Sunday, May 21, 2017

माँ को भी जीने का अधिकार दे दो

इन दिनों सोशल मीडिया में माँ कुछ ज्यादा ही गुणगान पा रही है। हर ओर धूम मची है माँ के हाथ के खाने की। जैसै ही फेसबुक खोलते हैं, एक ना एक पोस्ट माँ पर होती है, उसके खाने पर होती है। मैं भी माँ हूँ, जैसे ही पढ़ती हूँ मेरे ऊपर नेतिक दवाब बढ़ने लगता है, अच्छे होने का। अभी हम जिस जमाने में जी रहे हैं, वहाँ संयुक्त परिवार विदा ले चुके हैं, अब तो एकल परिवार ही दिखायी दे रहे  हैं। शिक्षा के कारण युवा एकल परिवार से भी वंचित हो गया है, अब युवक और युवती दोनों को ही अकेले किसी महानगर या विदेश में जीवन यापन करना होता है। विवाह की भी बात कर रही हूँ, जरा रूकिये। विवाह होने के बाद एक से दो हो जाते हैं लेकिन दोनों ही रसोई से अनजान होते हैं। जैसे-तैसे पेट भरने का जुगाड़ कर लिया जाता है लेकिन भोजन की तृप्ति क्या होती है, वे भूल ही जाते हैं। अब माँ याद आती है, माँ कैसा भी भोजन बनाती थी लेकिन वे जो खा रहे हैं उससे तो लाख गुणा अच्छा ही  होता था। जब ऐसी परिस्थिति अपने घर में भी देखती हूँ तो मेरे ऊपर नैतिक दवाब स्वाभाविक रूप से पड़ने लगता है और मैं कुछ नया और कुछ रुचिकर बनाने की ओर ध्यान देने लगती हूँ।
अब अपनी माँ के बारे में सोचती हूँ, वह सीधा-सादा भोजन बनाती थी, हमें बिना हाथ हिलाये भोजन मिलता था तो परम स्वादिष्ट ही लगता था  लेकिन दुनिया में आने वाले नये व्यंजनों को बनाने की शुरुआत हम ही करते थे। हम से मतलब नयी पीढ़ी है। हमें हमारी माँ के हाथ से बने भोजन की आदत सी हो जाती है और मन करने लगता है कि वही स्वाद हमें मिलता रहे। लेकिन माँ क्या चाहती है, यह कोई नहीं सोचता! जैसे ही नयी पीढ़ी आंगन में अंगड़ाई लेने लगती है, माँ भी सोचने लगती है कि अब मुझे भी कुछ नया व्यंजन खाने को मिलेगा। लेकिन ऐसा होता नहीं है। बस माँ तू अच्छी है, यही गुणगान सुनकर चुप लगा जाती है। भारतीय परिवारों में अभी तक नासमझी बरकरार है कि बेटे का घर बसेगा और बहु आकर सास की सेवा करेगी। माँ पलक-पाँवड़े बिछा देती है कि अब तो मुझे भी कोई भोजन कराएगा। लेकिन यह क्या बहु तो बेटे से भी अधिक कोरी निकल जाती है। उसने भी केवल शिक्षा पर ही ध्यान दिया, पेट कैसे भरा जाएगा चिन्तन ही नहीं किया!
बेचारी माँ, बुढ़ापे में भी रसोई में अपनी टूटी कमर को लेकर साधी खड़ी रहने का प्रयास करती है और माँ के हाथों में जन्नत  है इस बात को पोर-पोर से सुनती हुई खाना बनाने को मजबूर होती रहती है। कोई बेटा नहीं कहता कि माँ मैं तेरी सेवा करना चाहता हूँ, तू मेरे पास चली आ, बस सभी यह कहते सुने जाते हैं कि माँ तेरे हाथ के खाने का मन कर रहा है। माँ महान होती है, पुत्र कपूत हो सकता है लेकिन माता कुमाता नहीं होती है। अरे बस भी करो, सारे भाषण! माँ को भी जीने का अधिकार दे दो। उसकी सेवाओं की भी उम्र तय कर दो। तुम सेवा नहीं कर सकते तो जाने दो लेकिन बुढ़ापे में उनकी उम्र पर तो गाज ना गिराओ।
अन्तिम बात, अब जब हम सारे काम खुद कर सकते हैं तो क्या लड़का और क्या लड़की दोनों को ही पेट भरने के और जीने के सारे ही काम सिखाइये। माँ को अनावश्यक महान मत बनाइये, वह भी जीवित प्राणी है, उसे भी कुछ चाहिये। माँ पर लिखने से पहले यह सोचिये कि क्या किसी माँ ने भी अपने बेटे पर लिखा कि उसने माँ का जीवन धन्य कर दिया हो। जब संतान बड़ी हो जाती है तब माँ का कर्तव्य पूरा हो जाता है, इसलिये परस्पर सम्मान और प्रेम देने की सोचिये ना कि खुद की नाकामी छिपाकर माँ को काम में जोतिए।

(सारी संतानों से क्षमा मांगते हुए)

8 comments:

  1. उसकी सेवाओं की भी उम्र तय कर दो। तुम सेवा नहीं कर सकते तो जाने दो लेकिन बुढ़ापे में उनकी उम्र पर तो गाज ना गिराओ। बहुत स्टीक वेदना पर कलम चलाई आपने.
    रामराम

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-05-2017) को
    मैया तो पाला करे, रविकर श्रवण कुमार; चर्चामंच 2635
    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. दिनांक 24/05/2017 को...
    आप की रचना का लिंक होगा...
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
    आप की प्रतीक्षा रहेगी...

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  4. सटीक प्रस्तुति..
    यह समाज का सत्य रूप है किसी को इतना महान बना देना कि वह विवस हो जाए..
    लेखनी के द्वारा इस पक्ष को सामने लाने के लिए धन्यवाद।

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  5. बिल्कुल सही...... सटीक...।
    अक्सर ऐसा ही होता है...
    इसी महानता के वशीभूत माँ हर हाल में पिसती चली जाती है.....
    बहुत ही लाजवाब प्रस्तुति.....

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  6. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’युवाओं के जज्बे को नमन : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  7. बहुत सही। पर माँको मन में जिन्दा रखने का एक बहाना तो है।

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