यह मन भी क्या चीज है, न जाने किस धातु का बना है? लाख साधो, सधता ही नहीं। कभी लगता है कि नहीं हमारा मन हमारे कहने में हैं लेकिन फिर छिटककर दूर जा बैठता है। अपने आप में मनमौजी होता है “मन”। ना यह हमारी परवाह करता है और ना ही हम इसकी परवाह करते हैं। जीवन के घेरे में ना जाने कितनी बार मन को परे धकेल देते हैं! इस मन की कीमत हम कभी नहीं लगा पाते। नौकरी और व्यापार से कमाए धन की गणना हम खूब कर लेते हैं, लेकिन मन की खुशियों की कीमत का हम आकलन कर ही नहीं पाते। एक फकीर से पूछ बैठते हैं कि तुम फकीर क्यों हो? साधनों का अभाव खटकता नहीं है? लेकिन उसके मन की पूँजी जो उसके पास है उसकी गणना कोई नहीं कर पाता। उसे दुनियादारी से वंचित व्यक्ति मान लिया जाता है। जो तन के सुख के लिए लाखों कमाए, बस उसी की गणना होती है लेकिन जो मन के सुख के लिए लाखों गँवा दे उसे तो कभी गणना के लायक भी नहीं मानते।
लेकिन यदि इसी की सुनो तो दुनियादारी ऐसी छूटती है कि आप चारों तरफ से विरोध से घिर जाते हो। सुबह उठे, अभी चाय बनाने रसोई में घुसे ही थे कि इस मन ने न जाने कब का भूला-बिसरा गाना जुबान पर ला दिया और बस सारा दिन वही टेप चलता रहा। इन्टरनेट खोला तो बस उसी गाने के इर्द-गिर्द घूमता रहा मन। बड़ी अच्छी-अच्छी पोस्ट लगी हैं, ना जाने कितने विषयों पर लोगों ने लिखा है लेकिन आज तो आपका मन उसी गाने के चारों तरफ घूम रहा है तो बस उसे उसी के अनुरूप पोस्ट चाहिए और कुछ नहीं। ढूंढ मच गयी, सारी श्रेष्ठ पोस्ट रिजेक्ट हो गयी, बस जो मन को जँची उसी को पढ़ा गया। लेकिन इस मन के चक्कर में दुनियादारी पीछे छूट गयी। न जाने कितने लोग नाराज हो गए। हमने इतने अच्छे विषय पर पोस्ट लिखी लेकिन फला व्यक्ति ने पढ़ी ही नहीं, जरूर कोई नाराजी है। बस इस मन ने करा दिया लोगों को नाराज।
कभी इस मन का मन होता है कि गद्य पढे तो कभी मन होता है पद्य पढे। कभी मन होता है कि परिवार से सम्बंधित कोई बात पढे तो कभी मन होता है कि देश से सम्बंधी कोई पोस्ट पढे। कहने का तात्पर्य यह कि गलती यह करे और सजा मिले व्यक्ति को। लेकिन कुछ लोग हैं जो दुनियादारी खूब निभाते हैं और इस मन को परे धकेल कर रखते हैं। अब आप ही बताइए कि मन को परे धकेलकर केवल दुनियादारी ही निभानी चाहिए या फिर मन की सुननी चाहिए। मैं कई दिनों से उहापोह में हूँ। इस मन ने मेरी ऐसी की तैसी कर रखी है। लोग मुझसे नाराज होते जा रहे हैं और यह पठ्ठा मजे में है। लोग कह रहे हैं कि आप हमारे घर नहीं आते, ब्लाग पर लोग कह रहे हैं कि आप हमारी पोस्ट नहीं पढ़ते। सामाजिकता क्या होती है, इसने भुला दिया है। हमारा नाम भी लोगों की सूची से कटता जा रहा है।
मुझे एक घटना याद आ रही है, जब मैं कॉलेज में थी। एक बदमाश टाइप के छात्र ने विवाह कर लिया, बाहर कितना ही शेर बने लेकिन पत्नी के आगे गीदड़ जैसा। जब ज्यादा परेशान हो गया तो मुझे बुलाने आया, बोला कि मेडम एक बार मेरे घर चलो, मेरी पत्नी को देख लो। मैंने टालमटोल की लेकिन वो माना नहीं तो अपने राम भी चल दिए। मनोवैज्ञानिक समस्या थी, उसे समझाया और वापस आ गए। लेकिन कॉलेज में चर्चा का विषय बन गए कि ये बदमाशों के घर जा आती हैं। अब उन्हें कैसे