दुनिया को जानने का दम्भ रखने वाले हम, क्या स्वयं को भी जान पाते हैं? कभी आत्मा को जानने का प्रयास तो कभी परमात्मा को खोजने का प्रयास, कभी सृष्टि को समझने का प्रयास तो कभी मानवीय जगत को परखने का प्रयास करते हुए महर्षि भी कभी बोध तो कभी ज्ञान तो कभी केवल ज्ञान प्राप्त करने के क्रम में जीवन समर्पित कर देते हैं। लेकिन फिर भी स्वयं को परखने का कार्य अधूरा ही रह जाता है। हम आध्यात्म की बात करते हैं अर्थात् अपनी आत्मा को पहचानने की बात। लेकिन हमारे मन में किसकी चाहत है, हम क्या करना चाहते हैं शायद कभी समझ ही नहीं पाते। शरीर तो जैसे तैसे सध जाता है, कभी गरीबी में और कभी अमीरी में भी स्वयं को ढाल ही लेता है लेकिन यह जो मन है वह कभी सधता नहीं है। क्यों नहीं सध पाता? क्योंकि इसका हमें बोध ही नहीं है, बस भागता है, कभी इधर तो कभी उधर। हम बस सागर में गोते खा रहे हैं। मन को साधने के लिए प्रत्येक रिश्ते में बस मित्रता ही ढूंढते हैं। कहते हैं कि माँ हो तो मित्रवत, पिता हो तो मित्रवत, भाई बहन सभी मित्रवत होने चाहिए और मित्र? जब मित्र तलाशते हैं तो उनके अन्दर अपने मन को ढूंढते हैं। न जाने कौन सी ध्वनी तरंगे मन से निकल आती हैं और मन को मन से राहत मिल जाती है। मित्र बन जाते हैं। लगता है हमें सब कुछ मिल गया। लेकिन बोध की प्यास नहीं बुझती। मित्र तो मिल गया लेकिन अपने मन सा सारा ही कच्चा चिठ्ठा उड़ेलने का साहस तो अभी नहीं आया ना? बहुत कुछ भर रखा है मन ने, ना जाने कितने कलुष, कितने राग और कितने द्वेष। एक मित्र कहता है कि मुझे रिक्त होने दो तो दूसरा कहता है कि नाहक ही मुझे मत भरो। इस रिक्त होने और भरने की प्रक्रिया में मित्रता कहीं पीछे छूट जाती है। तब आपका बोध वहीं रह जाता है। जब तक मन रिक्त नहीं होगा तब तक बोध नहीं आ पाएंगा, ज्ञान नहीं आ पाएंगा।
स्वयं की जानने की प्रक्रिया वास्तव में बड़ी पेचीदा है, हम स्वयं के बारे में न जाने कितने श्रेष्ठ विचार रखते हैं लेकिन दुनिया हमारे बारे में एकदम विपरीत विचार रखती है। तब क्या करें? हमें हमारी एक भूल बहुत छोटी सी दिखायी देती है लेकिन दुनिया को वही भूल चावल का एक दाना समझ आता है। लेकिन मित्र की आँखों मे सत्यता होती है। हम सब चाहत रखते हैं मित्र की, लेकिन सच्चाई यह है कि हम मित्र तो चाहते हैं केवल स्वयं को रिक्त करने के लिए लेकिन सच्चाई को जानने से डरते हैं। जैसे अकस्मात मुसीबत आने पर आपके मुँह से आपकी मातृभाषा में ही शब्द निकलते हैं वैसे ही आपके अन्दर का छिपा हुआ गुण भी संकट के समय बाहर निकल आता है। हम स्वयं को निर्भीक समझते हैं लेकिन सामने सर्प आ जाने पर ही आपके साहस को पता लगता है। ऐसे ही हम समझते हैं कि हम बहुत ही विनम्र हैं लेकिन जब एक दुर्जन व्यक्ति आपके समक्ष हो तब आपकी परीक्षा होती है। ऐसे ही कितने बोध हैं जो नित्य प्रति आपको आपसे परिचय कराते हैं लेकिन हम उन्हें नजर अंदाज कर देते हैं। हम प्रतिदिन लोगों से सर्टिफिकेट लेने के फेर में रहते हैं। बस कोई हमारी तारीफ कर दे। इसलिए कभी मुझे लगता है कि हम चाहे सारी दुनिया की समझ रखते हों लेकिन यदि स्वयं के बारे में अन्जान हैं तो हमेशा धोखा ही खाते हैं। जीवन में कभी सुख और शान्ति का अनुभव नहीं करते।
