Friday, December 2, 2016

तू भी मेहमान - मैं भी मेहमान

पण्डित रामनारायण शास्त्री अपने बेटे के पास शहर आये, उनका परिचय इतना कि ये शिवराज के पिता हैं। सारे ही मोहल्ले में घूम आयें लेकिन कोई ना कहे कि शास्त्री जी आओ बैठो। बस सभी यही कहें कि अरे शिवराज जी के पिता हैं। एक दिन गुजरा दो गिन गुजरे यहाँ तक की एक महीना गुजर गया लेकिन उनकी पहचान ही नहीं, बस टल्ले खाते घूम रहे हैं। बेटा-बहु नौकरी पर चले जाएं और शास्त्रीजी इधर-उधर टहलते रहें। घर पर डाकिया भी आये तो पूछे कि शिवराज जी का घर है? एक दिन पानी सर से ऊपर उतर ही गया और शास्त्री जी ने आव देखा ना ताव बस एक साइन-बोर्ड बना डाला। एक पुठ्ठे का टुकड़ा लिया, उसे एक सा किया और उसपर नाम लिखने के लिये पेन-पेंसिल ढूंढने लगे, नहीं मिली। बहु की ड्रेसिंग टेबल तक गये और लिपिस्टिक उठा लाए। मोटे-मोटे अक्षरों में लिख दिया - पण्डित रामनारायण शास्त्री का मकान। ले अब पूछ कि आप कौन हैं? अब शिवराज कौन? पण्डित रामनारायण शास्त्री का बेटा।
यह तेरा घर - यह मेरा घर, घर बड़ा हसीन है। घर की यही कहानी है। पिता कहते रहे कि यह मेरा घर है, यहाँ मेरे हिसाब से ही पत्ता हिलेगा, जब बेटे ने दूर शहर में घर बसाया तो उसने भी यही कहा कि यह घर मेरा है, यहाँ मेरे हिसाब से ही पत्ता हिलेगा। फिर समय बदला, पिता ने कहा कि यह घर मेरा है, मेरे बेटों का है। बेटे भी आँख दिखाने लगे कि घर में यह होना चाहिये यह नहीं। पिता कैसे भी उनकी मर्जी पूरी करते रहे। आखिर मालिक तो बाद में यही है, कह-सुनकर मन बहलाते रहे। बेटा महानगर या विदेश में जा बसा, उसका घर अलग और पिता का घर अलग हो गया।
बेटा जब पिता के घर आये तो बहुत नाक-भौं सिकुड़े कि मकान में यह नहीं है, वह नहीं है। पिता भी अपनी जमा-पूंजी से बेटे की आवाभगत में कसर नहीं छोड़े। लेकिन जब माता-पिता बेटे के घर जाएं तो रहने को कमरा भी ना मिले, बेचारे ड्राइंगरूम में ही सोकर अपने दिन गुजारें। कई बेटों ने तो माता-पिता के रहते उनका ही मकान बेच दिया और वे सड़क पर आ गये। माता-पिता कहते कि हमारा घर तो तेरा है लेकिन तेरा घर हमारा क्यों नहीं है! बेटा गुर्रा जाता, कहता कि कौन सी किताब में यह लिखा है? लेकिन कल गजब का सूरज निकला, कोर्ट ने कह दिया कि पिता का घर बेटे का नहीं है। अब तू भी गा और मैं भी गाऊं – यह तेरा घर – यह मेरा घर। तू भी मेहमान - मैं भी मेहमान। 

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