Saturday, September 1, 2018

जनता तुम्हारा नोटा बना देगी

हमने पिताजी और माँ के जीवन को देखा था, वे क्या करते थे, वह सब हमारे जीवन में संस्कार बनकर उतरता चला गया। लेकिन जिन बातों के लिये वे हमें टोकते थे वह प्रतिक्रिया बनकर हमारे जीवन में टंग गया। प्रतिक्रिया भी भांत-भांत की, कोई एकदम नकारात्मक और कोई प्रश्नचिह्न लगी हुई। जब हवा चलती है तब हम कहते हैं कि यह जीवन दायिनी है लेकिन जब यही हवा अंधड़ के रूप में विकराल रूप धर लेती है तो कई अर्थ निकल जाते हैं। ऐसी ही होती हैं स्वाभाविक क्रिया और प्रतिक्रिया। मैंने कोशिश की जीवन में कि मैं बच्चों को कम से कम सीख दूँ, वे स्वाभाविक रूप से हमारे जीवन को देखें और अनुसरण करें। लेकिन कभी हमारे स्वाभाविक आचरण से भी प्रतिक्रिया हो जाती है। मुझे एक बात का स्मरण हो गया, मेरी ननद की शादी थी, यह शादी हमने ही की थी और धूमधाम से की थी। बेटा सबकुछ देख रहा था, उसने मुझसे पूछा कि क्या बहन की शादी भाई को ही करनी होती है? मैंने कहा कि यह प्रश्न क्यों? वह बोली कि यदि ऐसा है तो मैं तो नहीं करूंगा। बच्चे की बात पर हम सब हँसकर रह गये लेकिन जब आज उस बात को सोचती हूँ तो यह अच्छी बात की प्रतिक्रया लगती है। हम क्रिया कर रहे थे लेकिन बच्चे के दीमाग में प्रतिक्रिया जन्म ले रही थी। हम अक्सर सोचते हैं कि हमने तो अच्छा किया लेकिन लोगों ने हमारे साथ बुरा क्यों किया! कई बार देखा है कि जिन लोगों के साथ हमने अच्छा किया होता है, अक्सर वे लोग हमसे दूर हो जाते हैं। क्यों हो जाते हैं? जैसा मेरे बेटे ने कहा कि क्या मुझे भी यह करना होगा, बस यही बात हमें रिश्ते निभाने से दूर कर देती है। हमारे अच्छे काम अक्सर विपरीत असर दिखाते हैं, लोग कहते हैं कि हमें भी ऐसा ही करना होगा! चलो इनसे दूर हो लेते हैं।
अच्छे काम की बुरी प्रतिक्रिया परिवार में ही नहीं होती अपितु समाज में भी होती है और राजनीति में भी होती है। अच्छा राजा हो तो प्रजा की आँखों में खटकने लगता है क्योंकि प्रजा अपने कर्तव्य से भागना चाहती है। इसलिये जितने भी श्रेष्ठ राजा हुए हैं उन्हें कठिन संघर्ष से गुजरना पड़ा है। हमारे अन्दर सर्वाधिक भाव स्वार्थ का होता है, हम सबकुछ अपने लिये ही पाना चाहते हैं इसलिये जैसे ही किसी राजा ने या गृहस्वामी ने सबके लिये कार्य करना शुरू किया, हमारे मन में विरोध के भाव आ जाते हैं। आज की राजनीति को यदि देखें तो यही दिखायी देता है कि मोदी सरकार का सारा विरोध इसी बात को लेकर है। उनके समर्थक भी कह रहे हैं कि हमारे लिये विशेष अधिकार क्यों नहीं? उनके विरोधी भी कह रहे हैं कि सभी के लिये क्यों? सब अपना हिस्सा चाहते हैं। इसलिये घर में संतान को ही सम्पत्ती देने की परम्परा बनी, यदि संतान को सम्पत्ती नहीं तो वह शत्रु से भी अधिक क्षति करेगा। राजनीति में कुछ लोगों पर अनुग्रह करने की परम्परा बनी जिससे ये अनावश्यक रूप से शत्रु ना बन जाएं? मोदी सरकार की सबसे बड़ी भूल यही होगी कि उन्होंने