स्वयं को पहचाने बिना कुछ लोग अपना कार्य क्षेत्र चुन लेते हैं। ऐसे कितने ही लोग हैं जो लेखन को अपना विषय चुनते हैं लेकिन उनके अन्दर लेखन के तत्व नहीं हैं। बस धोखा खाते हैं और असफलता का दंश भोगते हैं। कुछ सामाजिक कार्य करने का दम्भ रखते हैं और किसी गरीब की झोपड़ी में जाकर जब उसके टूटे प्याले से चाय पीनी पड़ती है तब? कुछ राजनीति में जाने की चाहत रखते हैं और जब चारों दिशाओं से प्रहार होते हैं तब आपका मन भाग खड़ा होता है। इसलिए मन की पहचान या उसका बोध करना भी एक साधना है। ले जाओ इस मन को जीवन के हर प्रसंग में, तब देखो कि वह कहाँ खुश होता है? मत डालो उस पर कोई भी बंधन। मत आडम्बर रचकर स्वयं को गुमराह करो, कि हम ऐसे हैं या वैसे हैं। हम जैसे भी हैं उस सच को सामने आने दो। जिस दिन सच सामने आ जाएगा आप जो चाहते हैं वैसे ही बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। इसलिए मित्रों स्वयं को जानने का प्रारम्भ करो तो दुनिया को भी जान जाओगे नहीं तो केवल अपनी ही नजर से दुनिया को देखते रहोंगे और फिर कहोगे कि यह दुनिया मेरे काम की नहीं। आप जैसे लाखों लोग इस दुनिया में हैं लेकिन हम नहीं खोज पा रहे हैं उन्हें। क्योंकि उस खोज का हमें ही पता नहीं। केवल आदर्श में जीना चाह रहे हैं। जो दुनिया ने आदर्श बनाए हैं बस उन्हें ही अपने अन्दर का सच समझ बैठे हैं। नहीं यह आपके अन्दर का सच नहीं है, आपके अन्दर का सच तो आपको ही खोजना है। साँप जहरीला है इसका उसे बोध है, इसलिए वह केवल दुश्मन पर आक्रमण करता है, कोयल मीठा बोलती है इसलिए वह बसन्त के आगमन पर ही कुहकती है। हम मनुष्य स्वयं को सबसे बड़ा ज्ञानी मानते हैं लेकिन दुनिया के सारे ही जीवों से अधिक अज्ञानी है। सभी को स्वयं का ज्ञान है बस नहीं है तो हमें ही नहीं है। हमारे अन्दर भी विष है, हमारे अन्दर भी अमृत है। लेकिन प्रयोग नहीं आता। कभी सज्जन को विष दे देते हैं और कभी दुर्जन को अमृत। यह प्रयोग इसलिए नहीं आता कि हम स्वयं को नहीं जानते हैं और जो स्वयं को नहीं जानता है वह भला दूसरों को कैसे जान सकता है? मुझे कौन हानि देगा और कौन लाभ, यह तभी सम्भव होगा जब हम स्वयं के मन को जानेंगे। हम केवल प्रतिक्रिया करते हैं। दूसरे की क्रिया पर प्रतिक्रिया। केवल क्रिया करके देखिए, करने दीजिए दूसरों को प्रतिक्रिया। दुनिया अच्छी ही लगने लगेगी। मन में आवेग आता है, हम श्रेष्ठ बनने के चक्कर में उसे दबा लेते हैं तब स्वस्थ क्रिया नहीं होती तो उस आवेग जैसा ही प्रसंग उपस्थित होने पर प्रतिक्रिया स्वत: बाहर आ जाती है। प्रतिक्रिया तब ही अपना वजूद स्थापित करती है जब आप क्रिया नहीं कर पाते। इसलिए जैसा आपका मन है वैसी ही क्रिया करिए। धीरे-धीरे स्वत: ही आपको आपका मन समझ आने लगेगा। अच्छी है या बुरी है इस पर मत जाइए, बुरी है तब भी आपकी ही है, तो उसे बाहर आने दीजिए। हमने अपने अन्दर बहुत कुछ समेट रखा है, उसके कारण हमारा सत्य कहीं छिप गया है। इसलिए स्वयं के बोध के लिए अंधेरों के बादल छटने जरूरी हैं। बोध होने पर ही प्रकाश होगा और प्रकाश से ही हम दुनिया को प्रकाशित कर पाएंगे। इसलिए दुनिया को जानने से पहले स्वयं को जानने का प्रयास ही सुख का मार्ग प्रशस्त करता है। स्वयं को स्वीकारने से ही मन में दूसरे ज्ञान के लिए स्थान बन पाएगा। इसलिए आध्यात्म की पहली सीढ़ी है स्वयं को पहचानो। अपने गुण को पहचानो, अपने स्वार्थ को पहचानो, अपनी विलासिता को पहचानो और अपने वैराग्य को पहचानो। बस धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कल्पना साकार हो जाएगी।
aadarniya,
ReplyDeletebahut koshish karte hain apne man ki baat karne kii , kai baar apne man ko parkha , kintu hamari paristhtiyan hamare bas main nahin hoti, kyonki hum akele nahin hain , humse jude huye kai log hain, hum ek din main kai baar apne man kii baat karte hain , vina parinaam ke
अभी परसों ही इस बात पर चर्चा कर रहा था कि यदि कोई चीज जानने योग्य है, तो वह है मन।
ReplyDeleteSahee kaha...ham apne aap ka adhyayan nahee karte. Ye to badee sadhana hai..jaise Vipashyana.
