आज सुबह से ही मन में भँवर सा उमड़ रहा है। भावनाओं के तूफान में बेचारे शब्द तेजी से घूम रहे हैं। उन्हें कहीं कोई मार्ग ही नहीं मिल रहा कि बचकर किधर से निकला जाए? कभी यह भँवर गोल-गोल घूमता हुआ बचपन में ला पटकता है जहाँ कभी बस बालू के टीले ही टीले थे और उन्हीं टीलों पर चढ़ते उतरते जीवन में कैसे एक-एक पैर बालू रेत पर धंसाते हुए चढ़ा जाता है, सीख लिया था। तो कभी वर्तमान में हमारी यादों को ला पटकता है यह भ्रमर। जहाँ नहीं है मखमली बालू और नहीं है बालू जैसा स्वभाव, जब कोई भी मन का कलुष, दाग बनकर नहीं चिपकता था। कभी माँ का स्मरण हो जाता है तो कभी पिता का, इन्हीं के बीच एक जोरदार लहर आती है और यादों की सुई बच्चों पर आ अटकती है। कभी बचपन के संगी साथी याद आ जाते हैं और कभी भाई-बहन। दुश्वारियों में भी रोज ही इन्द्रधनुष निकल आया करते थे और आज कहीं दूर-दूर तक भी कोई रंग नहीं है।
एक-एक मौसम जीवन्त होने लगे हैं। बरसात में कौन से पेड़ पर कोयल आकर बोलेगी और कौन सी चिड़िया गाने लगेगी, सभी का हिसाब था। रेतीली धरती पर जैसे ही बरखा की बूंदे पड़ती बस शुरू हो जाता पहल-दूज का खेल। बरसते मेह में जैसे ही कहीं सूरज को खिड़की मिलती झट से अपना चेहरा दिखा जाता और हम सब ताली बजाकर नाच उठते कि सियार का विवाह हो रहा है। सर्दी आते ही सूरज कैसा तो प्यारा-प्यारा लगने लगता। सुबह से ही उसका इंतजार होता और शाम ढले तक उसकी चाहत रत्ती भर भी कम नहीं होती। तिल-गुड़, मूंगफली तो ऐसे खाये जाते जैसे अब दवाइयां खायी जाती हैं। दिन में तीन बार। पिताजी बोरी भरकर मूंगफली लाते और बोरी भरकर ही गुड़। अब तो आधा किलो ही पड़ा-पड़ा खराब हो जाता है। इन सबके बीच गर्मी भी क्या गर्मी थी? तपती रेत, यदि चने भी उसमें डाल दो तो भूंगडे बन जाए लेकिन हम तो उसी के बीच चलते रहे। मानो भगवान ने कहा हो कि तप लो जितना तपना है, जिन्दगी में इससे भी ज्यादा तपन है। तब ना कूलर थे और ना ही एसी। पंखा भी पूरे घर में एक। लेकिन बचपन ने कहाँ माना है गर्मी का कहना। बस जहाँ-जहाँ से धूप जाती वहाँ-वहाँ हम होते और गर्मी की राते तो इतनी हसीन थी कि भुलाए नहीं भूलती। हवा का पत्ता भी नहीं हिलता लेकिन न जाने कितने ही टोटके बता दिये जाते कि ऐसा करने से हवा चलेगी। कोई कहता कि सात काणों के नाम लो तो हवा चलेगी। अब हम सब लग जाते एकाक्षी को ढूंढने। रेत भी रात को ठण्डी हो जाती और हम उसमें लोट-पोट करते रहते। कैसी थी वह बालू रेत? हाथ से सर से सरक जाती, कुछ भी पीछे छोड़कर नहीं जाती। और अब? धूल, काली धूल, उड़ती है कभी कपड़े काले तो कभी मन काला। यह कार्बन वाली धूल ना दिन में ठण्डी होती है और ना रात को।
इन सारी यादों के बीच लग रहा है कि शायद यह उम्र यादों को समेटने की ही है। सारा वैभव आसपास फैला है लेकिन मन उस अभाव के चक्कर लगा रहा है। बच्चों का प्रेम भी टेलीफोन और नेट से खूब मिल ही जाता है लेकिन फिर भी पिताजी की डांट और मार क्यों याद आने लगती है? क्यों वो माँ याद आती है जिसने जिन्दगी में हमें केवल डरना ही सिखाया। अरे यह मत करो और वह मत करो बस यही हमेशा बोलती रही और हमें कभी पिताजी से कभी भाई से डराती रही। आज कोई नहीं है ना डराने वाला और ना डांटने-मारने वाला। समय के साथ वह डांट, वह डर कहीं दिखायी नहीं देता केवल अपने मन के अन्दर के अतिरिक्त। बच्चों को गुस्से में भी डांट दो तो वे सीरियसली नहीं लेते बस हँस देते हैं। जब डांट का ही असर नहीं तो डर तो कैसा? यहाँ जिन्दगी भर डांट और डर को दिल में बसाये रहे कि वसीयत आगे देकर जाएंगे लेकिन अब तो कोई इस फालतू चीज को अंगीकार ही नहीं करता। ओह मैं भी ना जाने किस भँवर में फंसकर बस यादों के बीच चक्कर काट रही हूँ, आप लोग भी सोच रहे होंगे कि हम भला क्यों उलझे इस भ्रमर में? लेकिन शायद हमें ऐसे ही भ्रमर जीने का मार्ग बताते हैं और कहते हैं कि दुनिया बदल गयी है सचमुच बदल गयी हैं। तुम तो अपनी नाव को पतवार से खेते आए थे लेकिन अब तो नाव का ही जमाना कहाँ रहा?