लोगों के सामने चाँदी के सिक्के नहीं उछाले! आज हर समाज का तबका विशेष बनना चाह रहा है, वे सामाजिक रूप से कुछ नहीं कर रहे लेकिन उन्हें विशेषाधिकार चाहिये। जो लड़ाई समाज की है, जो कर्तव्य समाज के हैं, उन्हें वे राजनीति में घसीट रहे हैं। सब जानते हैं कि भारत में सदियों से छूआछूत है, किसी जाति को सारे अवसर मिले और किसी को कुछ मिलना तो दूर उसे इतना हीन बना दिया गया कि वह कल्पना में भी अपने लिये अच्छा नहीं सोच सकता था। यह सारी दुनिया में था लेकिन दुनिया ने इसे समझा और सामाजिक रूप से इस विभेद को दूर किया। आज दुनिया में सामाजिक छुआछूत इतना प्रबल नहीं है जितना भारत में दिखायी देता है। यह सब सामाजिक इच्छा शक्ति से हुआ है ना कि राजनीति द्वारा। आज देश में जितने भी सामाजिक और धार्मिक संगठन हैं उनसे प्रश्न करना होगा कि उनने सामाजिक समरसता के लिये कितने लोगों को उच्च या सवर्ण वर्ग में दीक्षित किया? बना दीजिये सभी को सवर्ण और स्थापित करिये बेटी-रोटी का सम्बन्ध फिर देखिये कहाँ विरोध रहता है? समाज में यदि वर्ग भेद को अपने मन से नहीं निकालेंगे और उन्हें खुलेआम नीचा दिखाने का काम करेंगे या सम्बोधन में नीचा दिखाएंगे तो वे प्रतिक्रिया अवश्य करेंगे। अब यदि अपने लिये विशेषाधिकार मांगते हुए ना मिलने की दशा में देश को की तबाह करने की सोच विकसित होने लगी तो देश तो तबाह नहीं होगा, हाँ आप जरूर तबाह हो जाओंगे।
मैं परिवार से लेकर देश तक, सबकुछ - सबके लिये के सिद्धान्त पर चली हूँ और आगे भी चलती रहूँगी। यह देश सभी का है, यदि किसी भी समाज ने केवल अपना आधिपत्य स्थापित करने की मानसिकता का प्रदर्शन किया और राजनीति को धमकाकर अपने लिये विशेषाधिकार की मांग की तो राजनीति करने वाले नष्ट नहीं होंगे अपितु आप का नामोनिशान मिट जाएगा। दुश्मन हजारों साल से हमारी इसी कमजोरी का फायदा उठाता रहा है और हमें तोड़ता रहा है लेकिन आज भी जिस शिक्षा और डिग्रियों के नाम पर इतराते फिरते हो, वे किसी काम की नहीं हैं जब आप को इतना ज्ञान भी नहीं कि एकता में ही शक्ति है। राजनीति में धमकाने की परम्परा को छोड़ दो, शायद भगवान के सामने भी कुछ लोगों ने यही धमकी दी होगी कि हम ना तो पुरुष को मानेंगे और ना ही स्त्री को तो भगवान ने उन्हें दोनों से ही अलग बना दिया। नोटा का प्रयोग भी यही है। कुछ नारे लगा रहे हैं कि घर-घर अफजल निकलेगा और कुछ नारे लगा रहे कि घर-घर नोटा निकलेगा। याद रखना जिस भी राजा के सामने संघर्षों की बाढ़ आयी है, वही राजा सुदृढ़ होकर निकला है, फिर चाहे वह चन्द्रगुप्त हो या अशोक। चाँदी के सिक्के तो तुम्हारे सामने मोदी उछालेगा नहीं, अब अपनी औकात में आ सको तो आ जाओ नहीं तो तुम नोटा दबाने की बात कर रहे हो, जनता तुम्हारा नोटा बना देगी। 

2 comments:

  1. बिडम्बना है कि जनता सबकुछ देखते हुए भी वास्तविकता कभी समझ ही नहीं पाती, वह फिर-फिर वही गलती दुहराती है

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