कई दिनों से मुक्ति भवन की कहानी
दिमाग में घूम रही है, न जाने कितने पहलू पर
विचार किया है, किसके क्या मायने हैं,
समझने की कोशिश कर रही हूँ। इसी उधेड़बुन में अपनी बात लिखती हूँ, शायद हम सब मिलकर कोई नया अर्थ ही ढूंढ लें। एक फिल्म बनी है – मुक्ति भवन, वाराणसी पर है। सच्ची कहानी पर बनी है कि कैसे लोग मोक्ष की चाहना में
अपने अन्तिम दिनों में वाराणसी के मुक्ति भवन में रहने चले जाते हैं और वहीं से
अपनी अन्तिम यात्रा पर चले जाते हैं। एक तरफ प्रबल आसक्ति है मोक्ष की और दूसरी
तरफ प्रबल विरक्ति है इस जीवन से। हमारे देश में कहा जाता है कि काशी वह जगह है
जहाँ मृत्यु होने पर मोक्ष मिलता है। लोग इसी आसक्ति में अपनी अन्तिम दिनों में
वाराणसी के मुक्ति भवन में चले जाते हैं। यह मुक्ति भवन 100 सालों से न जाने कितने
चाहने वालों को परमधाम भेज चुका है, वाराणसी वाले लोग ज्यादा
बता पाएंगे।
एक बार वृन्दावन में एक दम्पत्ती मिल
गये थे, यह संस्मरण मैंने पहले भी लिखा है, वे बोले कि हम यहाँ मरने के लिये पड़े हैं। मुझे यह बात कुछ-कुछ समझ आयी
लेकिन अभी फिल्म देखकर पूरी बात समझ आ रही है। हम साक्षात देखते हैं कि हमारे
अन्दर जीवन के प्रति कितनी आसक्ति है, कितनी ही आयु हो जाए
लेकिन मरना कोई नहीं चाहता। लेकिन मोक्ष की आसक्ति जीवन की असक्ति से कहीं बड़ी बन
जाती है और हम इस जीवन को शीघ्रता से त्याग देना चाहते हैं। ऐसे लोग जीवन से, परिवार से इतने विरक्त हो जाते हैं कि कोई भी मोह उन्हें परिवार से जोड़
नहीं पाता है, बस दूर होते चले जाते हैं। सबसे बड़ी बात है
कि हम अपने अहम् से भी दूर चले जाते हैं, सुख-सुविधाओं से भी
दूर चले जाते हैं। जिस अहम् के लिये हम सारा जीवन राग-द्वेष पालते हैं, सुख-सुविधा जुटाते हैं उसे त्याग देना इतना आसान भी नहीं है लेकिन मोक्ष
की आसक्ति भी इतनी प्रबल है कि अहम् भी कहीं पूछे छूट जाता है, अपनी आत्मा का मोह भी छूट जाता है और शेष रह जाती है परमात्मा में विलीन
होने की चाहत।
मुक्ति भवन पर फिल्म क्यों बनी? क्या दुनिया को भारत की सोच दिखाने का प्रयास था या यहाँ की विभस्तता।
कैसे लोग अन्तिम दिनों में पुराने जर्र-जर्र भवन में एकान्तवास काटते हैं, इसके दोनों ही पहलू हो सकते हैं। दुनिया को यह संदेश दिया जा सकता है कि
आज भी कैसे मणिकर्णिका घाट जीवन्त है और मोक्ष की आस्था का स्थल बना हुआ है। या
फिर वृद्धावस्था की विभिषिका दिखाकर एक कुरूप चेहरा दिखाने का मन हो। जो भी है, लेकिन सच्चाई तो है, हमारा त्याग समझने के लिये
बहुत समय लगता है। सिकन्दर भी इस त्याग को समझने के लिये भारत आया था, लेकिन समझ नहीं पाया था, फिल्मकार कितने समझे हैं
और कितना भुनाने की कोशिश में है, यह तो वहीं जाने लेकिन
मुझे जरूर सोचने पर जरूर मजबूर कर गया। मोक्ष की आसक्ति भी नहीं रखे और बस एकान्त
में सभी को भूलकर अपना जीवन प्रकृति के साथ आत्मसात करते हुए बिताने का सुख जरूर
मन में है। इस जीवन में कैसे-कैसे समझौते हैं, अपने मन से
दूर ले जाने के कैसे-कैसे तरीके हैं, लेकिन अपने मन के पास
रहने के लिये बस एक ही तरीका है, अपने मन के साथ एकान्त में
जीवन यापन। काश हम भी उस दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ कोई फैसला ले पाएं और प्रकृति के
साथ घुलमिल जाएं। काश!
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’काकोरी कांड के वीर बांकुरों को नमन - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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