ReplyDeleteआज आपकी यह पोस्ट पढ़कर जाने क्यूँ एक पूराना हिन्दी फिल्मी गीत याद आया
ReplyDeleteजितलों मन को पढ़कर गीता
मन ही हारा।
तो क्या जीता,
तो क्या जीता ....हरे कृष्ण हरे राम .... आपकी लिखी बातों से सहमत हूँ मगर शायद यह बात कहना जितना आसान है वास्तविक जीवन में उतार पाना उतना ही मुश्किल तभी तो हर इंसान का मन भटकता रहता धर्म अर्थ काम और मोक्ष की कल्पना में शायद इसलिए इंसान औरों से भिन्न है।
अपने मन को अच्छी तरह समझ पाना बहुत ही दुष्कर प्रक्रिया है....और इस से हर कोई बचना चाहता है.
ReplyDeleteसब एक मुगालते में जीते हैं...और अपने ही मन का सच्चा स्वरुप देखने की हिम्मत नहीं कर पाते.
सही कहा विष और अमृत तो सबके अंदर हैं...पर कहाँ किसका प्रयोग करें अक्सर इसमें भूल हो जाती है .
बहुत ही बढ़िया चिंतन
एक बढ़िया विषय और लेख के लिए बधाई आपको ...
ReplyDeleteकाश हम अपनी कमियां समझने का प्रयत्न करना शुरू कर सकें ...
शुभकामनायें आपको !
पोस्ट का एक एक शब्द ध्यान से पढ़ा ..... लग रहा है मेरा ही बहुत कुछ छूटा हुआ है मुझसे .... सच में मन को जानना, स्वयं को जानना इतना कठिन क्यों है...... और देखिये ना इस ओर हमारा ध्यान भी कम ही जाता है......
ReplyDeleteman ko samajhna bahut hi mushkil hai .kai bar yeh aisi ichchha bhi karne lagta hai jiska poora hona asambhav hi hota hai .gahan vicharotejak post prastut karne hetu aabhar .
ReplyDeleteमन को जानना ही सबसे बड़ी साधना है .. इसी लिए हर कोई साधना नहीं कर पाता .
ReplyDeleteअपने अंदर के विष और अमृत की पहचान भी नहीं होती ..
अध्यात्म की पहली सीढ़ी स्वयं की पहचान है ..बहुत सटीक बात लिखी है ..
खुद को जान जाते तो कुछ और बात होती। आपके प्रश्न का उत्तर ये है कि अभी नहीं कर पाये, लेकिन विश्वास है एक दिन ऐसा कर सकेंगे।
ReplyDeleteनमस्कार अजीतजी, आपने ठीक लिखा है कि स्वयं कि पहचान परम आवश्यक है | मन को अपना मित्र बनाने से ही असीम शांति मिलती है |
ReplyDelete"मन चंगा तो कसौठी में गंगा" ...हमारे बड़े - बूढ़े ये कहावत यू ही नहीं कह गए ...मन की दुनियां विशाल हैं जहाँ कोई नहीं पहुँच पता वहां मन पहुँच जाता हैं .....
ReplyDelete'माया मरी न मन मरा मर मर गये सरीर'
ReplyDelete- कोई एक जन्म का लेखा भरा हो मन में तब तो कोई जाने , जाने कितने जन्मों के संस्कार समाये हैं - कितने स्तर ,कितने खंड!
