पूरब और पश्चिम फिल्म का एक गीत मुझे जीवन के
हर क्षेत्र में याद आता है – कोई शर्त
होती नहीं प्यार में, मगर प्यार शर्तों पे तुमने किया ......। लड़की के रूप में
जन्म लिया और पिताजी ने लड़के की तरह पाला, बस यही प्यार की पहली शर्त लगा दी गयी।
हम बड़े गर्व के साथ कहते रहे कि हमारा बचपन लड़कों की तरह बीता लेकिन आज लगता है
कि यह तो एक शर्त ही हो गयी। हम लड़की के रूप में बचपन को संस्कारित क्यों नहीं कर
पाए? समाज का यह आरक्षण कितना कष्टकारी है, आज अनुभव में आने लगा है। अक्सर पुरुष
बहस करते हैं, वे अपने मार्ग का रोड़ा महिला को मानते हैं। कई चुटकुले भी प्रचारित
करते हैं कि मोदी जी अकेले और योगीजी अकेले, इसलिये ही इतनी उन्नति कर पाए। लेकिन
संघर्ष क्या होता है, यह शायद पुरुषों को मालूम ही नहीं। जब आप जन्म लें और आपका
व्यक्तित्व ही बदल जाए, जब आपके व्यक्तित्व को ही नकार दिया जाए, तब शुरू होता है
संघर्ष। जब महिला होने के कारण आप विश्वसनीय ही नहीं रहें, आप की बुद्धि चोटी में
है, कहकर आपकी उपेक्षा की जाए, तब शुरू होता है संघर्ष। आप केवल उपयोग और उपभोग की
ही वस्तु बनकर रह जाएं तब शुरू होता है संघर्ष। आप पुरुष के संरक्षण में रहने के
लिये बाध्य कर दी जाएं, तब शुरू होता है संघर्ष। आपको अपने तथाकथित घर से दूसरे घर
में स्थानान्तरित कर दिया जाए, आपका नाम और उपनाम बदल दिया जाए, तब होता है
संघर्ष। इतने प्रारम्भिक संघर्षों के बाद किसी
पुरुष ने अपना जीवन प्राम्भ किया है क्या?
विवाह के बाद घर बदला, संरक्षण बदला, अभी जड़े
जमी भी नहीं कि उत्तरदायित्व की बाढ़ आ गयी। उपयोग और उपभोग दोनों ही खूब हुआ
लेकिन जब निर्णय में भागीदारी की बात आये तो आप को पीछे धकेल दिया जाए। नौकरी की,
लेकिन यहाँ भी निर्णय के समय अन्तिम पंक्ति में खड़ा कर दिया जाए। आप योग्य होकर
भी अपने निर्णय नहीं ले सकते, क्योंकि आप पुरुषों के कब्जाए क्षेत्र में हैं। फिर
ताने ये कि आपका क्या, आपकी एक मुस्कान पर
ही काम हो जाते हैं। मतलब आप उपभोग की
वस्तु हैं। मैंने अपने जीवन में अनेक प्रयोग किये, अनेक बदलाव किये। जब काम की
स्वतंत्रता नहीं तो मन उचाट होने लगा और लेखन की ओर मुड़ने लगा। लेकिन महिला होने
के संघर्ष को कभी स्वीकार नहीं किया, ऐसा लगता रहा कि ये संघर्ष तो सभी के जीवन
में आते हैं। एक जगह यदि महिला के साथ
संघर्ष है तो क्या दूसरे क्षेत्र में नहीं होगा। नौकरी छोड़ दी और सामाजिक कार्य
की राह पकड़ी। माध्यम बना लेखन। लेकिन अनुभव आने लगा कि यहाँ भी महिला होना सबसे बड़ी पहचान है। लेखन के माध्यम से जैसे
ही प्रबुद्ध पहचान बनने लगी, आसपास हड़कम्प मच गया। यह परिवर्तन स्वीकार्य नहीं
हुआ, कहा गया कि कार्य बदलो। लेकिन मुझे अभी और अनुभव लेने शेष थे। अभी भी मेरा मन
नहीं मानता था कि यह संघर्ष महिला होने का है। फिर नया काम, नये लोग लेकिन अंत वही
कि महिला को महिला की ही तरह रहना होगा, निर्णय की भागीदारी नहीं मिलेगी। कितने ही लोग आए, कितने
ही काम आए, लेकिन सभी जगह एक ही बात की आप काम करें लेकिन नाम हमारा होगा। इतनी
मेहरबानी भी तब मिलेगी जब आप उनके लिये उपयोगी सिद्ध होंगी।
आखिर सारा ज्ञान और अनुभव लेने के बाद यह समझ
आने लगा कि महिला के संघर्ष को केवल महिला ही भुगतती है, जिन्दगी भर जिस बात को
नकारती रही, उसी बात पर आज दृढ़ होना पड़ा कि मेरे संघर्ष अन्तहीन हैं। घर से लेकर
बाहर तक मुझे संघर्ष ही करना पड़ेगा। किसी महिला के संघर्ष को पुरुष के संघर्ष से
मत तौलो। पुरुष का संघर्ष केवल उसका खुद से है जबकि महिला का संघर्ष सम्पूर्ण समाज
से है। हमारा संघर्ष हमारे गर्भाधान से शुरू होता
है, भाग्य से बच गये तो जीवन मिलता है, जीवन मिलता है तब या तो पुरुष की
तरह पाला जाता है या पुरुषों के लिये पाला
जाता है। फिर जीवन आगे बढ़ता है तो दूसरे गमले में रोपकर बौंजाई बना दिया जाता है,
बौंजाई पेड़ से एक वट-वृक्ष के समान छाया की उम्मीद की जाती है। संघर्ष अनन्त हैं,
संघर्ष करते-करते मन कब थकने लगता है और फिर भगवान से मांग बैठता है कि अगले जन्म
मोहे बेटी ना कीजो। लेकिन यदि पुरुषों के कब्जाए संसार को मुक्त करा सकें तो इतना
संघर्ष करने के बाद मीठे ही मीठे फल लगे दिखायी देंगे और हर महिला गर्व से कह
सकेंगी कि अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो। बस जिस दिन समाज की शर्तें समाप्त हो जाएंगी, जब महिला कह सकेगी कि कोई शर्त होती
नहीं प्यार में......।
औरतों की ज़िन्दगी बहुत ही कठिन होती है श्रीमती अजित जी।
ReplyDelete"मैंने अक्सर देखा है कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्रियों की दिनचर्या अन्य स्त्रियों की तुलना में बहुत ही कठिन होती है। जहाँ मुश्किल घड़ी में पुरुष धैर्य खो देता है वहीँ स्त्रियाँ दुर्गा बन परिस्थितियों का सामना करती हैं।"
ये पंक्तियाँ मेरी कहानी "पत्नी-पुराण" से ली गई हैं।
सादर आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों --
लिंक है : http://rakeshkirachanay.blogspot.in/
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-04-2017) को
ReplyDelete"जिन्दगी का गणित" (चर्चा अंक-2614)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
विक्रमी सम्वत् 2074 की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार राकेश जी
ReplyDeleteशास्त्रीजी आभार
ReplyDeleteनारी की व्यथा बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त की है आपने। आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ। आपके विचार एवम आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा। बाक़ीबकी पोस्ट्स भी जरूर पढूंगी।
ReplyDelete