Wednesday, February 15, 2017

काश हम विशेष नहीं होते

सामान्य और विशेष का अन्तर सभी को पता है। जब हम सामान्य होते हैं तो विशेष बनने के लिये लालायित रहते हैं और जब विशेष बन जाते हैं तब साँप-छछून्दर की दशा हो जाती है, ना छछून्दर को छोड़े बनता है और ना ही निगलते बनता है। आपके जीवन का बिंदासपन खत्म हो जाता है। जब मैं कॉलेज में प्राध्यापक बनी तब कई बार कोफ्त होती थी कि क्या जीवन है! फतेहसागर पर जाकर गोलगप्पे भी नहीं खा सकते। क्योंकि कोई ना कोई छात्र आपको देख लेगा और आपका विशेषपन साधारण में बदल जाएगा। महिलाओं के साथ तो वेशभूषा को लेकर भी परेशानी होती है, बाहर जाना है तो साड़ी  ही पहननी है, नहीं तो ठीक नहीं लगेगा। कई बैठकों में सारा दिन साड़ी में लिपटे गर्मी खा रहे होते थे तब मन करता था कि शाम को तो सलवार-सूट पहन लिये जाये लेकिन फिर वही विशेष का तमगा! सारे  ही पुरुष कुर्ते-पाजामे में और हम साड़ी में।
यह सब तो बहुत छोटी-छोटी बातें  हैं, असली बात है सम्मान और अपमान की। इस देश में जो भी चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होता है, उसे ही सम्मान मिलता है। आप साधारण हैं और संघर्षों के बाद विशेष बने हैं तो दुनिया चाहे आपको स्वीकार ले लेकिन आपके नजदीकी कभी भी आपको स्वीकार नहीं पाते हैं। आप सम्मानित व्यक्ति हैं यह बात उनके गले नहीं उतरती, यहाँ तक तो ठीक है लेकिन वे आपको छोटा सिद्ध करने के लिये कदम-कदम पर अपमानित करते रहते हैं, यह बात आपको हिला देती है। क्या मित्र और क्या परिवारजन सभी आप से दूर होने लगते हैं या कभी-कभी आप ही अपमान से बचने के लिये उनसे दूर हो जाते हैं। जब तक आप किसी को भी लाभ देने की स्थिति में हैं तब तो आपको सम्मान मिलेगा लेकिन यदि आप लाभ देने की स्थिति में नहीं हैं तो अपमान के लिये तैयार रहना  होगा।

लेखन ऐसी चीज है, जिससे आप किसी को लाभ नहीं दे सकते हैं लेकिन यदि आपके विचार अच्छे हैं तो आप सम्मान जरूर पा जाते हैं। बस यही सम्मान जी का जंजाल बन जाता है। आपका सम्मान मुठ्ठीभर लोग करेंगे और अपमान को तैयार सारा जग रहेगा। तब लगने लगता है कि काश हम विशेष ही ना बने होते। एक कहानी याद आ रही  है – एक नगर में पानी के लिये दो कुएं थे, एक प्रजा के लिये और दूसरा राजा के लिये। प्रजा के कुएं के पानी में अचानक ही बदलाव आ गया, जो भी उस पानी को पीता वह पागल  होने लगता। धीरे-धीरे प्रजा पागल होने लगी और एक दिन पूरी प्रजा पागल हो गयी। लेकिन राजा के कुए का पानी ठीक था तो राजा भी ठीक ही रहा। लेकिन एक दिन प्रजा ने राजा पर यह कहकर आक्रमण कर दिया कि हमारा राजा पागल है। अब राजा के पास बचाव का कोई साधन नहीं था, हार कर राजा ने भी उसी कुए का पानी पी लिया। विशेष होने पर हमारे साथ भी यही होता है, कोई भी हमें स्वीकार नहीं कर पाता और राजा की तरह हमें भी सर्वसामान्य के कुए का पानी पीना पड़ता है। यदि ऐसा नहीं करते हैं तब अकेलेपन का संत्रास भुगतना पड़ता है। इसलिये ही लोग बचपन को याद करते हैं, जब विशेष का दर्जा होता ही नहीं था। बचपन में हम, मैदान में फुटबॉल खेल रहे होते हैं और बड़े होकर हम खुद फुटबॉल बन जाते हैं। चारों तरफ से लाते पड़ना शुरू होती हैं, बस स्वयं को और स्वयं के विशेषपन को बचाते हुए चुपके-चुपके आँसू बहा लेने पर मजबूर हो जाते हैं। अब लगने लगा है कि काश हम विशेष नहीं होते! 