और ऊपर जो है वह भी बहुत लघु अंश .सबसे बड़ी पहेली है मन !इतनी भर कोशिश कर सकते हैं कि नियंत्रित रहे ,आगे भगवान मालिक !
इसलिए मित्रों स्वयं को जानने का प्रारम्भ करो तो दुनिया को भी जान जाओगे नहीं तो केवल अपनी ही नजर से दुनिया को देखते रहोंगे और फिर कहोगे कि यह दुनिया मेरे काम की नहीं।
ReplyDelete.....बहुत सच कहा है. हम दुनियां के बारे में जानने की कोशिश करते हैं, लेकिन अपने आप से अनजान रह जाते हैं. बहुत ही सारगर्भित आलेख ...आभार
मन को अगर जान ही लिया तो वह मानव की श्रेणी से ऊपर उठ जाता है. जीवन दर्शन की गुत्थी कभी न सुलझी है और न सुलझने वाली है. इसलिए मन की सुनो और उसी पथ पर चलो खुद को अपनी आत्मा की दृष्टि में मानव बन कर मानवता को समझ कर उसे उसी रूप में जीने दो , इतना ही मानव बन कर कर लिया तो बहुत है.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा मंच-722:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
बढिया विषय पर सार्थक चिंतन।
ReplyDeleteअपने मन को जिस दिन जान लिया गया मानो सारी दुनिया जान ली गई.....
मन को जानना और उसको साधना ... ये दोनों ही दुष्कर कार्य हैं ... जो कर जाता है जीवन सफल कर जाता है ...
ReplyDeleteगहरी बात!! आत्म-साक्षात्कार के लिए मन के परे जा कर दृष्टा बनना नितांत आवश्यक है।
ReplyDeleteडॉक्टर दी,
ReplyDeleteएक पुसतक है "विज्ञान भैरव".. ११२ सूत्रों में शिव और पार्वती के संवाद है जिसमें पार्वती पूछती है कि शांत कैसे हो जाऊं...आनंद को कैसे उपलब्ध हो जाऊं..अमृत कैसे मिलेगा... और शिव कहते हैं कि बाहर जाती है साँस-अंदर आती है साँस-दोनों के बीच ठहर जा..
मन को जानना और उसे साधने का सूत्र भी यही है.. जो व्यक्ति विष-अमृत, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद के बीच अपने मन को ठहरा सकता हो वही मन को साध सकता है और परमात्मा को उपलब्ध होता है... दिए की लौ की तरह होता है मन..कांपता हुआ हर पल.. स्थिर कर ले जो इसे वही आनंद को उपलब्ध होता है...
बहुत कठिन है और बहुत सरल भी... नहीं कर पाया अभी तक.. चेष्टारत हूँ.. !!
गहरा दर्शन ..जानना ही है तो मन को जानो.सार्थक पोस्ट के लिए आभार.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख!
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट। आजकल इसी तरह की पोस्ट की खोज कर रहा था। बहुत सही कहा आपने। अधिक सांसारिक ज्ञान अर्जित करने से हममें अहंकार आ सकता है परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान हम जितना अधिक अर्जित करते हैं हममें उतनी नम्रता आती है।
ReplyDeleteaaderneeya ajitjee..aaj bahut hee sarthak post padhne ko mili..aapki baat to samajh bhee raha hoon .aaur nahi bhi samajh paa raha hoon..man ko to nahi samjha par man kee baat samajh raha hoon..lekin hamesh hee aisa lagta hain kee yadi man kee baat manunga to hamesh hee nuksaan samajh aata hai..sabere uthkar padhna behtar hai..man kahta hai so jaao...jyada meethi cheejein nuksan dayak hai..man kahta hai khaao dekha jaayega..man to samajik bandhno ko tadne ke liye uksaata hai.par dar lagta hai..aisi tamam baatein hain jinhe man karana chahata hai per sambhav nahi hai..is bishay ne mujhe bhee barson se jhakjhora hai.main bhi isme bahut kuch jaanna chahta hoon...man to bahri duniya ka pratik hai..ise samjhkar antar kee yatra kaise suhogi..aap se nivedan hai ki is per aaur mahatwapurna jaankari dene ka kast karein ..taki ham jaise gijyasuon kee man se sambandhit pipasa shant ho sake..sadar pranam ke sath..ho sakta hai main aapke gahan chintan ko nahi samajh paaya hoon aair nasamjhi wash bishay ka galat bishleshan kar gaya hoon to maaf kijiyega..punah sadar pranam ke sath