यादों के भंवर में डूबती उतराती सी पोस्ट ...
ReplyDeleteऔर अब? धूल, काली धूल, उड़ती है कभी कपड़े काले तो कभी मन काला।
लगता है ५५-६० की उम्र आते आते एक सी ही सोच हो जाती है :):)
वाकयी अब कहाँ रहा नाव का ज़माना जो पतवार चला कर ही पार लगा ली जाये
आपका अंदाज मन को छू जाता है। इस शानदार पोस्ट के लिए बधाइ स्वीकारें।
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प्रेत साधने वाले।
रेसट्रेक मेमोरी रखना चाहेंगे क्या?
बालू रेत सी सुनहरी यादें..
ReplyDeleteकहतें हैं यादें जीवन की अनमोल धरोहर हैं, इसी याद के समंदर में गोते लगाती पोस्ट.. खूब
kitne bhanwar se ubre khyaal hain , bahut hi apne se
ReplyDeleteअजित जी
ReplyDeleteआज की पोस्ट बहुत अच्छी लगी बिल्कुल मेरे दिल से निकली हुई लेकिन पढ़ कर थोडा दुःख बढ़ गाय विवाह के इतने सालो बाद भी अपना घर माँ बाप भाई बहन पचपन शहर स्कुल सहेलिय कुछ भी आज तक दिल से नही गया है एकांत मिलते ही सब यादे दिमाग में आने लगती है और आँखे गीली हो जाती है सोचा था की समय बीतने के साथ ये यादे भी चली जाएँगी पर आप को पढ़ कर नहीं लगता की बेटियों के दिल से ये सब कभी भी जाने वाला है | शायद इन रुला देने वली यादो से दुनिया से जाने के बाद ही मुक्ति मिलेगी |
बहुत ही सुन्दर पोस्ट..बचपन के दिनों का बहुत ही सुन्दर शब्द चित्र उकेरा है..सच ही कहा है कि अब दुनियां बदल गयी है. आभार
ReplyDeleteबहुत सुंदर जी हम सब कभी ना कभी इन यादो के भंवर मे जरुर फ़ंसते हे, ओर बहुत अच्छा भी लगता हे.....जमाना बदलता रहता हे लेकिन यादे वही पुरानी कुछ खट्टी तो कुछ मिठ्ठी लेकिन सुखद. धन्यवाद इस सुंदर पोस्ट के लिये
ReplyDeleteअजित जी,
ReplyDeleteकौन नहीं डूबता इन भंवरो में बल्कि मेरा तो कहना है...अकेले नहीं बल्कि लोगो को भी इस भंवर के लपेटे में लेते चलिए...देखिए कितने लोंग साथ हो लिए...:)
ये 'डर' वाली बात तो, जैसे दिन में एक बार मैं भी दुहरा ही लेती हूँ...सारी ज़िन्दगी डरते हुए ही बीत गयी और आज के बच्चों को अगर यह कह दो..तो कहते हैं...'इट्स योर लॉस....अपनी बात खुल कर कहनी चाहिए..डर कैसा'
पर सही है...परिवर्तन देख ही नहीं रहे....पूरी तरह महसूस भी कर रहें हैं.
behtreen prastuti ,.....
ReplyDeleteab to naav boats me badal gaye di....:)
ReplyDeleteyadon ka bhanwar pyara laga...:)
di ab jaldi se mere blog pe aaiye..:P
बहुत अच्छी पोस्ट है... मन को छू लेने वाली...यादें...तो बस यादें हैं... कभी न भूलने वाली यादें...काश फिर से वही दिन लौट कर आ सकते...काश... एक बार तो ऐसा हो पाता...हम अपने माज़ी को फिर से जी पाते...
ReplyDeleteयादों का भंवर और समय के बदल जाने का एहसास!
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट!
अब तो नाव का ही जमाना कहाँ रहा? wakayee.kitni sahajta se sachchayee likh di aapne.man ko choo gaya.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा यादो का भवर | इस भंवर में हम भी अपने अतीत के साथ साझी हो गए | आभार |
ReplyDeletesara hee bachapan yad aa gaya.vo patang udana aur lootna,ayis payis kheilna til kei laddu khana.vo chup chup kei picture dekha phir sham ko pesshi hona.jo bachapan hamnei jiya wo aaj ki generation ko kahan naseeb they can not even think of it .abb to you must have attitute.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर वर्णन! समय बीतने पर यादों की पोटली ही तो रह जाती है।
ReplyDeletebahoot sunder post. yodon ke bhanwar se nikalan aasan nahin hota......yaden hoti hi kuchh aisi hai.
