40 प्रतिशत इधर और 40 प्रतिशत उधर, शेष 20 प्रतिशत या तो नदारद या फिर कभी इधर और कभी उधर। सत्ता का फैसला भी ये ही 20 प्रतिशत करते हैं, ये सत्ता की मौज लेते रहते हैं। सत्ताधीशों को अपने 40 प्रतिशत को तो साधे रखना ही होता है लेकिन साथ में इन 20 प्रतिशत को भी साधना होता है। कांग्रेस कहती है कि भाजपा ने अपना वोट बैंक मजबूत कर रखा है और भाजपा कहती है कि कांग्रेस ने मजबूत कर रखा है। सम्राट तो अकबर ही था लेकिन उसने नौ रत्न दरबारी के रूप में रख लिये अब आजतक भी अकबर के साथ उन नौ रत्नों का जिक्र होता है। सम्मानित दरबारी नौ ही थे लेकिन हजारों इसी आशा में रहते थे कि कभी हमारा भी नम्बर आ ही जाएगा। सत्ता के साथ यही होता रहा है, आज भी यही हो रहा है। कुछ ऐसे हैं जो जानते हैं कि अपनी योग्यता के बल पर कभी भी सत्ता के लाभ नहीं ले सकते अंत: वे सत्ताधीषों के दरबारी बने रहते हैं कि उनकी झूठन ही सही, कुछ तो मिलेगा। लेकिन कुछ ऐसे होते हैं कि उन्हें अपनी योग्यता पर गुरूर होता है, वे कहते हैं कि हम सर्वाधिक योग्य हैं इसलिये हमारा हक बनता है। चुनावों में बागी उम्मीदवार ऐसी ही सोच रखते हैं, कुछ जीत जाते हैं तो कुछ जमानत भी बचा नहीं पाते। जो जीत जाते हैं वे उदाहरण बन जाते हैं और लोग फिर अपनी योग्यता पर दांव लगाने लगते हैं।
चुनाव के अतिरिक्त ऐसे ढेर सारे बुद्धिजीवी भी होते हैं, इनमें पत्रकार प्रमुख हैं। ये सत्ताओं को हमेशा धमकाते रहते हैं, ये सत्ता के सारे लाभ लेना चाहते हैं। सत्ता इन्हें लाभ देती भी है लेकिन सभी को लाभ मिले यह सम्भव नहीं और जब सम्भव नहीं तो इनका विरोध झेलना ही पड़ता है। वर्तमान में स्थिति यह है कि भाजपा ने इनके लाभ की प्रतिशत में कटौती कर दी तो असंतुष्टों का प्रतिशत भी बढ़ गया। एक और वर्ग जिसे सोशल मीडिया के नाम से जाना गया, वह भी इस भीड़ में शामिल हो गया। पत्रकार हो या सोशल मीडिया का लेखक पहले किसी दल के पक्ष में लिखता है, उसके करीब आता रहता है, पाठक भी उसे उसी दल का समर्थक मान लेता है और उसके लेखन को पढ़ते-पढ़ते उसके मुरीद बन जाते हैं। जब अच्छी खासी संख्याबल एकत्र हो जाता है तब वह आँख दिखाना शुरू करता है, सत्ता के अपना हिस्सा मांगने लगता है। यदि सत्ता ने ध्यान नहीं दिया तो नुक्सान की धमकी देता है। कितना नुक्सान कर पाते हैं या नहीं यह तो पता नहीं चलता लेकिन समाज में असंतोष फैल जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि इनके कारण हार हुई है, कुछ लोग कहते हैं कि इनका असंतोष का काबू में रखना चाहिये और इन्हें भी सत्ता के लाभ देने चाहियें। इस चुनाव में भी यही हुआ, क्या पत्रकार और क्या सोशलमीडिया का लेखक दोनों ने ही अपनी दावेदारी दिखायी। अनेक समाचार पत्र जिन्हें भाजपा अपनी ही मानती रही थी, उन्होंने जमकर आँख दिखायी, ऐसे ही सोशलमीडिया के लेखक ने भी जमकर आँख दिखायी।
