कभी आप उदयपुर में राजीव गांधी पार्क के सामने फतेहसागर को निहारने के लिये खड़े हुए हैं? मुझे तो वह दृश्य दीवाना बनाता है। चारों तरफ अरावली पर्वतमाला की श्रंखला और मध्य में लहलहाता फतेहसागर! फतेहसागर के किनारे जहाँ पानी कम है वहाँ कुछ पेड़ भी अपनी जड़े जमाएं मजबूती से खड़े हैं और इन पेड़ों पर पक्षी बसेरा बनाकर रहते हैं। मैं इस दृश्य को आँखों से पीने लगती हूँ, निगाहें चारों तरफ घूम जाती हैं, कभी पहाड़ की कोई चोटी जिस पर बना मन्दिर अपनी ओर ध्यान खींच लेता है तो कभी किलोल करते पक्षी मन लुभा लेते हैं। लेकिन एक दिन निगाहें एक शिल्पकार द्वारा बनाए शिल्प पर ठहर गयी। वैसे भी फतेहसागर के किनारे शिल्पकारों का सृजन खूबसूरती बढ़ाने में योगदान कर रहा है लेकिन एक शिल्प खड़ा था पानी में, उस पर एक कृत्रिम पक्षी बैठा था और नीचे लिखा था – यह झील हमारा भी पुश्तैनी घर है, इसे नष्ट होने से बचाएं। जहाँ मनुष्य हर उस चीज पर कब्जा करता जा रहा है, जहाँ तक उसकी पहुंच हो गयी है। वहीं पक्षियों के पुश्तैनी घर की बात करना प्रकृति को सम्मान देने का अनूठा प्रकार था। जब यह झील बनी होगी उसके पूर्व यहाँ जंगल ही होंगे, पहाड़ों से आकर पानी यहाँ एकत्र होता होगा और तब झील के लिये यह उपयुक्त स्थान लगा होगा और राजा द्वारा बना दी गयी होगी फतेहसागर झील। झील पशुओं के पानी पीने के लिये बनायी गयी थी, पशु और पक्षी यहाँ निर्भय होकर विचरण करते होंगे लेकिन आबादी बढ़ी, मनुष्य का हर स्थान पर दखल बढ़ा और पशुओं का तो आना ही बन्द हो गया लेकिन भला पक्षियों को कौन सी सरहद रोक सकती है? वे तो साइबेरिया से भी आ जाते हैं! इस झील पर भी ढेरों पक्षियों का डेरा रहता है लेकिन कैसी विडम्बना है जिस मनुष्य को हम सृष्टि के रक्षक के रूप में पहचानते हैं आज उसी मनुष्य से पक्षियों की रक्षा करने का आह्वान करते हैं!
अभी कुछ दिनों से पक्षियों की संख्या में कमी आयी है, झील सूनी-सूनी लग रही है, जैसे बच्चे विहीन घर हो। लेकिन जैसे ही मौसम का आमंत्रण मिलेगा, पक्षी यहाँ आ जाएंगे। वे लौट आएंगे अपने पुश्तैनी घर में। यहाँ देश-विदेश से हजारों की संख्या में पक्षी आते हैं, कुछ यहीं ठहर जाते हैं और कुछ वापस लौट जाते हैं। जो हमारे लिये कौतुहल है वह उनका घर है। इस कौतुहल को देखने प्रशासन ने जगह बना दी है, एक दीवार भी खड़ी कर दी है और चम्पा के पाँच पेड़ भी लगा दिये हैं। चम्पा खूब फूल रहा है, दीवार पर पूरी आड़ कर दी है चम्पा ने। इसके नीचे प्रेमी युगल आराम से बैठ सकते हैं, एकबारगी तो दिखायी भी नहीं देते लेकिन पास आने पर दिख ही जाते हैं। आजकल यहाँ लड़के-लड़की बैठे हुए मिल ही जाते हैं और उनके हाथ में या तो खाने का कोई सामान होता है या फिर वही से खऱीदे हुए भुट्टे तो होते ही हैं। वे डोली पर बैठते हैं, खाते हैं और कचरे को नीचे फेंक देते हैं। नीचे झील में प्लास्टिक का कचरा एकत्र होने लगता है और जब बड़ा सा बगुला अपनी चोंच को पानी के अन्दर डालकर मछली की तलाश करता है तब मछली के स्थान पर कचरा चोंच में आता है। हम खुबसूरती देखने आते हैं और बदसूरती दे जाते हैं। जो पक्षी निर्मल जल की तलाश में यहाँ तक आए थे, वे निराश होने लगते हैं। लड़के-लड़की प्रकृति के मध्य प्रेम करते हैं लेकिन प्रकृति को ही नष्ट कर देते हैं, यह कैसा आचरण है! होना तो यह चाहिये कि वे यहाँ आते और इसे और भी सुन्दर बना जाते, यहाँ वे भी लिख जाते कि प्रेम का यहाँ पुश्तैनी घर है, झीलों और प्रेम के रिश्तों को बचाकर रखे। कभी तो ऐसा लगता है कि हम मन्दिर जाएं और मन्दिर में ही गन्दगी फैलाकर आ जाएं! क्या ये झीलें किसी भी मन्दिर से कम हैं? जब इनका पीनी रीतने लगता है तब हम दुखी हो जाते हैं और जब यह लबालब होकर छलक जाती हैं तो हम खुशी से झूमने लगते हैं। क्या केवल प्रशासन के भरोसे ही झीलें स्वच्छ रह सकेंगी? क्या ये पक्षी हमें नहीं कह रहे हैं कि हमारे पुश्तैनी घर को गन्दा मत करो! नौजवान पीढ़ी जो प्रेम में है वह प्रेम के मायने ही नहीं समझें तो कैसा प्रेम है? प्रेम तो स्वच्छता चाहता है, पावनता चाहता है, सुरभित वातावरण चाहता है तभी तो हम किसी झील के किनारे या किसी कुंज में अपने प्रेम के साथ आकर बैठते हैं! लेकिन शायद ये प्रेमी नहीं हैं, ये प्रकृति को लूटने आए हैं, अपनी वासना के तले रौंदने आए हैं। ये मदमस्त होकर झीलों को उजाड़ने आए हैं। शायद कोई आ जाए जो लिख जाए कि ये प्रकृति प्रेम के कारण ही है, प्रेम का यही पुश्तैनी ठिकाना है, हम इसे सुन्दर बनाएंगे।
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आभार शास्त्रीजी।
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