन बहुत जल्दी पकेगा भी और देगची को फोड़कर बाहर आएगा भी। अन्दर की बात ये लोग सब जानते हैं, इसलिये डरे हुए हैं। दबाकर रखो, मुँह सिल दो, महिला की जुर्रत नहीं होनी चाहिये कि वह जुबान खोल दे। कट्टर मौलाना ही नहीं आजाद ख्याल जावेद को भी बोलना ही पड़ेगा तभी पुरुषों की हैवानियत बच सकेगी। ये लोग महिला पर इस धरती पर तो अत्याचार कर ही रहे हैं और उस धरती पर भी 72 हूरों का ही ख्वाब दिखा रहे हैं! मतलब औरत पर अत्याचार उनकी मानसिकता में पुख्ता जम गया है। जावेद अख्तर हो या फिर कोई और, सब अपने लिये गुलाम रखने की आजादी के लिये मुस्तैद दिखायी दे रहे हैं। लेकिन जितना शोर ये मचाएंगे उतनी ही देगची पर पक रही महिलाओं की आजादी, फूटकर बाहर आएगी। ये जावेद अख्तर के रूप में सम्पूर्ण सम्प्रदाय के आकाओं का डर बाहर निकलकर आ रहा है। बस देखना यह है कि देगची फूटती कब है? जिस दिन देगची फूटेगी, उस दिन जावेद अख्तर जैसे लोग सबसे पहले लहुलुहान होंगे। बस इंतजार करिये।
लेकिन जैसे ही मोदी ने कहा कि मैं किसी भी महिला के साथ अन्याय नहीं होने दूंगा। सभी को देश में समान आजादी होगी, बस फिर क्या था, महिलाओं को आशा की किरण दिखायी देने लगी और इन धर्म के आकाओं को अपना वजूद खतरे में पड़ता दिखायी दिया। बस रोज ही कोई ना कोई मुद्दा उछाल दिया जाता है कि हम मुस्लिम सम्प्रदाय की परम्पराओं पर आँच नहीं आने देंगे, फिर चाहे वे परम्पराएं दुनिया में कहीं भी अपना अस्तित्व नहीं बचा पायी हों! जब सारी दुनिया बुरके को प्रतिबंधित करना चाहती है, तब ऐसे में सर्वाधिक प्रगतिशील माने जाने वाले जावेद अख्तर कहते हैं कि बुरका और घूंघट दोनों ही बराबर हैं! अपने सम्प्रदाय की महिला की आजादी की बात इतने बड़े प्रगतिशील को भी नहीं भायी! यदि बुरके की आड़ में आतंकवादी अपना खेल खेल रहे हैं तो समय की मांग को देखते हुए उस पर प्रतिबंध से महिला को भी आजादी मिल जाएगी और आतंक पर भी चोट लगेगी। अब ये प्रगतिशील बुद्धिजीवी महिला को आजादी नहीं देना चाहते या आतंक को चोट नहीं देना चाहते! उन्हें इस बात का उत्तर तो देना ही होगा। तीन तलाक का मुद्दा भी ऐसे ही लोगों ने लटकाया हुआ है। जावेद अख्तर जैसी शख्सियत अपने सम्प्रदाय की वकालात तो करते हैं लेकिन महिलाओं को इंसाफ दिलाना तो दूर उनकी आजादी पर खुलेआम चोट करते हैं। ऐसे लोग डरे हुए लोग हैं, चार विवाह की सौगात जो मिली है इनको! कहीं कुछ पुरुषों का छिन ना जाए, इस बात से दहशत में हैं।
महिला समझ रही है, बगावत के लिये निकल भी पड़ी है। बस अभी देगची खदबदा रही है, पता नहीं लग रहा है कि देग में क्या पक रहा है? लेकिन बहुत जल्दी पकेगा भी और देगची को फोड़कर बाहर आएगा भी। अन्दर की बात ये लोग सब जानते हैं, इसलिये डरे हुए हैं। दबाकर रखो, मुँह सिल दो, महिला की जुर्रत नहीं होनी चाहिये कि वह जुबान खोल दे। कट्टर मौलाना ही नहीं आजाद ख्याल जावेद को भी बोलना ही पड़ेगा तभी पुरुषों की हैवानियत बच सकेगी। ये लोग महिला पर इस धरती पर तो अत्याचार कर ही रहे हैं और उस धरती पर भी 72 हूरों का ही ख्वाब दिखा रहे हैं! मतलब औरत पर अत्याचार उनकी मानसिकता में पुख्ता जम गया है। जावेद अख्तर हो या फिर कोई और, सब अपने लिये गुलाम रखने की आजादी के लिये मुस्तैद दिखायी दे रहे हैं। लेकिन जितना शोर ये मचाएंगे उतनी ही देगची पर पक रही महिलाओं की आजादी, फूटकर बाहर आएगी। ये जावेद अख्तर के रूप में सम्पूर्ण सम्प्रदाय के आकाओं का डर बाहर निकलकर आ रहा है। बस देखना यह है कि देगची फूटती कब है? जिस दिन देगची फूटेगी, उस दिन जावेद अख्तर जैसे लोग सबसे पहले लहुलुहान होंगे। बस इंतजार करिये।
ब्लॉग बुलेटिन टीम और मेरी ओर से आप सब को विश्व हास्य दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएँ !!
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 05/05/2019 की बुलेटिन, " विश्व हास्य दिवस की हार्दिक शुभकामनायें - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 8 मई 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
शिवम् मिश्राजी एवं पम्मी सिंह जी का आभार।
ReplyDelete