जिन अध्यायों
को मन बिसरा बैठा था, वे एक-एक कर निकल आए। कहीं गर्द थी और कही सीलन थी। कहीं
प्रकाश था तो कहीं उल्लास भी था। लेकिन अब रेत हाथ से फिसलने लगी है, संचय का
अर्थ दिखायी नहीं देता।
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आभार रविकर जी।
ReplyDeleteबहुत बढिया प्रस्तुति
ReplyDeleteHow to change blogger template