समझाऊँ कि भाई मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं, बस मानवता और चिकित्सक होने के नाते ही गयी थी। यहाँ ब्लाग-जगत में भी ऐसा ही है। आपके ब्लाग पर कौन आता है और आप किसके ब्लाग पर जा आते हैं, वह चर्चा का विषय बन जाता है। आप लोगों के साथ होता हो या नहीं लेकिन मेरे साथ तो बड़ा होता है। लोग लठ्ठ लेकर पीछे पड़ जाते हैं कि तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। कभी-कभी लगता है कि मैं कुछ खास हूँ क्या? जो मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। लोग कहने लगते हैं कि आप ऐसे लोगों से बात करें यह शोभा नहीं देता। अब मैं क्या करूँ? यह मन ऐसा है कि दूसरों के सामने बड़ी समझदारी और अपनेपन से बात करने लग जाता है तो कुछ लोग कहते हैं कि नहीं हमें आपकी मित्रता चाहिए। एक बार ऐसा ही हुआ, एक बहुत बड़े व्यक्ति आ गए, मन से कुछ असंयमित थे। हमारा मन बोला कि बेचारे दुखी हैं तो यहाँ सकून ढूंढ रहे हैं तो कुछ देर बात करने में क्या जाता है? हद तो तब हो गयी जब रक्षा-बंधन के दिन आ टपके। सारा घर मुझ पर हँस रहा और मैं दीवार कूदकर पड़ोसी के घर। लेकिन दुनिया आजतक मुझे चिढ़ाती है। अब इसका ईलाज है आप लोगों के पास?
अब यह पोस्ट भी यह मन ही लिखा रहा है, मैंने कहाँ से शुरू की थी और कहाँ समाप्त होगी मुझे नहीं मालूम। इस मन से परेशान होकर ही इस ब्लाग-जगत में आयी थी कि यहाँ अपने मन की करने की पूरी छूट होगी। कोई टोका-टोकी नहीं होगी। लेकिन यहाँ भी पूरी दुनियादारी निकली। कभी कोई नाराज तो कभी कोई राजी। ऐसा भी नहीं है कि मेरे से ही लोग नाराज होते हैं, मेरा मन भी लोगों से दूर भाग जाता है। कई बार मैंने अनुभव किया है कि यह बड़ा डरपोक भी है। किसी ने कुछ ऊँचा-नीचा कह दिया तो अपनी चादर समेटने में देर ही नहीं करता। कहता है कि दुनिया में पत्थरबाजी क्या कम है जो यहाँ भी झेलने चले आए। जो बिना बात ही तुमपर पत्थर मार रहे हों, उनसे दूर ही रहो ना। यह समझो कि तुम्हारे और उनके गण नहीं मिलते बस। इसलिए आज इस पोस्ट के माध्यम से बस यही कहना चाह रही हूँ कि मुझे मेरा मन जहाँ ले जाता है बस उसी के इशारे पर चले जाती हूँ। जो पोस्ट पढ़ने को कहता है, बस उसे ही पढ़ती हूँ। आप लोग मुझसे नाराज ना हो, क्योंकि मैं किसी से नाराज नहीं हूँ। बस पत्थरबाजी से डरती हूँ, मेरी गलती हो तो प्रेम से बता दें कि आप यहाँ गलत हैं, मैं मान लूंगी। लेकिन यह कभी ना सोचे कि मैं किसी नाराजी के कारण आपकी पोस्ट पर नहीं आ रही हूँ। आपने यदि अपने मन को साध रखा है और दुनियादारी के अनुसार चलते हैं तो आपको मैं महान मानती हूँ लेकिन मैं अपने मन को साध नहीं पाती हूँ, बस इसके कहने में ही रहती हूँ। मेरा मानना है कि मन की मानो तो बात लाखों की है और ना मानो तो फिर खाक की है। अन्त में एक प्रश्न क्या आप भी मन की बात सुनते हैं या फिर दुनियादारी को महत्व देते हैं? इस पोस्ट को पढ़कर भी मुझसे नाराज रहेंगे?
@इस पोस्ट को पढ़कर भी मुझसे नाराज रहेंगे?
ReplyDelete1. नाराज़ होना जिनकी आदत हो उन्हें किसी जायज़ वजह की ज़रूरत नहीं होती।
2. पोस्ट लिखने भर से असली नाराज़गी दूर भी नहीं होती।
3. शुभकामनायें!
