कल आजादी का पर्व था और सुबह-सुबह ही धर्म-संकट उपस्थित हो गया। 15 अगस्त होने के साथ कल रविवार भी था तो पिकनिक का दिन भी था। सुबह से ही लोग अपने घरों से निकल पड़े थे। हमारे घर के सामने भी बस आकर खड़ी थी और हमें चलने के लिए ललचा रही थी। मेडीकोज की सपरिवार पिकनिक थी और हम जाए या ना जाएं इसी धर्मसंकट में थे। अभी पिछली पोस्ट में लिख ही चुके थे कि कैसे मन अपना ही बंदी बन जाता है। एक तरफ हमें गाँव में जा कर स्वतंत्रता दिवस मनाना था और दूसरी तरफ यह पिकनिक थी। एक तरफ हमारी संस्था के लोग थे और हमारे पास उसका उत्तरदायित्व सबसे अधिक था तो दूसरी तरफ पतिदेव के साथ जाना था।
मैंने पतिदेव से पूछा कि क्या करना चाहिए? हमारे यहाँ यह अच्छी बात है कि वे मुझे पूर्ण रूप से स्वतंत्र छोड़ देते हैं और मैं उन्हें। मैंने कहा कि मेरा मन इन सब में लगता नहीं फिर कोई विशेष संगी साथी भी नहीं है तो नहीं जाऊँ तो चलेगा क्या? उन्होंने एक बार सारी पड़ताल की और कहा कि तुम्हारे परिचित कई लोग नहीं जा रहे हैं तो तुम भी मत जाओ, उसी में तुम सुखी रहोगी और हम वाकयी सुखी हो गए। लेकिन जब बस घर के बाहर आकर खड़ी हुई तो मन फिर विचलित हो गया। मौज मनाने जाएं या कर्तव्य निभाने? लेकिन फिर मन ने कहा कि वही करो जो मन कहता है और इस बार हमारा मन जीत गया। हमने फोन किया अपने साथियों को कि हम गाँव चल रहे हैं।
गाँव पहुंचकर एक शान्ति सी मिलती है, ढेर सारे बच्चे आजादी की खुशियां मना रहे होते हैं और सारा गाँव ही एकत्र हो जाता है तो ऐसा लगता है कि अपने लोगों के मध्य आ गये हो। बस कल एक बाधा हो गयी, सुबह ही किसी युवक का गाँव में निधन हो गया तो हम लाउडस्पीकर नहीं बजा सकते थे। बच्चे नृत्य और गायन के लिए तैयार होकर आए थे, हमने उन्हें मायूस किया। कहा कि यदि हम ही गाँव के शोक में शामिल नहीं होंगे तो कौन होगा? गाँव में नयी महिला सरपंच बनी थी, वो आयी। हम वहाँ पहले एक स्कूल चलाते थे लेकिन सरकारी स्कूल चलने से अब बंद कर दिया है और वहाँ एक सिलाई केन्द्र चला रहे हैं। सरपंच ने आते ही बताया कि हमने यहाँ बरामदे को पक्का कराने के लिए पाँच लाख रूपये स्वीकृत करा लिए हैं।
मैंने गणतंत्र दिवस पर एक पोस्ट लिखी थी और लिखा था कि अब पति के स्थान पर पत्नी को सरपंच का टिकट मिला हैं, तो अब पूर्व सरपंच पति की ही पत्नी सरपंच बनी है। मेरा कई वर्षों से आग्रह था कि स्कूल के बाहर का बरामदा पक्का बने लेकिन पूर्व सरपंच हमेशा हाँ कहते थे, काम होता नहीं था। लेकिन इस बार महिला सरपंच ने आते ही मुझे बताया कि अब शीघ्र ही काम शुरू होने वाला है। पूर्व सरपंच कहने लगे कि अब तो आप खुश हैं? मैंने कहा कि यह काम आपका नहीं है यह तो हमारी भाभी का कमाल है। हमने भी बच्चों से कहा कि आज आपका नृत्य हम नहीं देख सके और ना ही आपको पुरस्कार दे सके तो कोई बात नहीं अब जैसे ही यह बरामदा पक्का बनेगा हम यही एक बड़ा कार्यक्रम करेंगे और आप सभी को पुरस्कार देंगे।