ReplyDeleteडॉ. आशुतोष जी
ReplyDeleteपहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं कोई विद्वान नहीं हूँ और ना ही मेरे पास कोई शब्द भण्डार है। बस छोटा-मोटा चिंतन कर लेती हूँ और इसी चिंतन को आप सभी से बाँटकर उसे विस्तार देने का प्रयास करती हूँ। आपने कई प्रश्न किये हैं, इससे एक आयाम और जुड़ गया चिंतन का। लेकिन मैं समझती हूँ कि और सोना या मीठा खाना तन की आवश्कता है, आपका मन तो आपको टोक ही रहा है। मेरा तो केवल यही अभिप्राय है कि आपके मन की रूचि क्या है, यदि आपने इसे पहचान लिया तो बहुत अच्छा लगता है।
उदाहरण के रूप में बताती हूँ कि मुझे बचपन से ही साहित्य का शौक था, लेकिन अवसर नहीं थे। मैंने स्वयं को बहुत टटोला, और धीरे-धीरे लेखन प्रारम्भ किया। अपनी नौकरी, अपनी प्रसिद्धि क्या लेखन की लिए छोड़ी जा सकती है, इस पर भी विचार किया। लेकिन एक दिन निर्णय कर ही लिया कि अर्थ का स्थान अपनी जगह है लेकिन मन की जरूरतें भी पूरी होनी चाहिए। तो सबकुछ छोड़कर अपने मन की सुन रही हूँ और खुश हूँ।
मन को साधने की बात मैं नहीं कह रही, बस मैं तो यह कह रही हूँ कि यदि मन के राग और द्वेष पता लग जाए तो हम मन को अपनी इच्छानुसार साध भी सकते हैं। बस स्वयं को जनना पड़ता है कि मुझे क्या अच्छा लगता है और क्या नहीं।
पता नहीं मैं आपको कितना समझा सकी और कितना नहीं। लेकिन हम इसी प्रकार वार्तालाप करके बहुत कुछ सीख सकते हैं। समझ सकते हैं।
मन को जानने में ही सारा दर्शन समाया है।
ReplyDeleteI’m impressed, I must say. Really rarely do I encounter a blog that’s both educative and entertaining, and let me tell you, you have hit the nail on the head. Your idea is outstanding; the issue is something that not enough people are speaking intelligently about. I am very happy that I stumbled across this in my search for something relating to this.
ReplyDeleteFrom Great talent
मन के मते न जाइये मन के मते अनेक :)
ReplyDeleteसबसे कठिन है मन का विश्लेषण और उसके बाद निर्णय निकालना |
ReplyDeleteआपने बहुत गहराई लिए मुद्दे पर अपने विचार बहुत सार्थक सोच को शब्दों मवं ढाला है |सुन्दर लेख |
आशा
अपने मन को जानना बड़ा ही कठिन है | नित नए विचारों से ओत-प्रोत होने के कारण मन:स्थिति बदलती रहती हैं | मन को एकाग्र करके किसी एक विचार पर चिंतन करके ही उस विचार का क्रियान्वन करना ही मन का चिंतन है | मेरा ख्याल तो यही है | हो सकता सभी इस विचार से सहमत न हों |
ReplyDeleteटिप्स हिंदी में
Ajit gupta ji pahli baar aapke blog par aai hoon aakar soch rahi hoon ki aapse main pahle se kyun nahi jud paai aap itna achcha likhti hain ,aapka profile bhi padha aapki shrankhla se jud bhi gai.aapka aalekh bahut achcha laga bahut achcha vishya chayan kiya hai aapne poorntah sahmat hoon aapse par kai baar manushya apne man ko jaante hue bhi paristhitiyon ke vashibhoot ho jaata hai.aage milte rahenge.mere blog par bhi aapka swaagat hai.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteमेरा शौक
मेरे पोस्ट में आपका इंतजार है
आज रिश्ता सब का पैसे से
sach jisne man ka paar liya uska jiwan tar gaya..
ReplyDeletebahut sundar saarthak pratuti ke liye aabhar!
संत का धर्म है परोपकार, सर्प का धर्म है संहार...
ReplyDeleteसर्प के संहार के बाद भी संत परोपकार नहीं छोड़ता...
अगर दुनिया में सर्प न हों, सारे संत ही हों तो फिर संतों की महत्ता को कौन समझेगा...
जय हिंद...