भाई अनुराग जी, आप तो नाराज नहीं हैं ना, क्योंकि मैं आपकी पोस्ट पर गाने कभी सुन लेती हूँ और कभी नहीं। लेकिन उनपर टिप्पणी नहीं करती हूँ। मुझे लगता है कि यह भी एक नाराजी का कारण हो सकता है।
ReplyDeleteनमस्ते जी, मुझे तो आपको पढ़ना इसलिये अच्छा लगता है कि वह अपने आस-पास से प्रभावित होता है. मिलने-जुलने वालों से प्रभावित होता है. बनावटी बातें तो कुछ देर के लिये गुदगुदा सकती हैं लेकिन आपकी बातों में मुझे काफी कुछ मिलता है. आपके अनुभवों से व्यावहारिकता को जान पाता हूँ. सामाजिकता क्या है - इसे भली-भाँति समझ पाता हूँ.
ReplyDeleteमुझे इस बार भी बातों में 'मन की मौज' के दर्शन हुए ...... यह बात तो मेरे मन के साथ भी सच ही है... बिना दबाव बिना बाधा बिना विवशता के आना-जाना ही मन को सुहाता है. ........ जबरदस्ती में निभाये गये संबंध-व्यवहार में तो शीघ्र दरार पड़ जाती है या फिर हम बचते फिरते हैं उन लोगों से जिनसे मजबूरी में जुड़ना पड़ा हो.
aadarniya ajit ji namaskaar
ReplyDeletehum sab man ke hathon majboor hain jaisa hamara vyavhaar hota hai, hamara man bhi thik usi tarah kaam karta hai , yun kah sakte hain,
man aur humara vyavhaar ek doosre ke poorak hain, hum sab man ke haanthon majboor hain
अजित जी,
ReplyDeleteटिप्पणी, चर्चा, सन्दर्भ आदि मेरे लेखन के उद्देश्यों या प्राथमिकताओं में कभी नहीं थे। मेरे विचार और टिप्पणियाँ आपके विचारों से भिन्न हो सकते हैं मगर उससे आपके प्रति आदर थोडे ही कम होगा? मेरे ब्लॉग के दायेंकॉलम में देखिये, आपका नाम श्रद्धेय में लिखा है। फिर भी अगर मेरे किसी व्यवहार से आपके मन में क्षणांश के लिये भी यह बात आयी तो क्षमाप्रार्थी हूँ।
मन को नियंत्रित कर पाना किसी के लिए आसान नहीं .. हम समझौता भी वहीं कर सकते हैं .. जहां मन का वश चलता है .. वास्तव में इस दुनिया में सुखी वहीं है .. जिसकी परिस्थितियां उनके मन के अनुरूप हों .. मनुष्य के जीवन में हर स्तर पर यही बात लागू होती है !!
ReplyDeleteman ki bat likh dee hai aapne .narajgi kuchh to kam ho hi jayegi .
ReplyDeleteअजित जी, इतना ही कहूँगा कि यदि मन को समझना चाहती हैं तो कृपया गीता का अध्ययन करें।
ReplyDeleteजब हम यहाँ मन के लिए आये है तो मन की ही सुनेगे दिमाग की क्यों सुने दुनियादारी निभाने के लिए इस दुनिया के बाहर की भी एक दुनिया है जहा मन की नहीं चलती उन दिमागदारो की दुनिया में हम मन की नहीं चला पाते | मन से बनी ये दुनिया भी हम उस दिमागदारो की दुनिया की तरह क्यों बनाये क्यों यहाँ रिस्तो सामाजिकता को निभाने का दबाव खुद पर ले और दूसरो पर डाले | मन से बनी ये खुबसूरत दुनिया यु ही रहने दे सामाजिकता से दूर दिमागदारो से दूर बिना किसी डर दबाव से दूर अपनी कहने और अपने मन की पढ़ने की दुनिया इसे यु ही बने रहने दे और हम सब को मन का मालिक ही रहना चाहिए |
ReplyDeleteमन की सुनेंगें तो ही जीवन का असली आनन्द ले पायेंगें जी
ReplyDeleteप्रणाम
मन से वार्तालाप के विस्तृत अध्याय हैं स्मृतियों में, कभी निकलेंगे। सुन्दर आलेख।
ReplyDeleteअजित दीदी,