मेरी यह पोस्ट लिखने के दो मकसद थे, एक तो यह कि जहाँ हमारा मन करे वहाँ पर ही जाना चाहिए। दूसरा यह कि महिला सरपंच के आते ही काम की गति किस तरह से बढ़ जाती है। एक बात और, कि हम कहते हैं कि यह तो नाम की ही सरपंच है, असली तो उसका पति है। जब पहले हमारे कार्यक्रम में पति सरपंच आता था तब उससे हम कुछ बोलने को कहते थे तो वो बोल नहीं पाता था और अब पत्नी नहीं बोल पाती। तब पति दो लाइन बोलने खड़ा हुआ और यह सिद्धान्त बन गया कि पति के सहारे ही पत्नी चलती है। ऐसा नहीं है, हम यही चर्चा कर रहे थे कि इसकी पत्नी दबंग लगती है देखना कुछ ही दिनों में सारा कामकाज अपने हाथ में ले लेगी। एक बात और, हमने पूर्व सरपंच को कभी जीप में आते नहीं देखा इस बार हमारी सरपंच जीप में आयी थी। इसलिए यह कहना कोई मायने नहीं रखता कि महिलाएं तो केवल नाम की ही राजनेता होती हैं। बस उन्हें अवसर मिलने की देर है, वे पुरुषों से भी अधिक तेज चलती हैं।
यह कहना कोई मायने नहीं रखता कि महिलाएं तो केवल नाम की ही राजनेता होती हैं। बस उन्हें अवसर मिलने की देर है, वे पुरुषों से भी अधिक तेज चलती हैं। ...
ReplyDeleteबात में दम तो है ..
जाना वहीँ चाहिए जहाँ जाने का मन करे ... करना तो यही चाहिए ...लेकिन कई बार परिस्थितियां ऐसी जगह ले जाती है ...मगर नकारात्मक लोगों के बीच अपनी सकारात्मकता को बचाए रखना भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं होती ..!
यह कहना कोई मायने नहीं रखता कि महिलाएं तो केवल नाम की ही राजनेता होती हैं। बस उन्हें अवसर मिलने की देर है, वे पुरुषों से भी अधिक तेज चलती हैं।
ReplyDeleteबेहद प्रभावशाली पोस्ट !
samay हो तो अवश्य पढ़ें:
पंद्रह अगस्त यानी किसानों के माथे पर पुलिस का डंडा
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html
आपने सही में स्वतंत्रता दिवस मनाया ...
ReplyDeleteमहिलाएं सच में ही ज्यादा बेहतर राजनेता होती हैं ...उनमें मैनेजमेंट का गुण विरासत में मिला होता है...ऐसे ही थोड़े ही पुरूषों को मैनेज करती हैं :):)
सटीक लेखन ...
जहाँ हमारा मन करे वहाँ पर ही जाना चाहिए-
ReplyDeleteफिर कर्तव्य बोध ? जिम्मेदारियां ?-ये मन बड़ा पापी होता है .
आपका गाँव ठीक है वर्ना हमने तो ९० फीसदी प्रधान पति ही देखे हैं -मतलब कानून पत्नी मगर व्यावहारिक प्रधान तो उसका पति ही ...
समाज इतना तेजी से नहीं बदल रहा है ...
बेहद उम्दा और सटीक लेखन्।
ReplyDeleteआज महिलायें किसी विधा मे पीछे कहाँ हैं बस आगे बढने के मौके मिलने चाहिये खुद को साबित करना उन्हें आता है।
mind blowing!
ReplyDeletebht hi khoob likha hai,bht kam log(pati) hote hai,jo mahillao (patni) ko aage badne ke avsar pardaan karte hai...great ajit ji...
उम्दा प्रस्तुति.
ReplyDeleteअरे क्या बात है आज तो मजा आ गया आपकी पोस्ट पढकर
ReplyDeleteएसी ही जानकारियां देती रहा कीजिये मनोबल बढ़ता है :)
मम्मा... आपकी यह पोस्ट तो बहुत अच्छी लगी ........ यह बात तो सही है ... ममा... कि महिलाओं को अगर मौका मिले तो काफी काम आसान हो जाते हैं.... और तेज़ी से होते हैं.... बहुत ही उम्दा पोस्ट....