मेरा कहना यह है कि जो भी आँख दिखा रहा है, उसे अपने चालीस प्रतिशत में शामिल मत करिये, वे उन 20 प्रतिशत में हैं जो आपको कभी भी पटकनी दे सकता है। इनसे खतरा दोनों ही दलों को बराबर है। इनपर अपनी ऊर्जा व्यय करने से अच्छा है अपने ही बुद्धीजीवी को सम्मान देना प्रारम्भ करें। यदि दो चार को भी सम्मानित कर दिया तो असंतोष का रास्ता बन्द हो जाएगा। बस हर मोर्चे पर ऐसे लोगों की पहचान जरूर करें, चाहे वे नेता हो, कार्यकर्ता हों, पत्रकार हों या फिर सोशल मीडिया का लेखक। क्योंकि जब लालच उपजने लगता है तब उसकी सीमा नहीं होती, इसलिये लालच को बढ़ावा देने से अच्छा है, उसके सामने दूसरा श्रेष्ठ विकल्प खड़ा कर दें। संघ में बहुत विचारक हैं, उन्हें लामबन्द करना चाहिये और इस क्षेत्र में उतारना चाहिये। आज की आवश्यकता है छोटा और सार्थक लेखन, जिसे आसानी से आमजन पढ़ सके। सनसनी फैलाना या किसी के लिये अपशब्दों का प्रयोग करने से बचना होगा क्योंकि इससे विश्वसनीयता समाप्त होती है। हमें सोशल मीडिया पर ऐसे कोई भी समूह दिखायी नहीं देते जो सारगर्भित लेखन कर रहे हों, या किसी के लेख को समूह रूप में स्वीकार कर रहे हों। बस दोनों तरफ से झूठ और गाली-गलौच का सामान तैयार है, सभी को खुली छूट मिली है कि वह कुछ भी लिखे और कुछ भी कॉपी-पेस्ट करे। संगठन को अपनी जिम्मेदारी लेनी चाहिये कि ऐसी किसी पोस्ट पर एक्शन ले। संगठन की जवाबदेही ही बहुत सारे लोगों को सही मार्ग पर ला सकती है ना कि उनका मौन। यदि संगठन ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी और केवल मौन को ही अंगीकार किया तब उनके कार्य पर भी प्रश्नचिह्न लगेगा।
मेरा कहना यह है कि जो भी आँख दिखा रहा है, उसे अपने चालीस प्रतिशत में शामिल मत करिये, वे उन 20 प्रतिशत में हैं जो आपको कभी भी पटकनी दे सकता है। इनसे खतरा दोनों ही दलों को बराबर है। इनपर अपनी ऊर्जा व्यय करने से अच्छा है अपने ही बुद्धीजीवी को सम्मान देना प्रारम्भ करें। यदि दो चार को भी सम्मानित कर दिया तो असंतोष का रास्ता बन्द हो जाएगा। बस हर मोर्चे पर ऐसे लोगों की पहचान जरूर करें, चाहे वे नेता हो, कार्यकर्ता हों, पत्रकार हों या फिर सोशल मीडिया का लेखक। क्योंकि जब लालच उपजने लगता है तब उसकी सीमा नहीं होती, इसलिये लालच को बढ़ावा देने से अच्छा है, उसके सामने दूसरा श्रेष्ठ विकल्प खड़ा कर दें। संघ में बहुत विचारक हैं, उन्हें लामबन्द करना चाहिये और इस क्षेत्र में उतारना चाहिये। आज की आवश्यकता है छोटा और सार्थक लेखन, जिसे आसानी से आमजन पढ़ सके। सनसनी फैलाना या किसी के लिये अपशब्दों का प्रयोग करने से बचना होगा क्योंकि इससे विश्वसनीयता समाप्त होती है। हमें सोशल मीडिया पर ऐसे कोई भी समूह दिखायी नहीं देते जो सारगर्भित लेखन कर रहे हों, या किसी के लेख को समूह रूप में स्वीकार कर रहे हों। बस दोनों तरफ से झूठ और गाली-गलौच का सामान तैयार है, सभी को खुली छूट मिली है कि वह कुछ भी लिखे और कुछ भी कॉपी-पेस्ट करे। संगठन को अपनी जिम्मेदारी लेनी चाहिये कि ऐसी किसी पोस्ट पर एक्शन ले। संगठन की जवाबदेही ही बहुत सारे लोगों को सही मार्ग पर ला सकती है ना कि उनका मौन। यदि संगठन ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी और केवल मौन को ही अंगीकार किया तब उनके कार्य पर भी प्रश्नचिह्न लगेगा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-12-2018) को "कुम्भ की महिमा अपरम्पार" (चर्चा अंक-3189) (चर्चा अंक-3182) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आज की राजनीतिक व्यवस्था का बहुत सटीक आंकलन...
ReplyDeleteशास्त्री जी आभार।
ReplyDeleteकैलाश शर्मा जी आभार।
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