ReplyDeleteदीदी ही कहुंगा भले आप दिवार फांद कर भाग जाय।:)
आपके निश्छल मन की निर्मल अभिव्यक्ति से भला कौन नाराज हो सकता है।
अनुरागजी ने सही कहा "नाराज़ होना जिनकी आदत हो उन्हें किसी जायज़ वजह की ज़रूरत नहीं होती।"
और कि आप श्रद्धेय है, और हमेशा एक स्पष्ठ सी विचारधारा प्रस्तुत करती है। अब इससे जिन्हें नाराज होना हो होते रहे।
प्रतुल जी ने सही कहा-"बिना दबाव बिना बाधा बिना विवशता के आना-जाना ही मन को सुहाता है"
बस प्रत्येक का यह अधिकार होना चाहिए, उसे प्रभावित करने की कौशीश ही क्यों।
और व्यावहारिकता एवं सामाजिकता निभाने की प्रेरणा भी मन दी देता है, जब जब देगा, वह भी निभा लेंगे।
ये मन ऐसा ही प्राणी है जो करने को मना करेंगी वो ही करेगा तो अच्छा है जैसे कहे चलती रहिये जब देखेगा कि कोई इसे महत्त्व नही दे रहा तो अपने आप आपकी सुनने लगेगा।
ReplyDeleteहम तो व्यवहारिकता भी तभी निभाते हैं जब मन गवाही देता है ...और शायद सभी यही करते हैं !
ReplyDeleteजब रक्षा बंधन पर भाग गईं तो कल मदर्स डे पर क्या करने वाली हैं :)
ज्ञान-विज्ञानं, साहित्य की बेहतरीन प्रविष्टियों के बीच ऐसी सरल बतकही बहुत सुकून देती है !
आज मदहोश हुआ जाए रे,
ReplyDeleteमेरा मन, मेरा मन...
बिना ही बात मुस्कुराए रे,
मेरा मन, मेरा मन...
जय हिंद...
कितनी भी कोशिश करो मन पर अंकुश कहाँ लगता है..जितना भी किसी वस्तु से मन हटाने की कोशिश करो, उतना ही यह उधर और ज्यादा खींचता है.
ReplyDeleteमन से पंगा ले कर बहुत मुश्किल हो जायेगी ...सरल हृदय जो कहे वही करना चाहिए ...मन को सुकून रहेगा तभी तो व्यवहार भी निभेगा ... लेखन शैली रोचक लगी ..
ReplyDeleteमन चंगा तो कठौती में गंगा.
ReplyDeleteमन का कुछ नहीं हो सकता ये तो वाक़ई ग़ज़ब है..
ReplyDeleteajit mem ! man to chanchal hai jitnaa vash me karo utnaa hi fisltaa hai .
ReplyDeletesadar
मन रे, तू काहे न धीर धरे ..... :)
ReplyDeleteसंदर विवेचन! मन की तलहटी से आते भाव। मैं भी कहूँगा कि “अगर मेरे किसी व्यवहार से आपके मन में क्षणांश के लिये भी यह बात आयी तो क्षमाप्रार्थी हूँ।” सादर..!
ReplyDeleteसुज्ञ जी, दीवार फांदकर नहीं भागूगी। हा हा हाहा। कितनी अजीब दुनिया है यह ब्लाग-जगत, हम सब अपने मन की बात सहजता से कह देते हैं और सभी लोग सहजता से लेते भी हैं। इसीलिए तो यहाँ बार-बार आने को मन करता है। दुनिया में शायद ही कहीं ऐसा प्लेटफार्म हो जहाँ लोग अपनी बात सहजता से कर सके।
ReplyDeleteवाणी जी, मदर-डे पर क्या करने वाली हूँ? अच्छा याद दिला दिया आपने, शायद कल ही है। मैं तो भूल ही गयी थी। विवाद की जड़ तो यह मदर्स-डे ही है। जब उम्र आयी कि लोग हमें माँ कहें और हम इस सम्बोधन का आनन्द लें तब इस सम्बोधन पर भी विवाद हो गया, अब क्या करूं? आपने याद दिलाया तो यही लिखूंगी की मदर्स-डे पर मेरे सारे ही बच्चों को प्यार। भारत-माता की भूमिका में लिख रही हूँ, कि सभी मेरे पुत्र है, आप चाहे उन्हें अच्छा कहें या बुरा।
