#हिन्दी_ब्लागिंग
मैं कहीं अटक गयी हूँ, मुझे जीवन का छोर दिखायी
नहीं दे रहा है। मैं उस पेड़ को निहार रही हूँ जहाँ पक्षी आ रहे हैं, बसेरा बना रहे हैं। कहाँ से आ रहे हैं ये पक्षी? मन में
प्रश्न था। शायद ये कहीं दूर से आए हैं और इनने अपना ठिकाना कुछ दिनों के लिये
यहाँ बसा लिया है। पहले तो इन पक्षियों को कभी यहाँ नहीं देखा, बस दो-चार साल से
ही दिखायी पड़ रहे हैं। सफेद और काले पक्षी, बड़े-बड़े पंखों वाले पक्षी। उड़ते
हैं तो आकाश नाप लेते हैं और जब जल में उतर जाते हैं तो किस तरह इठलाते हुए तैरते
हैं। इनका उड़ना, इनका लहराकर पेड़ पर बैठना कितना आकर्षक है! मेरे रोज का क्रम हो
गया है इन पक्षियों को देखने का। मन करता है कि यहाँ से नजर हटे ही ना। इन बड़े
पक्षियों के साथ नन्हीं चिड़ियाओं की दुनिया भी यहाँ बसती है। सैकड़ों की तादाद
में आती हैं और इन्हीं तीन-चार पेड़ों पर अपना ठिकाना बना लेती हैं। शाम पड़ते ही
इनका काफिला फतेहसागर की ओर चल पड़ता है, चहचहाट पूरे वातावरण को संगीतमय बना देती
है। ये चिड़िया भी अपनी गौरैया नहीं है, कोई विदेशी नस्ल की ही दिखायी देती हैं। रात होने को है और अब चिड़ियाएं धीरे
से उड़कर पेड़ के नीचे के हिस्से में चले गयी हैं, वहाँ सुरक्षित जो हैं। ये पेड़
मानों इन पक्षियों की हवेली है जिसमें नीचे की मंजिल में नन्हीं चिड़िया रहती हैं
और ऊपर बड़े पक्षी।
गर्मी के दिनों में नन्हीं चिड़ियाएं दिखायी
नहीं दे रही थी, शायद वे भी ननिहाल गयी होंगी! लेकिन जैसे ही मौसम सुहावना हुआ, ये
लौट आयी हैं। बड़े पक्षी अपने देश नहीं लौटे और इनने अपना पक्का ठिकाना यहाँ पर ही
बना लिया है। तभी आकाश में हवाईजहाज गरजने लगता है, न जाने कितने पक्षी दूसरे देश
में बसेरा ढूंढने निकल पड़े होंगे! मेरी इस खूबसूरत झील में दुनिया जहान के पक्षी
आए हैं अपना सुकून ढूंढने, ये लौटकर नहीं जा रहे हैं और इस जहाज में लदकर न जाने
कितने बाशिंदे दूसरे देश में सुकून ढूंढ रहे हैं। तभी लगता है कि जीवन रीतने लगा
है, इस पेड़ पर बड़े पक्षी हैं तो नन्हें पक्षी भी है। ये आपस में बतियाते तो
होंगे, सारा वातावरण तो गूंज रहा है इनकी बातों से। लेकिन मन खामोश है, न जाने
कितने घर खामोश हैं और शहर खामोश हैं। इन घरों की बाते रीत गयी हैं, यहाँ कोई
बतियाने नहीं आता। घरों के पक्षियों ने दूसरे देश में सुकून ढूंढ लिया है। बूढ़े
होते माँ-बाप पूछ रहे हैं कि किस पेड़ पर जीवन मिलेगा? क्या हमें भी अपना बसेरा
उजाड़ना पड़ेगा? क्या हमें भी सात समन्दर पार जाना पड़ेगा? ये पक्षी तो मेरे शहर
में आ बसे हैं लेकिन शायद मुझे इनका साथ छोड़ना
पड़ेगा।
मनुष्य क्यों यायावर बन गया है, ये पक्षी शायद
इन्हें यायावरी सिखा रहे हैं। अब मुझे क्रोध आने लगा है इन पर, तुम क्यों चले आये
अपने देश से? तुमने ही तो सिखाया है मनुष्य को दूसरे देशों में बसना। तुम्हारा
जीवन तो सरल है लेकिन हमारा जीवन सरल नहीं
है, तुम्हारें पास लोभ नहीं है, संग्रह नहीं है, तुम छोड़कर कुछ नहीं आते। लेकिन
हमें तो जीवन का हिसाब करना होता है। किस-किस माँ को क्या-क्या जवाब दूं कि
परिंदों सा जीवन नहीं हैं हमारा। परिंदे जब उड़ते हैं तो आजादी तलाशते हैं, वे किसी
झील को अपना मुकाम बना लेते हैं, जहाँ जीवन में सब कुछ पाना हो जाता है। ये परिंदे
भी सबकुछ अपने पीछे छोड़कर आए हैं, इनके पीछे कोई नहीं आया। सभी के पेड़ निर्धारित
हैं, सभी की झीलें निर्धारित हैं। कोई इस देश की झील में बसेरा करता है तो कोई
पराये देश की झील में बसेरा करता है। मनुष्य कब तक स्वयं को दूसरों से अलग मानता
रहेगा? घुलना-मिलना ही होगा हमें इन पक्षियों के साथ। इनके जीवन की तरह अकेले
रहकर ही बनाना होगा अपना आशियाना। जब ये
पक्षी अकेले ही जीवन जीते हैं तो हम क्यों नहीं! हमने घौंसला बनाया, परिंदों को
पाला, लेकिन अब वे उड़ गये हैं। उन्हें उड़ने दो, अपना संसार बसा लेने दो। उनकी
गर्मी-सर्दी उनकी है, हम किस-किस को अपनी छत देंगे? कब तक देंगे और कब तक देने की
स्थिति में रहेंगे? वे भी हमें कब तक आश्वासन देंगे? यहाँ फतेहसागर की झील में
कितने ही पक्षियों का बसेरा है, हम भी हमारे ही देश में इन परिन्दों की तरह बसे
रहेंगे। पेड़ बन जाएंगे जहाँ पक्षी अपना बसेरा बना सके। इन जहाजों में जाने दो युवाओं
को, उनको दूर देश की झील ने मोह लिया है लेकिन हमें अपनी झील के आकर्षण में बंधे
रहना है।
ये नये देश का मोह है या अच्छी ज़िन्दगी बसर करनी लालसा ये कहना मुश्किल है। हमारी पहले की पीढी गाँवों से शहर की तरफ आई तो यही लालसा थी। अब नई पीढ़े शहर से दूसरे देश की तरफ जा रही है तो यही लालसा है। कुछ नये लोग जा रहे है लेकिन अधिकतर देश में ही हैं।लेकिन जो देश में हैं वो भी अपने अपने घरो से दूर हैं।शायद यही इस लालसा का अभिशाप है। आपको पैसे तो मिलेंगे लेकिन परिवार का साथ न मिलेगा। मुझे वो लोग भाग्यवान ही लगते हैं जो घर में रहते हुए पैसे, नौकरी सब पा लेते हैं। वरना हम छोटे कस्बों के लोग तो प्रवासी ही बनते हैं।न इधर के रह पाते हैं और न उधर के रह पाते हैं।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-08-2017) को "चौमासे का रूप" (चर्चा अंक 2702) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
विकास नैनवाल. सही कह रहे् हैं आप। आभार आपका।
ReplyDeleteशास्त्री जी आभार।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’गणेश चतुर्थी और ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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