घर की छत, शाम होते ही पानी से सरोबार हो जाने वाली
छत। सुबह के साथ ही गहमा-गहमी वाल छत। शाम होते ही पहले पानी से छिड़काव किया जाता,
बड़े करीने और सलीके से उसे सुखाया जाता और फिर कितनी खुबसूरती के साथ बिस्तर लगाए
जाते।
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BEAUTIFUL POST . I LOVE IT AND ENJOYED.
ReplyDeleteधन्यवाद रमाकान्त सिह जी।
ReplyDeleteकोई भी प्रकृति प्रेमी इस संस्मरण में छिपी पीड़ा को महसूस करके मन मसौस कर रह जाएगा। आपने अतीत की स्मृतियों से घरों की छतों को जीवंत कर दिया।
ReplyDeleteमुझे भी अपने घर की छत इतनी पसंद है कि उसे मैंने आजतक नहीं छोड़ा। बचपन बीता ... किशोर और युवावस्था बीती और अब भी विवाह के बाद एक कक्ष बनाकर वहीं रहते हैं। यादें ही हैं जो कहीं और जाने से रोकती हैं।
आपके आलेख ने बहुत भावुक कर दिया। समाज में फैली अराजकता के समय ऐसे संस्मरणात्मक आलेख तनावों से हुए अशांत मन को सुखद स्मृतियों में धकेलते हैं। धन्यवाद। आभार।
ReplyDeleteआ . अजित जी,
आपके 'साहित्यकार' ब्लॉग पर टिप्पणी नहीं कर पा रहा हूँ। इसलिए यहीं पर लौट आया हूँ।
सार्थक अभिव्यक्ति @मोहन भागवत जी-अब और बंटवारा नहीं .
ReplyDeleteMere naihar me chhat to nahee thee...haan aangan tha...purani yadon me kho gayi...pata nahi kyon,aankh bhee bheeg gayi...
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