ReplyDeleteअमरेन्द्र जी, मुझे मेरे मन से यही तो शिकायत है कि कहीं ज्यादा ठहरता नहीं। टिप्पणी की और चल निकलते हैं लेकिन कुछ लोग उसका अर्थ पता नहीं क्या लगा लेते हैं। जब उनकी तरफ से तमतमाता हुआ तीर आता है तब समझ ही नहीं पाती कि क्या हुआ है। मैं तो कई बार केवल पोस्ट पढ़ लेती हूँ और लेखक कौन है ज्यादा ध्यान नहीं देती, इसलिए कौन नाराज है और कौन राजी पता ही नहीं चलता। लेकिन लोग बड़ा ध्यान रखते हैं। आप से कोई पंगा हुआ हो ध्यान तो नहीं है, फिर हुआ हो तो आप ही बता दें, मैं तो अब बड़ा डरने लगी हूँ। हा हा हा हा। जितना मुझे पता है आप सैद्धान्तिक व्यक्ति हैं। ऐसे व्यक्ति कभी मतभेद भी रखते हैं तो मनभेद नहीं करते। हम यहाँ आते ही है विभिन्न विचारों को जानने और समझने।
ReplyDeleteप्रतुल जी, आपसे नाराजी है, कई बार फोन लगा चुकी हूँ लेकिन फोन व्यस्त ही रहता है। आपकी छंद की कक्षा के किवाड़ भी बन्द है।
ReplyDeleteमन रे मन .. यह एक ऐसा विषय है जो कि कभी समझ नहीं आया, पर देखिये आपकी पोस्ट में मन लगा है।
ReplyDeleteBahut saaf,shaffaq hai man aapka! Koyi kaise naraaz ho sakta hai?
ReplyDelete.तभी तो कहा है,,, मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
ReplyDeleteअपने अनुभव एवँ नज़रिये को साझा करने लिये धन्यवाद !
हम तो यही कहेंगे "मन को पिंजरे में मत डालो, मन का कहना मत टालो.. पोस्ट अच्छी लगी, बधाई
ReplyDeleteआप तो अपने मन की करते रहिए...न जग से डरिए और न ही लट्ठ से! आमीन.
ReplyDeleteमन के आगे सब हारे ....
ReplyDeleteसीधे शब्दों में यूं कहिये की आप मन मौजी है |विचारों को शेयर करने का आभार |
ReplyDeleteमन जीते जग जीत हे यह तो बुजुर्गो ने फ़र्माया हे, हम भी कभी मन की, तो कभी दिमाग की मानते हे... ज्यादा मन को भी सर पर नही चढाते, कल कही मन माना ना हो जाये:)
ReplyDeleteयहाँ अपने मन की करने की पूरी छूट होगी। कोई टोका-टोकी नहीं होगी। लेकिन यहाँ भी पूरी दुनियादारी निकली।
ReplyDeleteपूरी की पूरी दुनियादारी है...छल-कपट...दांव-पेंच...वास्तविक दुनिया से कुछ ज्यादा ही...ऐसा कि निभाये ना बने...ऐसी हालात में बस मन की सुनना ही सुकून देगा.
मेरे तो ब्लॉग का नाम ही है.."मन का पाखी" जिधर मन होता है उड़ चलता है...अब आज इतनी देर बाद इस ठौर आया...:)
मन को बाँध पाना कहाँ आसान है.....फिर भी आपने तो जो कहना था उसे सुंदर ढंग से सहेज कर शब्दों में ढाल लिया ...... अच्छा लगा आपके मन की सुनकर .....पढ़कर :)
ReplyDelete.
ReplyDeleteअजित जी ,
मन की ही सुननी चाहिए। जो अपनी नहीं सुनता , वो स्वयं के साथ अन्याय करता है । दुसरे क्या करते हैं , उसे हमें क्या लेना देना , दुसरे क्या सोचते हैं हमारे बारे में , उससे क्यूँ व्यथित होना ।
हम अपने बारे में क्या राय रखते हैं , यह ज्यादा जरूरी है । लोग नाराज़ होते हैं तो होते रहे । क्या उखाड़ लेंगे आखिर ? ब्लौग पर आना ही तो बंद करेंगे न ? न आयें । किसी की अनुपस्थिति , हमारी लेखनी को रोक नहीं सकेगी , ना ही उसकी धार कम कर सकेगी ।
बल्कि नाकारात्मक ऊर्जा वाले जब हमसे दूर रहते हैं तब ही बेहतर सृजन होता है। अन्यथा वो हमारी सकारात्मक ऊर्जा को ब्लैक होल की तरह चूस लेते हैं । ऐसे तत्वों से दूरी ही भली।
एकला चलो रे !
