चुनाव भी क्या तमाशा है, अपनी-अपनी भेड़ों को
हांकने का त्योहार लगता है। एक खेत में कई लोग डण्डा गाड़कर बैठ जाते हैं और
भेड़ों को अपनी-अपनी तरफ हांकने लगते हैं। भेड़ें भी जानती हैं कि उन्हें किधर
मुँह करके बैठना है। आजकल कुछ भेड़ें कहने लगी है कि मैं किसी मालिक को नहीं
मानती, मैं किसी के पाले में जाकर नहीं बैठूंगी। एक बार एक बड़ा सा भेड़ों का झुण्ड
रात को एक खेत में बसेरा किये बैठा था, मैंने खेत के मालिक से पूछ लिया कि
तुम्हारें खेत में ये भेड़ें बैठी हैं तो तुम्हारे खेत का तो बहुत नुक्सान होता होगा?
खेत मालिक बोला कि नहीं, इन भेड़ों से तो हमें बहुत फायदा है, रात भर में जितनी
मेंगनी करती हैं, वो हमारे खेत के लिये भरपूर खाद हो जाता है, हम इसकी भारी कीमत
भेड़ के मालिक को चुकाते हैं। भेड़ की मेंगनी से लाखों के वारे-न्यारे होते हैं तो
भला ऊन से तो कितनी कमायी होती होगी? इसलिये भेड़ों को अपनी तरफ किया जाता है। अब
जो भेड़ें किसी भी खेत में बैठने को तैयार नहीं, वे कहीं तो मेंगनी करेंगी ही ना!
वे समझ रही हैं कि हमारी मेंगनी का फायदा किसी को नहीं होना चाहिये लेकिन कोई ना
कोई तो फायदा उठा ही रहा है! आज चुनाव के माध्यम से मेंगनियों का व्यापार हो रहा
है। भेड़ों को समझाया जा रहा है कि तुम स्वतंत्र रहो, किसी के खेत पर मेंगनी करने
की जरूरत नहीं। भेड़ें तो भेड़े ही रहने वाली हैं, वे सोच रही हैं कि हम अपनी
मर्जी के मालिक बन गये लेकिन उन्हें पता नहीं कि वे सदा से भेड़ थी और भेड़ ही
रहेंगी। उनको बेमौल कोई ना कोई मूंड ही रहा है।
भेड़ की ऊन का कोट कौन पहनेगा, बस सवाल इतना सा
है। कुछ लोगों को मेंगनी भी चाहिये, ऊन भी चाहिये और भेड़ की खाल भी चाहिये। कुछ
कहते हैं कि हमें केवल मेंगनी और ऊन ही चाहिये। भेड़ें तय नहीं कर पाती कि हमारी
खाल खेंचने वाले के पाले में जाएं तो क्योंकर जाएं लेकिन जाती हैं! एक भेड़ ने पूछ
भी लिया कि मेरी खाल तो नहीं उतारोगे? मालिक बोला कि पगला गयी है क्या? तुझे पता
नहीं तू कुर्बानी की भेड़ है, तेरी किस्मत कितनी बड़ी है कि तू कुर्बान होगी और फिर
भेड़ हंसती-हंसती पाले में चले जाती है। दूसरे पाले वाला चिल्लाता रहता है कि देख
मैं तेरी खाल नहीं खेचूंगा लेकिन भेड़ को समझ आ चुका है कि वह भी कुर्बान हो सकती
है। चुनाव में जिधर देखो उधर ऐसे ही मजमा लगा है। भेड़ें भी मिमिया रही हैं, गले
में घण्टी बंध गयी है, रंग-रोगन भी हो गया है। जिसके पाले में ज्यादा भेड़ें होंगी
वे ही सारी भेड़ों का मालिक बन जाएगा फिर किसी भी खेत में ना बैठने वाली भेड़ें भी
उसी मालिक से मूंड़ी जाएंगी। तेरी भेड़ और मेरी भेड़ अलग-अलग दिखती हैं लेकिन ऊन
और मेंगनी सभी ने देनी है, मालिक के लिये सभी बराबर है। लेकिन चुनाव के समय देख तू
भेड़ा है और तू भेड़ है, तू इस प्रदेश की भेड़ है और तू इस प्रदेश की है, तू श्रेष्ठ
है और तू निकृष्ठ है का भाव बता दिया जाता है। ब्राह्मण भेड़ दलित भेड़ से भिड़
जाती है, दलित महा दलित से भिड़ जाती है, गुत्थम-गुत्था हो रही है और मालिक खुश है
कि अलग हो-होकर सारी हमारे पास आ रही हैं। यह खेल चलता ही रहता है, भेड़ें भी खुश
रहती हैं कि उनकी मेंगनी के भी दाम लग रहे हैं और मालिक भी खुश रहता है और जिसके
खेत में बैठती हैं वह भी खुश रहता है। चारों तरफ खुशी ही खुशी छायी रहती है, लगता
है कि वसन्त खिल गया है। कहीं से घण्टियों का शोर सुनायी देता है तो कहीं से
में-में की आवाजें दिल को सुकून देती हैं, कि भेड़ें आ रही हैं। कोई सीधे चलकर
पाले में बैठ रही हैं और कोई टेड़ी चाल से बाद में आकर बैठेंगी, बैठेंगी दोनों ही।
चुनाव के बाद बड़ी मात्रा में ऊन एकत्र होगी, इधर के पाले की भी और उधर के पाले की
भी और नोटा वाले की भी। फिर सब केवल भेड़े रह जाएंगी, मुंड़ी हुई भेड़ें। चुनाव का
डण्डा फिर कहीं गड़ जाएगा और दूसरी जगह की भेड़ें मुंड़ने के लिये तैयार हो
जाएंगी।
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन एहसासों के दीप जलाना, अच्छा है पर कभी-कभी - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteआभारसेंगर जी
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