इस पोस्ट के लिए धन्यवाद । मरे नए पोस्ट :साहिर लुधियानवी" पर आपका इंतजार रहेगा ।
ReplyDeleteस्वंम को जानने की प्रिक्रिया वास्तव मेम बडी पेचीदा है—
ReplyDeleteमित्र की आंखो मेम सत्यतता होती है—
दुनिया को जानने से पहले स्वम को जानने का प्रयास ही सुख का मार्ग प्रसस्त करता है.
खुद को जानना ही जीवन का मूल दर्शन है—सत्य ही कहा है,आपने.
स्वंम को जानने की प्रिक्रिया वास्तव मेम बडी पेचीदा है—
ReplyDeleteमित्र की आंखो मेम सत्यतता होती है—
दुनिया को जानने से पहले स्वम को जानने का प्रयास ही सुख का मार्ग प्रसस्त करता है.
खुद को जानना ही जीवन का मूल दर्शन है—सत्य ही कहा है,आपने.
जिसने मन को जाना,उसने ईश्वर को जान लिया...
ReplyDeleteराग और द्वेष के कारण ही मन का अस्तित्वहै,वास्तव में मन "मैं" नहीं है .हम मन को राग या द्वेष के नजरिये के अलावा देखेंगे तो मन बौना नजर आयेगा,लगाम लग जायेगी .मगर दुष्कर है मन को साधना फिर भी असंभव नहीं,साधना की जरुरत है अहम् को तोड़ने की जरुरत है. बढ़िया चिंतन
ReplyDeleteमन को साधे साधना, यही तो है आराधना!!
ReplyDeleteआध्यात्म की पहली सीढ़ी है स्वयं को पहचानो। अपने गुण को पहचानो, अपने स्वार्थ को पहचानो, अपनी विलासिता को पहचानो और अपने वैराग्य को पहचानो.satik bat.
ReplyDeleteआपके विचारों से पूर्णरूपेण सहमत हूँ. यदि खुद को पहचान लिया, अपने मन पर नियंत्रण आ गया तो फिर कोई चिंता शेष नहीं रहेगा. यद्यपि यह आसान नहीं.
ReplyDeleteवाकई खुद को जानना बहुत बड़ी बात है.
ReplyDeleteमन की चंचल गति को जान लिया तो सब सिद्ध ही हुआ !
ReplyDeleteनहीं कर पायी मैं तो :( ....------- कम से कम अब तक तो नहीं ....
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण विषय पर अच्छा लिखा है आपने आ. दीदी। मन को जानने का प्रयास ज़ारी है।
ReplyDeleteएक बढ़िया विषय और लेख के लिए बधाई
ReplyDeletevery good post on a very interesting subject!
ReplyDeleteओह ये तो वाकई चिंतन का विषय है। मन को जानना और समझना सबके बस की बात नहीं।
ReplyDeleteमन को जानने का तरीका तो निश्चय ही खोज करना होगा, मुझे लगता है इसके लिए साधना और तपस्या जरूरी है।
कभी इस विषय पर ध्यान नहीं गया..... मगर आपकी इस पोस्ट ने सोंचने को विवश कर दिया है. बहुत ही विचारणीय पोस्ट.
ReplyDeletesach kaha aapne...ham sabki khabar rakhte hai par nahin jante to bas khud ko..uske liye kabhi samay nahin nikalte....bahut hi achcha lekh....
ReplyDeletewelcome to my blog also :)
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबोध होने पर ही प्रकाश होगा और प्रकाश से ही हम दुनिया को प्रकाशित कर पाएंगे। इसलिए दुनिया को जानने से पहले स्वयं को जानने का प्रयास ही सुख का मार्ग प्रशस्त करता है। स्वयं को स्वीकारने से ही मन में दूसरे ज्ञान के लिए स्थान बन पाएगा।
ReplyDeletebahut achchi baat likhi hain.....
Mn to mn hota hai sabse chanchal... Gupta apki prvishti prabhavshali lagi
ReplyDeleteMan ko jaanana sabse kathintar karyon me se aik hai.. ham isme safal ho... aakhir ham kya chahate hai is jiwan me....khud ko samjh kar jaane bina pratikriya diye.. Bahut gud manthan hai vicharon ka... Ajit ji ..Happy new year to u too..
ReplyDeleteudaasi mein dhoondta hai khushi
ReplyDeleteaur khushiyoon mein
aksar udaas ho jata hai
umar beet jati hai
par smajh nahi aati hai
ki man chahta hai
toh kya chahta hai