ReplyDeleteमहिलाओं के हाथ में वही काम आने से गति बदल जाती है और मन का करना चाहिये। दोनो से सहमत। सच में, होना ही पड़ेगा।
ReplyDeleteभारतीय नारी,
ReplyDeleteअब न रही बेचारी,
--
आपकी पोस्ट सटीक रही !
अजित जी मन तो बहुत कुछ कहता है.... इस लिये वो ही करे जो दिमाग कहे, डा० ने अगर किसी चीज से परहेज बताया हो तो मन तो उसी चीज को खाने को करता है, उस समय दिमाग की बात मानानी चाहिये, मन को जीतना चाहिये, इस के गुलाम नही बनाना चहिये, कहते है ना मन जीते जग जीत, माफ़ी चाहुंगा आज पहली बार आप की बात को काटा है.... अभी अभी एक फ़िल्म आई थी बेल्ड्न अब्बा, बस इसे देखे ओर सरपंच महिला भी देखे.
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई
बिलकुल ठीक कहा आपने. स्त्रियों को तो वैसे भी घर की सत्ता चलाने का अनुभव होता है इसलिए मैं तो समझती हूँ की स्त्री अच्छी तरह से बागडोर संभाल सकती है...अब ये बाते गलत साबित होती है की स्त्री केवल चुला-चौका ही संभाल सकती है.
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट.
जी हां महिला तेज़ ही चलती है पुरुष के पीछे......
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने।
ReplyDeletebehtreen post.....sadhuwad..
ReplyDeleteराज भाटिया जी, हम ब्लागिंग क्यों करते हैं? क्या एक दूसरे की तारीफ करने के लिए? लेकिन मैं ऐसा नहीं मानती, मैं मानती हूँ कि हम एक दूसरे के विचारों के आदान-प्रदान के लिए लिखते हैं। इसलिए आपका अधिकार है कि आप मेरी किसी भी बात पर अपनी अलग टिप्पणी दें।
ReplyDeleteलेकिन आपने यहाँ मन और दिमाग की बात कही, मैं अपनी इस पोस्ट से केवल यह कहना चाहती थी कि कई बार हमारा मन ही उहापोह में फंस जाता है तब उसे कैसे दृढ़ करें?
राजस्थान में पंचायतों और नगर-परिषदों में 50 प्रतिशत महिला पद हैं। मैंने अपनी पोस्ट में यही लिखा है कि पुरुष जब कुछ नहीं बोलना जानता तो हम उसे स्वीकार कर लेते हैं लेकिन महिला को स्वीकार नहीं कर पाते। राजस्थान में महिलाओं में दबंगता में कहीं कमी नहीं है। कई मायनों में यह प्रदेश देश के अग्रणी प्रदेशों में से एक है। कभी राजस्थान आइए फिर देखिए यूपी, बिहार और राजस्थान का अन्तर।
सहमत हैं जी आपके विचारों से।
ReplyDeleteमहिला पुरुष वाली मानसिकता बदल रही है, समय लगेगा, लेकिन परिवर्तन तो है ही।
आशा करनी चाहिये कि महिलायें सत्ता में सहभागिता पाकर भी संतुलित व्यवहार ही करेंगी।
meri soch kahti hai, mahilayen, kisi kathinai ko tarike se samajh pati hai...to jab wo ghar sambhal pati hai to desh ya gaon kyon nahi.......:)
ReplyDeletesahi kaha aapne!!
गाँव मे ही सम्पूर्ण भवुकता से यह पर्व मनाया जाता है ।
ReplyDeleteसही कहा जी । वही करना चाहिए जो मन कहे ।
ReplyDeleteसरपंच तो कोई हो , काम तो बस यूँ ही होते हैं ।
बहुत सटीक बात कही आपने. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
महिला हो कर महिलायों की तारीफ अछ्छी बात नहीं है आज के डोर में सब बराबर है चाहे महिला हो पुरुष या बच्चे, लेकिन सब के लिया शिकछा अनिवार्य है , महिलाये ममतामयी होती है इसलिए उनका थोडा भी जादा लगता है अजय त्रिपाठी
ReplyDeleteतुलनात्मक अध्ययन : [1]
ReplyDelete# मैंने पतिदेव से पूछा कि क्या करना चाहिए? हमारे यहाँ यह अच्छी बात है कि वे मुझे पूर्ण रूप से स्वतंत्र छोड़ देते हैं और मैं उन्हें।
@ आप पति को आज भी देव मानती हैं. बेशक यह अवचेतन से निकता संबोधन हो "पतिदेव". और उसके बाद उनसे राय-मशवरा लेना भी आपका स्वभाव है.