ReplyDeleteसच अजितजी
ReplyDeleteये भवर में डूबना भी कितना सुखद है शायद पीढ़ीदर पीढ़ी ऐसा ही चलता है हमसे बड़े बुजुर्ग भी अपनी मीठी यादो से हमे रूबरू करवाते रहे है |लेकिन आने वाली पीढ़ी ?संचार माध्यमो से इतने पास होते हुए भी इतने दूर क्यों है ?ईस प्रश्न का उत्तर खोजती हुई अपनी सी लगी यः आपकी पोस्ट |
वक्त बहुत बदल गया है ..आपकी यादों का प्रस्तुतीकरण सुन्दर लगा.
ReplyDeleteयही यादें तो संस्मरण बन जाती है!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट!
स्मृति मन का विषय है। अतीत मोह दुःखद ही क्यों न हो उसकी स्मृतियां मधुर होती हैं। मधुर स्मृति किसी संगीत की भांति जीवन के तार-तार में व्याप्त रहती है।
ReplyDeleteजीवन सागर में रे भैया ...
ReplyDeleteयादों के भँवर में तो शब्द अपनी दिशा खो देते हैं।
ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट पढ़ कर हम भी भँवर में फँस गए - और एक मधुर उदासी मन को सींच गई .
ReplyDeleteआपका ब्लॉग जोड़ लिया है.
ReplyDeleteयादें हमेशा मन को गुदगुदाती हैं। अच्छी हो या बुरी, हर यादों से कुछ न कुछ सीखने मिलता है। यादों के झरोखों को खोलकर आपने न सिर्फ अपने को तरोताजा किया है बल्कि इसे पढने वाले हर पाठक को मन तरोताजा हुआ होगा ऐसा लगता है। एक और सराहनीय पोस्ट के लिए बधाई हो।
ReplyDelete.
ReplyDeleteआपने बचपन की यादों को ताजा कर दिया। माता-पिता की डांट खाना तो एक वरदान की तरह है। हाँ , इसकी कीमत तब समझ आती है जब कोई डांटने वाला ही नहीं होता।
और मूंगफली की क्या खूब याद दिलाई। भारत में जाड़ों की नर्म धुप और धुप में बैठकर मूगफली और अमरुद खाना नमक के साथ॥ यहाँ थाईलैंड में तो जाड़ा होता ही नहीं। ३५ डिग्री साल भर।
भावुक कर दिया इस आलेख ने ।
आभार ।
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मन को छू गयी आपकी पोस्ट ... वो दिन अब लौट कर आने बहुत मुश्किल हैं ... अगर किरदार बदल कर हम बड़े हो जाएँ तो भी वो दिन नहीं वापस आने वाले ... बस उनकी याद ही आ सकती है ....
ReplyDeleteहाय! कहां गया मेरा बचपन:)
ReplyDeleteyaado me kho gaya...sundar rachna
ReplyDeleteशब्द विन्यास एवं भाषा प्रवाह बेजोड़ ।
ReplyDeleteपहली बार आई हूँ आपके ब्लॉग पर. यादों का इतना ख़ूबसूरत चित्रण देखने को मिला. अब तो आना लगे रहेगा.
ReplyDeleteआप सभी ने पोस्ट को पसन्द किया और अपना अमूल्य समय दिया इसके लिए आभार।
ReplyDeleteयादें तो बस सच मे ही भंवर की तरह होती हैं। सब कुछ बदल गया है।
ReplyDeleteखलायें रोज देती हैं सदा बीते हुये कल को
यही माज़ी तो बस दिल पर हमेशा वार करता है। \ लगता है ये समाज मे बदलाव एक दम से नई टेक्नालोजी से ही आया है। आज बच्चे बडों की नही बल्कि बडों को बच्चों की बात सुननी माननी पडती है। दिल की कशमकश बहुत सुन्दर शब्दों मे ब्यां की है शुभकामनायें।
एक ज़रूरी पोस्ट
ReplyDeleteआभार अच्छी लगी पोस्ट
बोलने का अधिकार बनाम मेरा गधा, और मैं.......!!
बोलने का अधिकार बनाम मेरा गधा, और मैं.......!!
अजित जी, आज दुबारा पढी आपकी पोस्ट और फिर कमेंट किया बिना न रहा, कारण मुझे भी सहसा अपना बचपन याद आ गया।
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आपका सुनहरा भविष्यफल, सिर्फ आपके लिए।
खूबसूरत क्लियोपेट्रा के बारे में आप क्या जानते हैं?
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ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लेख ....समय के साथ सबकुछ बदल जाता है बस रह जाती है ये यादें ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया भावपूर्ण अभिव्यक्ति... आभार
ReplyDeleteयादों के भंवर में डूबती उतराती ज़िन्दगी पर मर्मस्पर्शी लेख हेतु बधाई।
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट है... मन को छू लेने वाली
ReplyDeleteबहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
शब्दों और भावों के संस्मरणीय चतुर शिल्प के भंवर में उलझा ही दिया आपने
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