Always listen to your heart !
Just be yourself !
.
मन को कौन बाँध सका है । बहुत सुन्दर भाव है। मातृ दिवस की बधाई । धन्यवाद ।
ReplyDeleteवैसे मैं तो मन की ही सुनता हूँ..... मन का कंट्रोल या फिर अनकंट्रोलेबल मन .... यह सब मैं नहीं जानता... जो अच्छा लगता है वो करता हूँ... कई बार दूसरों की ख़ुशी के लिए जो नहीं भी अच्छा लगता वो भी करता हूँ... पत्थरबाज़ी से मैं भी डरता हूँ... गलती मैं भी मान लेता हूँ.... हाँ! कोई स्वाभिमान से खेले.... तो उसके साथ कोई कम्प्रोमाइज़ नहीं.... करता हूँ... काफी कुछ मैं आपसे ही मिलता हूँ....
ReplyDeleteमुझे ऐसा लगता है ... कि काफी दिनों से आपसे बात नहीं हुई है.... एक बार आपकी मिस्ड कॉल भी देखी.... सोचा कॉल बैक करूँगा फिर दिमाग से स्किप कर गया..... अभी कॉल करता हूँ... आपको...
ReplyDeleteमन नियंत्रण में आ जाए तो इंसान और भगवान का फांसला कम हो जाता है ... और इंसान तो इंसान है ... बाकी नाराज़ जिसने होना है वो कोई न कोई बात निकाल ही लेगा नाराज़ होने के लिए ...
ReplyDeleteमैं भी अपनी मन की ही सुनता उसे खास कर जब ब्लॉग,कविता और आलेख की बात होती है ..और आज भी मेरा मन यही कह रहा है कि आपने बहुत बढ़िया मुद्दे की बात की है..बाकी नाराज़ होने वाले लोग तो बिना किसी बात के भी नाराज़ हो जाते है...
ReplyDeleteमन की बात तो हम क्या करें ऐसा सौ आने सच है कि बहुत धन कमा लेने के बाद भी मन को शांति नही मिलती और कोई कोई कम पैसे में भी मन को प्रसन्न रख लेता है...
बहुत सार्थक आलेख..हमेशा की तरह...प्रणाम स्वीकारें.....मातृ -दिवस की हार्दिक बधाई
हम तो मन की ही सुनते है
ReplyDeleteइसीलिए तो आपको पढ़ते है |
पता है आज ?कोनसा गाना जुबान पर है
बच्चे मन के सच्चे ......
बाकि मन तो चंचल है ही पखेरुओ की त रह |फिर अन्र्जाल पर तो यही स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए हमे क्या पढना है ?
यदि मन की खुशियों का हम आकलन करने लगें तो जीवन की पग डंडियाँ टेढ़ी -मेढ़ी न होकर सीधी सपाट हो जाएँ । न खुद भ्रम में रहें न किसी को भ्रम में रखें ।यह बात हर क्षेत्र में लागू हो सकती है। आलेख में संकेतात्मक प्रयोग बहुत अच्छा लगा ।
ReplyDeleteस्पष्टवादिता के लिए धन्यवाद |
सुधा भार्गव
पिछले पांच-सात दिनों से मैं भी मन की इसी उहापोह में हूँ और ब्लाग पर उसका असर बखूबी देखा जा सकता है । कहा जा सकता है कि-
ReplyDeleteआखिर कोई इन्सां हैं फरिश्ता तो नहीं हम.
अजीत जी मन से पंगा कोई भी नहीं ले सकता । अब मेरे मन को ही देखिए ना कह रहा है इतने दिनों में अजीत जी ने पूछा ही नहीं कि पोस्ट क्यों नहीं लिखी । क्या कारण है । मन का क्या कुछ भी उम्मीदें पाल लेता है । पिछली पोस्ट पर आपकी सार्थक और लंबी प्रतिक्रिया आयी थी लेकिन उत्तर नहीं दे पायी । क्यों नहीं दे पायी इसका कारण आपको मेरी आज की पोस्ट से मिलेगा , रसबतिया पर ज़रूर आइएगा । और हां मेरी बात को दिल पर मत लिजिएगा आपके लेख से मिलता जुलता उत्तर देने का मन किया इसलिए ऐसा लिखा ।
ReplyDelete.. अच्छा लगा आपके मन की सुनकर ..
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