पति जी का आपको स्वतंत्रता देना आपके निश्चिन्त घूमने-फिरने का कारण भी है, हाँ बाद में 'मैं उन्हें' कहकर आप अपने दबंग वजूद का एहसास भी करा रही हैं.
# मैंने कहा कि मेरा मन इन सब में लगता नहीं फिर कोई विशेष संगी साथी भी नहीं है तो नहीं जाऊँ तो चलेगा क्या? उन्होंने एक बार सारी पड़ताल की और कहा कि तुम्हारे परिचित कई लोग नहीं जा रहे हैं तो तुम भी मत जाओ, उसी में तुम सुखी रहोगी और हम वाकयी सुखी हो गए। लेकिन जब बस घर के बाहर आकर खड़ी हुई तो मन फिर विचलित हो गया। मौज मनाने जाएं या कर्तव्य निभाने? लेकिन फिर मन ने कहा कि वही करो जो मन कहता है और इस बार हमारा मन जीत गया। हमने फोन किया अपने साथियों को कि हम गाँव चल रहे हैं।
@ अगर यहाँ आपके परिवेश को बदल दिया जाए और आपकी जगह कोई ग्रामीण महिला कहे
"मेरा मन सरपंचई में नहीं लगता, फिर वहाँ [पंचायत-सभा में] कोई विशेष संगी-साथी [महिला-सखी] भी नहीं हैं, तो [अगर] नहीं बनूँ तो चलेगा क्या?"
उसके बाद पति महोदय पूरी पड़ताल करें और कहें कि "तुम्हारी जैसी ही कई महिलायें सरपंच का चुनाव नहीं लड़ रही हैं. तो तुम भी मत लड़ो, उसी में तुम सुखी रहोगी."
पर जब 'सरपंचई' घर के दरवाजे आकर खडी* हुई तो मन फिर विचलित हो गया. आप सोचने लगे 'चाहरदीवारी लांघें या देहलीज तक ही रहें'. लेकिन फिर मन ने ही कहा कि वही करो जो मन कहता है**. आपका मन जीत गया, आप सरपंच बने. आपने जीप*** निकाली और स्कूल का बरामदा पक्का करने चल पड़े.
* सरपंचई पहले भी आपके पति के पास थी, इसलिये उसे घर के दरवाजे पर खडी बताया है.
** यहाँ 'पुनरुक्तिदोष' है पर पुनरुक्तिगुण का स्वाद दे रहा है.
*** जीप और फौन दोनों ही पहुँचने के साधन हैं. फौन एक सुविधा है जिससे आपने प्लानिग की है. दूसरी तरफ जीप वह सुविधा है जो पति ने तब निकाली है जब उसकी असल ज़रुरत सामने आयी. वह यदि खुद सरपंच होता तब उसे लिफ्ट देने वाले कई होते. लेकिन उसकी महरारू अगर सरपंच बनी है तो वह यदि कहीं जायेगी तो घर की जीप में ही जायेगी, यह पति को भी सुहाएगा. वह नहीं चाहेगा कि उसे कोई और लिफ्ट देकर पहुँचाये, उसे इस तरह अपरोक्ष रूप से नाकारा घोषित कर दे.