Sunday, February 5, 2017

छोटे डर का डेरा


आप यदि विचारक है या चिंतक हैं तो सच मानिये आपको रोज ही जहर पीना पड़ता है। आपके आसपास रोज ऐसी घटनायें घटती हैं कि आपकी नींद उड़ा देती हैं लेकिन शेष समाज या तो उस ओर ध्यान देता नहीं या देता भी है तो सोचता नहीं। बस दुखी होने के लिये केवल आप  हैं। ऐसी घटनायें खुद चलकर आप तक आती हैं, वे शायद समझ गये हैं कि इनके पास कोई समाधान है। यदि हम जैसे लोगों के पास समाधान भी है तो हम दुखी होते हैं क्योंकि समाज में चारों तरफ फैली समस्या का यदि हमने एक परिवार में समाधान कर भी दिया तो क्या! चारों तरफ तो वही आग लगी है। कैसे बुझाएंगे इसे?
एक दिन एक माँ का फोन आता है, फोन पर जार-जार रो रही थी। पहली बार फोन आया था तो पहचान में भी कठिनाई हुई, खैर बात सामने आयी कि उसकी उच्च शिक्षित बेटी एक निठल्ले लड़के के साथ भाग गयी है। यह भागमभाग हर घर का हिस्सा बन चुकी  है। इसके अतिरिक्त भी कोई अपनी सास से दुखी है तो कोई बहु से,  कोई पिता से दुखी है तो कोई बेटे से। सामाजिक ताना-बाना इतना उलझ गया है कि सुलझाने का कोई मार्ग दिखायी नहीं देता। जैसे ही रिश्तों की डोर उलझे, बस काटकर फेंक दो, आज यह फैसला आम हो गया है। कभी हम रास्ते चलते रिश्ते बनाते थे लेकिन आज रास्ते चलते रिश्ते तोड़ रहे हैं। हम सब तोड़ रहे हैं, क्योंकि इसके अतिरिक्त कोई मार्ग दिखायी देता ही नहीं।
अक्सर हम मानते हैं कि समस्याएं गरीब लोगों में हैं, लेकिन वहाँ कितना ही गाली-गलौंच हो, लेकिन परिवार टूटता नहीं है। हमारे आसपास सफाई कर्मचारी-सब्जी बेचने वाली-काम वाली सभी घर में सास के बड़ा मानती हैं। अधिकांश में तो सभी का वेतन सास के पास ही एकत्र होता है। सारे ही वार-त्योहार और शादी आदि वे धूमधाम से करते हैं। मैं ऐसे लोगों को अक्सर हँसते हुए देखती हूँ और जब इन्हें खुश देखती हूँ तो मुझे भी जीने का तरीका समझ आने लगता है। मैंने शायद ही कभी किसी बड़े व्यक्ति से कुछ सीखा हो लेकिन इन छोटे लोगों से मैं रोज ही सीख लेती हूँ। यहाँ की महिलाएं रोती नहीं हैं, शराबी पति के साथ रहकर भी रोज ही खुश रहने के साधन ढूंढ लेती हैं।

मुझे लगता है कि हमने संघर्ष के मार्ग को भुला दिया है, दुनिया को आसान समझ लिया है। यदि जंगल में घूम रहे हिरण की तरह अपने जीवन को जीया होता तो हर पल चौकन्ना रहते। समूह में  रहने की आदत डालते। वर्तमान में माता-पिता बड़ी होती संतान के प्रति शंका नहीं पालते हैं, उन्हें सुरक्षा का वातावरण देते हैं। उन्हें पता ही नहीं लगता कि जीवन में असुरक्षा भी है और अपना घोड़ा छांव में बांधना सीखना पड़ता है। संतान असुरक्षित जीवन जीकर खुश होना चाहती है और माता-पिता उन्हें सुरक्षित जीवन देना चाहते हैं। माता-पिता के पास अनुभव है और वे इसी आधार पर जार-जार रोने लगते हैं लेकिन संतान के पास खुला आसमान है। वे गिद्दों के बीच जाकर भी स्वयं को सुरक्षित समझने की भूल कर बैठते हैं। लेकिन संघर्ष भरे जीवन को जीने की कला भी आनी ही चाहिये। यह मानकर जीवन जीना होगा कि हम जंगल में हिरण के समान है और हर पल हम पर शेर की नजर है। हमें शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में शक्तिशाली होना पड़ेगा। जीवन की सच्चाई को समझना पड़ेगा। शून्य से जीवन कैसे शुरू किया जाता  है, हमारी संतान को आना चाहिये। बड़े डर जीवन से दूर चले गये हैं तो छोटे डर ने डेरा डाल लिया है, इसलिये बड़े डर को भी परिचय में रखने की आदत डालिये। जैसे छोटे लोग करते हैं। उनके पास बड़े डर हैं तो वे छोटे डर से डरते नहीं और जीवन में खुश रहने के तरीके ढूंढ लेते हैं।