नन्हें अतिथि को तो आना ही था लेकिन
दादी से मिलने की जल्दी उसे भी थी और बस 29 अक्तूबर को नन्हें कुँवर जी हमारी गोद
में थे। अभी जेट-लेक ने अपना असर भी नहीं दिखाया था कि भाग-दौड़ में जुट गये।
लेकिन एक नवीन अनुभव था मेरे लिये। अमेरिका के अस्पताल और यहाँ का स्टाफ मेरे दिल
में बस गये हैं। बड़े पोते के समय तो मैं नहीं थी लेकिन छुटके के समय मुझे नयी
बातें सीखने को मिली, कितनी आत्मीयता से प्रसव कराया जाता है, सच में सीखने की बात
है, लेकिन इसका पासंग भी हमारे देश में नहीं है। एक कारण तो जनसंख्या भी है, किसी
भी अस्पताल में चले जाओ, लोग भरे हुए मिलेंगे लेकिन यहाँ सभी कुछ व्यवस्थित।
जैसे ही सुबह 5.30 पर अस्पताल में पैर
रखा, बस कान हमेशा खड़े ही रहे, कोई नर्स या बार्ड बॉय आकर टोक देगा कि यहाँ नहीं,
यहाँ से हटो। लेकिन कहीं से भी कोई
टोका-टाकी नहीं। सभी जगह मुस्कराते हुए स्वागत। क्या डॉक्टर और क्या नर्स सभी जैसे
आत्मीयता का खजाना हो! सारे ही गलियारे सूने बस अतिथि कक्ष में गिनती के दो-चार
लोग।
लेबर-रूम में भी प्रसव होने के बाद
सभी को जाने की छूट, लग रहा था कि जैसे घर में ही हों। इतनी आत्मीयता भरा वातावरण
होता है कि प्रसूता विश्वास से भरी होती है कि मैं सुरक्षित हाथों में हूँ। हमारे
देश में तो हर ओर डॉटना ही चलता है। पति को लेबर रूम में रहने की छूट होती है और
वह सहयोगी के रूप में रहता है। मुझे भी कहा गया कि यदि आपको भी रहना है तो रह सकती
हैं, लेकिन मेरे साथ बड़ा पोता भी था तो हमने रूकना उचित नहीं समझा। प्रसव के बाद बच्चे को नहलाना आदि सभी काम हमारे सामने
ही किये गये। इतनी सहजता से सब कुछ किया जा रहा था कि गोपनीयता की कोई गुंजाइश ही नहीं
रहती। यह सब मैं क्यों लिख रही हूँ! भावानात्मक बातें लिखी जा सकती थी लेकिन हमारे
देश को यह जानना जरूरी है कि हमारे जीवन में काम का क्या महत्व है और इसे भगवान का
प्रसाद मानकर करना चाहिये, जैसे अमेरिका में होता है। काम में ही उनका आनन्द टपकता
है। इतना खुश रहते हैं कि जैसे काम नहीं कर रहे हैं अपितु आनन्द कर रहे हैं!
एक नवीन जानकारी भी मिली कि खतना करना
यहाँ आम रिवाज है, जन्म के साथ ही अस्पताल में कर दिया जाता है। ईसाई और मुस्लिम
दोनों ही करते हैं। हम से भी डॉक्टिर ने आकर पूछा, मैं तो समझ ही नहीं पायी कि
क्या पूछ रही है, क्योंकि हमें तो इसका अनुभव ही नहीं आया। भारत में तो शायद
मुस्लिमों में भी जन्म के समय नहीं होता है, फिर मुझे पता भी नहीं। खैर बहुत ही
अच्छा अनुभव रहा, हमेशा याद रहेगा। first cry भी याद रहेगी और डॉक्टरों का अपनापन भी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (01-11-2017) को
ReplyDeleteगुज़रे थे मेरे दिन भी कुछ माँ की इबादत में ...चर्चामंच 2775
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'