तुलनात्मक अध्ययन : [2]
ReplyDelete# मेरा कई वर्षों से आग्रह था कि स्कूल के बाहर का बरामदा पक्का बने लेकिन पूर्व सरपंच हमेशा हाँ कहते थे, काम होता नहीं था। लेकिन इस बार महिला सरपंच ने आते ही मुझे बताया कि अब शीघ्र ही काम शुरू होने वाला है। पूर्व सरपंच कहने लगे कि अब तो आप खुश हैं? मैंने कहा कि यह काम आपका नहीं है यह तो हमारी भाभी का कमाल है। हमने भी बच्चों से कहा कि आज आपका नृत्य हम नहीं देख सके और ना ही आपको पुरस्कार दे सके तो कोई बात नहीं अब जैसे ही यह बरामदा पक्का बनेगा हम यही एक बड़ा कार्यक्रम करेंगे और आप सभी को पुरस्कार देंगे।
@ यहाँ भी परिवेश को पलट देते हैं और एक ग्रामीण महिला का शहरी-विजिट एक पूर्व परिचित (गुप्ता जी) के यहाँ दिखलाते हैं :
"मेरा कई वर्षों से आग्रह था कि [गुप्ता जी] घर के दरवाजे पर एक नीम का पेड़ जरूर लगाएँ, लेकिन पूर्व परिचित हमेशा हाँ कहते थे, काम होता नहीं था. लेकिन इस बार श्रीमती गुप्ता जी से परिचय हुआ और उनसे बात कही तो शीघ्र नीम का पौधा रौंप दिया गया. पूर्व परिचित कहने लगे कि अब तो आप खुश हैं? मैंने कहा कि यह काम आपका नहीं है यह तो हमारी भाभीजी का कमाल है. हमने तब उनके बच्चों से कहा कि तुम अब टूथपेस्ट में पैसे बरबाद मत करना कुछ सालों में इसकी दातुन से दाँत साफ़ करना, घमोरियों के निकलने पर नाइसिल पाउडर की बजाय इसकी पतियों को गरम पानी में उबालकर फिर ठंडा करके नहाना. इस बार हम आपका डांस नहीं देख सके और ना ही आपको गाँव का कोई अचार दे सके. अब जैसे ही यह पेड़ बड़ा होगा हम यहीं एक झूला डालेंगे और आप सभी को सावन के गीतों के साथ आम का अचार भी लाकर खिलायेंगे.
# हम कहते हैं कि यह तो नाम की ही सरपंच है, असली तो उसका पति है। जब पहले हमारे कार्यक्रम में पति सरपंच आता था तब उससे हम कुछ बोलने को कहते थे तो वो बोल नहीं पाता था और अब पत्नी नहीं बोल पाती। तब पति दो लाइन बोलने खड़ा हुआ और यह सिद्धान्त बन गया कि पति के सहारे ही पत्नी चलती है।
@ बोल ना पाने की समस्या संकोच है और ना बोलने वाले जरूरी नहीं जमीनी कार्य में भी संकोच करते हैं. 'शब्दों की भाषा' से अहमियत है 'कार्य की भाषा' की.
पति और पत्नी मिलकर एक ऎसी भाषा निर्मित करते हैं जिसमें वर्ण-व्यवस्था पति है तो लिपि पत्नी है. वर्ण-व्यवस्था को समयबद्ध, क्रमबद्ध, रूपबद्ध करना लिपि का ही काम है.
# बस उन्हें अवसर मिलने की देर है, वे पुरुषों से भी अधिक तेज चलती हैं।
@ इसे मैंने अपनी काल्पनिक कथा में स्पष्ट कर दिया है. कि महिलायें तेज़ कैसे चलती हैं.
बिलकुल सही आकलन है,आपका...बस अवसर मिलने की देर है...महिलायें,पुरुषों से ज्यादा अच्छी तारक काम को अंजाम दे सकती हैं...धीरे धीरे ही सही...अब तस्वीर बदलनी चाहिए
ReplyDeleteतरह *
ReplyDeleteअवसर और सुविधाए तो सबको बराबर है किन्तु महिलाये उन अवसरों और सुविधाओ का सदा से सदुपयोग करती आई है इसलिए उनके काम में पारदर्शिता और सलीका होता है परिणामस्वरूप काम नज़र आता है |
ReplyDeleteयही तो महिलाओ. के प्रबंधन का कमाल है |
bhut achi rachna
ReplyDeleteभाई प्रतुल जी, आनन्द आ गया। सच मायने में टिप्पणी लगी। लेकिन एक बात बता दूं कि आपने सरपंच बनने में और कही जाने में जो तुलना की है वह अजीब सी है। लेकिन फिर भी बता दूं कि ऐसे अवसर जिनमें केवल मेरी भागीदारी ही है वो तो मैं कई बार ठुकरा चुकी हूँ। कई अच्छे राजनैतिक प्रस्ताव आदि। यहाँ सवाल पतिदेव के साथ पिकनिक पर जाने का था, कहीं उन्हें ऐसा नहीं लगे कि मेरे साथ जाने में मना कर दिया।
ReplyDeleteलेकिन कुल मिलाकर आपकी टिप्पणी अच्छी लगी, यहाँ सभी चीजों का स्पष्टीकरण करने लगूंगी तो पता नहीं कितने जवाब-सवाल हो जाएंगे। आप इसी प्रकार टिप्पणी करते रहेंगे तो अच्छा लगेगा।
जो आपने बताया वो हम सब जानते हैं पर मुझे सबसे अच्छी बात यह लगी की आपने कितनी सहजता से फिर भी सधे हुए शब्दों
ReplyDeleteमें इस हकीक़त को सामने रखा। अभिभूत......
अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर.
सुखद लगा आपकी पोस्ट पढ़ना .. महिलाएँ आगे आएँ अपना अधिकार जताएँ ये बहुत अच्छी बात है .... वे ज़्यादा सफल होंगी इस बात में कोई दो राय नही ........
ReplyDeleteआदरणीय मैम, अपवाद हर जगह देखने को मिलते हैं.. ये भी उन्हीं में से एक है.. वैसे भी पत्नी कितनी भी आगे बढ़ जाए बेचारी वही पतिदेव कहती है कभी किसी पति को सिवाय व्यंग्य के अपनी पत्नी को पत्नीदेवी कहते नहीं सुना.. :)
ReplyDeletereallly ...i am happy...to know these things.......i want to support all the efforts made by women...to their developments....it is necessary...as u said...for the progresss of our nation too....thnx...for this post
ReplyDeleteलेख अच्छा लगा .....
ReplyDeletebehtareen post
ReplyDelete.
ReplyDeleteदेश को आज़ादी भले ही १९४७ में मिली हो, महिलाओं को मिलनी अभी बाकी है। हमें किश्तों में आज़ादी मिल रही है।
औरों का पता नहीं , मुझे आज़ादी मिली सन २००५ में । आज़ादी का असली मज़ा अब आ रहा है ।
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यह कहना कोई मायने नहीं रखता कि महिलाएं तो केवल नाम की ही राजनेता होती हैं। बस उन्हें अवसर मिलने की देर है, वे पुरुषों से भी अधिक तेज चलती हैं।
ReplyDeleteismein kya shaq..!
आपने जिन दो मुद्दों को लेकर पोस्ट लिखी है, उनके सम्बन्ध में मेरी राय इस प्रकार है -
ReplyDelete१- कहीं जाना या न जाना या किसी कार्यक्रम में शामिल होना न होना विवेक और परिस्थितियों के अनुसार होना चाहिए.
२-किसी महिला के आने से काम पुरुष की अपेक्षा अच्छा होगा यह कहना भी उचित नहीं. यह व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर है.महिलाएं भी पुरुषों ही की तरह दृढ या कमजोर, ईमानदार या भ्रष्ट हो सकती हैं.इंदिरा गांधी का ही उदाहरण ले लीजिये . उन्होंने जहां बांगला देश मामले में दृढ़ता और हिम्मत दिखाई वहीं इमरजेंसी लगाना जैसा निंदनीय कृत्य ही किया.
जबतक हम स्त्री-पुरुष में भेद को एक-या-दुसरे को कमतर आंकने में करते रहेंगे तबतक वास्तविक परिवर्तन नहीं आएगा... आपकी लेख बहूत अच्छी है पर इसमें यदि पुरुष विरोधी भाव होने के बजे केवल स्त्री का महिमा मंडन होता तो ये सर्व-मान्य हो जाता।
ReplyDeleteकिसी एक को भला कहने के लिए किसी और को बुरा कहना आवश्यक नहीं है।
छोटा मुह और बड़ी बात के लिए क्षमा करें, पर जो दिल में आया वो लिख भेजा
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ReplyDeleteअजित जी,
आपके विचारों की सच्चाई से हमेशा ही अभिभूत रही हूँ। कृपया मेरी इस पोस्ट पर आकर अपने विचार रखें।
zealzen.blogspot.com
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